आखेट : शिकार, शिकारी का
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जंगल में बाघ भला अब बचे कहाँ हैं? जंगल से लगे गाँवों में अलबत्ता मुफ़लिसी और भुखमरी अब भी बची हुई है। भूख बाघ से कुछ कम खतरनाक नहीं होती। वह जो कराए सो कम!
शहरी जीवन में जितनी सुविधाएं हैं, उतनी ही उकताहट भी। सब तरफ भीड़ है। एक अंधी दौड़ है। दिशाहीन। यहlo आजीविका के संघर्ष से शुरू होती है और आगे रहने की होड़ में कभी खत्म नहीं होती। इस भागमभाग में कभी पल भर ठहरकर सोचने पर भागने वाले को मालूम होता है, उसकी दौड़ उस चूजे की तरह है जो मेहनत तो बहुत करता है पर पहुँचता कहीं नहीं। ऐसे मौकों पर उसे गाँव-देहात, खेत-खलिहान और जंगल-बागों की खूब याद आती है। कभी अपराध-बोध के साथ, कभी नॉस्टैल्जिक होकर तो कभी 'एडवेंचर' की आतुरता के साथ। शहरी जीवन की एकरसता को तोड़ने के लिए यह जरूरी भी है!
शहर से जंगल आए सैलानियों को गाँव में उन सारी सुविधाओं को जरूरत होती है, जो शहर में मुहैया होते हैं। वे जंगल में भी जंगली होकर नहीं रह सकते! धैर्य की भी कमी होती है। उन्हें लगता है कि जंगल में प्रवेश करते ही उन्हें जंगल के जानवर चिड़ियाघर की तरह फौरन दिख जाएँ। न सिर्फ दिखें, बल्कि कुछ करतब भी करें। आखिरकार वे इतने पैसे खर्च कर यहॉं पर आए हैं! सुविधाएं मुहैया कराने की जिम्मेदारी गाँव वालों की है, क्योंकि अब यही उनका पेशा है। जंगल से लगे गाँवों में परंपरागत रोजगार अब खत्म ही गए हैं। जंगलों में जंगल वाले महकमे का कब्जा है और बाजार में सरमायेदारों का। गोबर के कंडे भी 'काऊ केक' नाम पर अब ऑनलाइन मिल जाते हैं। गाँव-देहात के लोग करें तो क्या करें? शहर से कोई सैलानी आए तो उस पर शिकारी की तरह टूट पड़ते हैं। चालाक सिर्फ शहर के लोग नहीं होते। यह गाँव वालों को भी आती है। भूख सब सिखा देती है।
शहर से आए सैलानी (आशुतोष पाठक) को जंगल में बाघ दिखाने की जिम्मेदारी गाइड मुरशेद (नरोत्तम बेन) की है। सैलानी उस खानदान से ताल्लुक रखता है, जिसके पूर्वज कहते हैं कि अपने अच्छे दिनों बहुत बहादुर हुआ करते थे और इसीलिए कभी-कभी अपनी बहादुरी का सबूत देने के लिए बाघों का शिकार कर लिया करते थे। इसलिए नए कानूनों के बन जाने के बावजूद सैलानी को लगता है कि बाघ का आखेट उसका मौलिक अधिकार है। इस अधिकार की रक्षा के लिए वह घर की दीवार पर टँगी एक बन्दूक उठा लाया है, जो पता नहीं चलती भी है या नहीं। यह बात सिर्फ उसे पता है कि उसे शिकार नहीं करना है। वह एक फंतासी रच रहा है। यह फ़क़त एक थ्रिल है, एडवेंचर है। हकीकतन, बाघ के नाम से ही उसे पसीने छूटने लगते हैं।
बाघ भी सिर्फ नाम का है। बस नाम ही बचा है। बचे हुए बाघों की संख्या बहुत कम है। जिस जंगल मे सैलानी को घुमाया जा रहा है, वहाँ सालों पहले बाघों के सफाया हो चुका है। लेकिन सैलानी आते रहें, इसलिए जरूरी है कि बाघों का भरम बनाए रखा जाए। बाघों को लेकर झूठी कहानियाँ गाँव की फ़िज़ाओं में तैरती रहती हैं। इन कहानियों को रस लेकर सुनाया जाता है। पर्याप्त दहशत भरी और कांपती हुई आवाज में। कहानियाँ चलती रहेंगी तो सैलानी भी आते रहेंगे।
बाघ की कहानियाँ झूठी हैं। बाघ के शिकार के लिए लगाया गया मचान सिर्फ एक प्रहसन है। जिस बाघ का आखेट किया जाना है वह है ही नहीं। जिस बन्दूक से बाघ का आखेट किया जाना है, वह पता नहीं चलती भी है या नहीं। सब झूठ है। सच सिर्फ इतना है कि जो इलाके बाघ की दहाड़ से गूँजा करते थे वहाँ बाघ नहीं बचे। उन इलाकों में गरीबी, भूखमरी, अभाव, संघर्ष और जीने की जद्दोजहद बची हुई है। इस जद्दोजहद में पता नहीं चलता कि कौन शिकार हो रहा है और कौन शिकार कर रहा है। एक रसभरा गीत कानों में गूँजता है, "सैंया शिकारी शिकार हो गए।"
निर्देशक रवि बुले पिछले दिनों में लगातार अच्छी कहानियों पर काम कर रहे हैं। इस बार उन्होंने कुणाल सिंह की इस मर्मस्पर्शी कहानी को चुना। नरोत्तम बेन और आशुतोष पाठक अपने किरदारों में सहज-स्वाभाविक लगते हैं।
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