प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा
भादौ की अमावस्या से लेrastutiकर आश्विन तक के सारे पर्व कृषिकर्म, पशुपालन, जीविका और जीवन चर्या के लिए अर्जित होते गए अनुभवों के जोड़ हैं। छठ तो गाय जैसे पशुपालन और उससे प्राप्त दूध में धरती से प्राप्त अन्न को भाप कर खीर खाने, खिलाने का पर्व है। इसके साथ कृषि क्रिया संकर्षण की स्मृतियां जुड़ी है जो बाद में बलदेव का कृषि उजाड़ने वाले दुष्ट के संहार और हली होने के कारण नाम हुआ। जब लोक देवता देवनारायण का बलदेव और वासुदेव में अंतर विलय हुआ तो यह पर्व देवजी की छठ या भैरव की जागरण की छठ मान कर मनाया जाने लगा। इसका नाम है दूधारणी। यह बलदेव की पूजा का दुग्धपर्वहै।
मेवाड-मालवा में भादौ मास में प्राय शुक्ल पक्ष की छठ से आठौं तक कई जगह 'दूधारणी' पर्व मनाया जाता है। यह पर्व अहीर-गुर्जरों के भारत में प्रसार के काल से ही प्रचलित रहा है और खासकर कृषिजीवी जातियों की बहुलता वाले गांवों में मनाया जाता है।
यद्यपि आज यह देवनारायण की पूजा के साथ जुड गया है, मगर यह बलदेव की पूजा का प्राचीन लोकपर्व है। उस काल का, जबकि बलदेव को संकर्षण कहा जाता था। वे हलधर है, हल कृषि का चिन्ह है और कर्षण होने से वे संकर्षण अर्थात हल खींचने वाले कहलाए। मेवाड के नगरी मे मिले ईसापूर्व पहली-दूसरी सदी के अभिलेख में वासुदेव कृष्ण से पूर्व संकर्षण का नाम मिलता है।
मेवाड में बलदेव के मंदिर कम ही हैं, पहला नगरी में नारायण वाटिका के रूप में बना और फिर चित्तौडगढ जिले में आकोला गांव में 1857 में महाराणा स्वरूपसिंह के शासनकाल में बना।
इस पर्व के क्रम में जिन परिवारों में दूधारू पशु होते हैं, उनका दूध निकालकर एकत्रित किया जाता है। प्राय: पंचमी तिथि की संध्या और छठ की सुबह का दूध न बेचा जाता है, न ही गटका जाता है बल्कि जमा कर गांव के चौरे पर पहुंचा दिया जाता है। वहीं पर बडे चूल्हों पर कडाहे चढाए जाते हैं और खीर बनाई जाती है। पहले तो यह खीर षष्ठितंडुल (साठ दिन में पकने वाले चावल) अथवा सांवा (ऋषिधान्य, शाल्यान्न) की बनाई जाती थी मगर आजकल बाजार में मिलने वाले चावल से तैयार की जाती है।
इस खीर का ही पूरी बस्ती के निवासी पान करते हैं, खासकर बालकों को इस दूध का वितरण किया जाता है। बच्चों को माताएं ही नहीं, पिता और पितामह भी मनुहार के साथ पिलाते हैं।
इस पर्व के दिन गायों को बांधा नहीं जाता, बैलों को हांका नहीं जाता। प्राचीन लोकपर्वों की यही विशेषता थी कि उनमें आनुष्ठानिक जटिलता नहीं मिलती। उदयपुर के पास कानपुर, गोरेला आदि में यह बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है ओर पलाश के पत्तों के दोनें बनाकर उनमें खीर का पान किया जाता है। (श्रीकृष्ण जुगनू - मेवाड का प्रारंभिक इतिहास, तृतीय अध्याय) कानपुर के मांडलिया बावजी स्थान पर 22 कड़ाह भर कर छठ के अवसर पर खीर बनी और यह गेहूं के दलिए वाली थी।
मुझे लगता है यह पूरी अवधि कृषि, उपज की है :
अमावस : कुशा ग्रहणी, रस्सी से साध्य काम काज को जानकार कुशा को ग्रहण करने की स्मृति का दिन।
बीज / दूज : बीज का कार्य
तीज : हरतालिका तीज, 16 प्रकार की उपज का संग्रह करने अवसर, निश्चित ही पुरातन वार्ता, शिव को केतकी अर्पण।
चतुर्थी : दूर्वा चौथ, चूरमा चौथ यानी गेहूं का पीसकर उपयोग करने का अवसर
पंचमी : सांवा पांचम : आहार के योग्य पहले अनबोए अनाज सावा का संग्रह
छठ : दुधारणी, दूधपान का अवसर, खीर बनाकर उपयोग आदि।
दूब सातौं : दूर्वा की पूजा।
आश्विन मास तो पूरा ही जड़ी बूटियों के संग्रह कार्य का अवसर, अश्विनी कुमार वैद्य के नाम...
✍🏻श्रीकृष्ण जुगनु
षष्ठी - (मातृका और कार्तिक मास)
भाद्रपदशुक्लाषष्ठी हल-षष्ठी नाम से मनती है, यह तिथि बलराम जी के जन्मदिन से संयुक्त भी मानी गई है, इस दिन महिलायें हल से उत्पन्न अन्न नहीं खाती हैं। इसके ६० दिनों बाद मनाई जाने वाली डाला-छठ भी ऐसा व्रत है जिसमें निराहार रहती हैं। उपज का षष्ठांश राजा ले जाता था , हलषष्ठी एवं डालाछठ ६० दिनों में उत्पन्न होने वाली धान की सस्य से जुड़ा हुआ लगता है, एवं षष्ठांश प्रकृति राजा को दिया जाने वाला कर।
चातुर्मास के व्रतों में प्राजापत्यादि व्रत में अन्तिम ३ दिन निराहार रहकर व्रत का निर्देश पुराणों में प्राप्त है। डालाछठ में भी ३ दिनों का व्रत उन्हीं व्रतों का संक्षिप्त रूप ही है।
( इस टिप्पणी के प्रत्युत्तर में नेपालदेशनिवासी श्री उद्धब भट्टराई अपनी स्मृति लिखते हैं कि -
जी बिल्कुल सत्य तथ्य आधारित है।मुझे याद है पहले हमारे यहां साठ़ी प्रजाति के धान की चावल से ही आज की शाम भोग में प्रयोग होनेवाली रसीआव रोटी वाली गुड़ प्रयुक्त खीर और उसी साठ़ी चावल
के आटे से ही "डाला छठ"पूजा के लिये शुद्ध देशी घी में ठेकूवा प्रसाद तैयार किया जाता रहा।
✍🏻अत्रि विक्रमार्क
कृष्णाष्टम्यां तु रोहिण्यां प्रौष्ठपद्यां शुभोदये
रोहिणी जनयामास पुत्रं संकर्षणं प्रभुम्
रोहिण्यां कृषिकर्माणि कारयेत्
(शाङ्खायनगृह्यसूत्रम्)
वराहं पूजयेद्देवं प्रारम्भे कृषिकर्मणि - विष्णुधर्मोत्तर
वराह और उनकी शक्ति वाराही के आयुधों में हल तथा मुसल भी हैं।
हल में एकदंष्ट्र ही तो होता है. !
यह कृषि-सभ्यता का अध्याय वाराह कल्प के आदि से चला आ रहा है।
एकदंष्ट्र से लेकर शतबाहु तक का उल्लेख
कृषि उपकरणों व कृषि की विधियों के विकास की गाथा है।
अवतारों में फिर आठवें अवतार बल-राम के हाथों में यही आयुध आते हैं, वे यमुना का संकर्षण करते हैं ताकि कृषि केवल इन्द्र के सहारे न रहे।
हाथों में हल होगा तो श्रम करना पड़ेगा, कृषि में श्रम की महत्ता है।
व्रतियों को कृषि-अन्न अर्थात् यज्ञफल से वञ्चित रखा गया है, उनके लिये समाधान है। समा धान, समा चावल (जो कि चावल नहीं होते) , एक प्रकार की घास के बीज होते हैं जो बिना हल के उपयोग के उत्पन्न होते हैं. व्रतधारी व्रत में इसे ही खाते हैं, यह कदन्न की श्रेणी में आता है।
महावीर व्रती थे उन्होंने श्रम निषेध करते हुये कृषि-कर्म वर्जित कर दिया। महावीर के अनुयायियों को हल से उत्पन्न किये हुये अन्न का सेवन नहीं करना चाहिये।
✍🏻अत्रि विक्रमार्क
भ्रातप्रेम की महान प्रेरणा , श्री कृष्ण के सबसे बड़े साथी हलधर श्रेष्ठ जिनका रूप भारत भूमि के किसानों को प्रस्तुत करता है । जिन्होंने अपने जीवन में योद्दा और प्रजापालक के रूप अपनी पहचान स्थापित की थी ।
में श्री बलदाऊ जी महाराज से आप सभी के उत्तम स्वास्थ्य और समृद्धि की कामना करता हूं ।
ब्रज में कहा भी जाता है की
शक्ति अपार बलराम की
कांधे पर हल साजे
जहाँ बैठे कृष्ण कन्हैया
वहीं दाऊ विराजे।
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