“सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है”
– राम inन से सुनते आ रहे हैं। यह कविता, महान क्रन्तिकारी राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ ने लिखी थी। प्रसिद्ध ‘काकोरी कांड’ के लिए फांसी दिए जाने वाले क्रांतिकारियों में से बिस्मिल मुख्य थे, जिन्होंने काकोरी कांड की योजना बनाई थी।
पर बिस्मिल के साथ ऐसे बहुत से और भी देशभक्त थे, जिन्होंने अपनी जान की परवाह किए बिना, खुद को देश के लिए समर्पित कर दिया था। कुछ तो उनके साथ ही फिज़ा में मिल गए, तो कुछ ने अपना कारावास पूरा करने के बाद आज़ादी तक संग्राम की मशाल को जलाए रखा।
काकोरी कांड के लिए गिरफ्तार होने वाले 16 स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे मन्मथ नाथ गुप्त। जब उन्होंने काकोरी कांड में बिस्मिल का साथ देने का फैसला किया, तब वह मात्र 17 साल के थे। अपने जीवन की आखिरी सांस तक वह भारत के लिए ही जिए।
मन्मथ नाथ, हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सक्रीय सदस्य थे। यहाँ वह सबसे युवा क्रांतिकारियों में से थे। राम प्रसाद बिस्मिल की अगुवाई में 9 अगस्त 1925 को हुई काकोरी डकैती में मन्मथ भी शामिल थे।
9 अगस्त 1925 को हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के क्रांतिकारियों ने काकोरी में एक ट्रेन लूटी थी। इसी घटना को ‘काकोरी कांड’ के नाम से जाना जाता है। क्रांतिकारियों का मकसद ट्रेन से सरकारी खजाना लूटकर उन पैसों से हथियार खरीदना था, ताकि अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध को मजबूती मिल सके। इस लूट में कुल 4,601 रुपये लूटे गए थे। यह ब्रिटिश भारत में हुई सबसे बड़ी लूट थी।
क्रान्तिकारियों ने डकैती के दौरान, पिस्तौल के अतिरिक्त, जर्मनी के बने चार माउज़र भी इस्तेमाल किए थे। उन दिनों यह माउज़र आज की ऐ.के- 47 रायफल की तरह चर्चित हुआ करता था। लखनऊ से पहले काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुककर जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ी, क्रान्तिकारियों ने चेन खींचकर उसे रोक लिया और गार्ड के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। पहले तो उसे खोलने की कोशिश की गई, किन्तु जब वह नहीं खुला तो अशफाक़ उल्ला खाँ ने अपना माउजर मन्मथ नाथ गुप्त को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गए।
मन्मथ ने गलती से माउजर का ट्रिगर दबा दिया, जिससे छूटी गोली एक आम यात्री को लग गई और उसकी वहीं मौत हो गई। इससे मची अफरा-तफरी में, चाँदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमड़े के थैले चादरों में बाँधकर वहाँ से भागने के दौरान एक चादर वहीं छूट गई। अगले दिन यह ख़बर सब जगह फैल गई।
ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन डकैती को बहुत गम्भीरता से लिया और सी. आई. डी इंस्पेक्टर तसद्दुक हुसैन के नेतृत्व में स्कॉटलैण्ड की सबसे तेज़ तर्रार पुलिस को इसकी जाँच का काम सौंप दिया।
पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि चादर शाहजहाँपुर के किसी व्यक्ति की है। शाहजहाँपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनारसीलाल की है। बिस्मिल के साझीदार बनारसीलाल से मिलकर पुलिस ने इस डकैती के बारे में सब उगलवा लिया।
इसके बाद, एक-एक कर सभी क्रांतिकारी पकड़े गए और उन पर मुकदमा चला। इनमें से चार क्रांतिकारियों- राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, अशफाक़ उल्ला खॉं व ठाकुर रोशन सिंह को फांसी हुई और बाकी सभी को 5 वर्ष से लेकर आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।
मन्मथ उस वक़्त नाबालिग थे, इसलिए उन्हें फांसी की सजा न देकर आजीवन कारावास (14 साल) की कड़ी सजा मिली। साल 1939 में जब वह जेल से छूटकर आए, तो उन्होंने फिर एक बार अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह शुरू किया।
हालांकि, इस बार उनका हथियार उनकी लेखनी थी। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ समाचार-पत्रों में लिखना शुरू किया, जिसके चलते उन्हें एक बार फिर कारावास की सजा सुनाई गई। साल 1939 से लेकर 1946 तक उन्हें जेल में रखा गया। उनके रिहा होने के एक साल बाद ही देश आजाद हो गया।
स्वतंत्रता के बाद भी उनका लेखन-कार्य जारी रहा। स्वतन्त्र भारत में वह योजना, बाल भारती और आजकल नामक हिन्दी पत्रिकाओं के सम्पादक भी रहे। उन्होंने हिंदी, अंग्रेजी और बंगाली में लगभग 120 किताबें लिखीं। जिनमें शामिल हैं- द लिवड़ डेंजरसली- रेमिनीसेंसेज ऑफ़ अ रेवोल्यूशनरी, भगत सिंह एंड हिज़ टाइम्स, आधी रात के अतिथि, कांग्रेस के सौ वर्ष, दिन दहाड़े, सर पर कफन बाँधकर, तोड़म फोड़म, अपने समय का सूर्य : दिनकर, शहादतनामा आदि।
साल 2000 में 26 अक्टूबर को उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। आज उनकी किताबें ही बहुत से लोगों के लिए भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उस दौर के बारे में जानने का जरिया हैं।
माँ भारती के इस सच्चे सपूत को हमारा नमन्।
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