एक बार एक राजाने
घोषणा की किजो भी धर्म श्रेष्ठ होगा, मैं
उसे स्वीकार करूंगा। अब तो उसके पास एक
सेबढ़कर एक विद्वान आने लगे, जो अपने धर्म
की श्रेष्ठता का बखान करते हुए दूसरे के धर्म
के दोष गिनाते। यह तय न हो सका कि आखिर
वह सर्वश्रेष्ठ धर्म कौन सा है, जिसे
राजा अपनाए। वह बेहद दुखी हुआ। लेकिन
खोज जारी रही। राजा अधर्म में
ही जीता रहा क्योंकि यह तय
नहीं हो पाया था कि सर्वोत्कृष्टधर्म कौन
सा है।
वर्षों बीत गए। राजा बूढ़ा होने लगा। अधर्म
का जीवन उसे पीड़ा देने लगा। अंतत: वह एक
प्रसिद्ध फकीर के पास गया। राजा ने संत
को अपनी परेशानी बताते हुए कहा - मैं
सर्वश्रेष्ठ धर्म की खोज में हूं। लेकिन आज
तक मुझे वह नहीं मिल सका है। फकीर ने
कहा - सर्वश्रेष्ठ धर्म! क्या संसार में बहुत से
धर्म होते हैं, जो श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ धर्म
की बात उठे। धर्म तो एक ही है, अहंकार
अवश्य अनेक हैं। धर्म तो वही होता है
जहां व्यक्ति निष्पक्ष होता है।
पक्षपाती मन में धर्म नहीं हो सकता।
राजा फकीर की बातों से प्रभावित होकर
बोला - तो मैं क्या करूं,आप ही बताएं।
फकीर ने कहा- आओ नदी के किनारे चलते हैं
वहीं बताऊंगा।
नदी पर पहुंच फकीर ने कहा - जो सर्वश्रेष्ठ
नाव हो उस पर बैठकर हम उस पार चलें। तुरन्त
सुन्दर नावें लाई गईं लेकिन फकीर उनमें कुछ न
कुछ कमी बताकर खराब बता देता। सुबह से
शाम हुई भूखा प्यासा राजा फकीर से
बोला - इनमें से कोई भी नाव पार
ही तैर कर पार कर लें, छोटी सी नदी तो है।
फकीर हंसने लगा और बोला - यही तो मैं
सुनना चाहता हूं। राजन! धर्म की कोई नाव
नहीं होती। धर्म तो तैरकर ही पार
करना होता है, खुद। कोई किसी दूसरे
को बिठाकर पार नहीं करा सकता।
राजा की समझ में सारी बात आगई थी।
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