बुधवार, 31 अगस्त 2011

प्रेस क्लब / अनामी शरण बबल-6






बस जल्द ही बढ़ने  वाला है रेल किराया

जनता जर्नादन होशियार,  बा मुलाहिजा सावधान । लालू ममता की दया धार अब बंद होने वाली है। सात साल के बाद एक बार फिर रेल किराया में बढ़ने का दौर चालू होने जा रहा है। बिहार को रसातल में ले जाने के लिए कुख्यात बदनाम लालू राबड़ी राज का कलंक अभी तक बरकरार है, इसके बावजूद एक रेल मंत्री के रूप में लालू ने कमाल किया और लगातार पांच साल तक रेल किराये को बढ़ने नहीं दिया। आय के अन्य संसाधनों को बढ़ाकर रेलवे को घाटे में नहीं आने दिया। लालू के बाद ममता बनर्जी ने भी लालू के पदचिन्हों पर चली, और किराये को नहीं बढ़ाया। मगर ममता पार्टी के प्रेशर से रेल मंत्री बने दिनेश त्रिवेदी ने दया करूणा प्रेम ममता और संवेदना को दरकिनार करते हुए रेल भाड़ा बढ़ाने का गेम चालू कर दिया है। संसाधनों को तलाश कर आय में चौतरफा बढ़ोतरी के उपायों में जुट गए है। रेल घाटे से बेहाल है, क्योंकि ममता दीदी ने रेल की बजाय वेस्ट बंगाल पर तो ध्यान दिया, मगर रेल को लेकर अपने कर्तव्य भूल गई। देश यूपीए और सरदार जी की गद्दी पर कोई खास संकट (अन्नामय की तरह) नहीं आया तो साल 2011 के अंत तक देश की जीवनरेखा माने जाने वाली रेल में सफर करना पहले से कुछ महंगा जरूर हो जाएगा।



युवराज की छवि संवारने और दिखाने की मुहिम

अन्ना अनशन में देश एकजुट हो गया, मगर हमेशा की तरह दिल्ली में मौनी बाबा बने रहने वाले अपने युवराज यानी राहुल बाबा इस बार भी खामोशी के साथ हंगामा देखते रहे। देखते रहे अपनी पार्टी और पीएम की फजीहत। एक तरफ सरकार की पैंट गिल्ली होती रही तो दूसरी तरफ अन्ना की आंधी से पूरी सरकार का दम उखड़ती रही। हालात को हाथ से बाहर होते देख पर्दे के पीछे से कमान थामे राहुल बाबा को संसद में पूरा पक्ष रखना पड़ा। अन्ना के सामने सरकार को मत्था टेकना पड़ा। हालांकि ये सब हुआ तो राहुल बाबा के निर्देश पर ही। मगर जब पूरा देश अन्नामय होकर उल्लास मना रहा है तो सरकार को अगले साल होने वाले कई चुनावों की चिंता सताने लगी। लिहाजा लोकपाल बिल पर सरकार कोशिश करसरही है कि कुछ चक्कर इस तरह का चलाए कि लोकपाल मामले में अन्ना की जगह राहुल बाबा को भी पूरा श्रेय मिले, ताकि पार्टी सीना चौड़ा करके अन्ना का काउंटर कर सके।


भाई ने भाई को मारा( पछाड़ा)


कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी किसी भी पार्टी के नेता से मात खा जाए या पस्त हो जाए तो चलता है। मगर खासतौर पर अपने चचेरे भाई वरूण गांधी से पस्त हो जाए यह खुद राहुल प्रियंका सोनिया समेत पार्टी को कतई बर्दाश्त नहीं होता। कई मामलों में वरूण से मात गए राहुल बाबा  की अपने भाई के सामने बोलती ही बंद हो गई। खासकर कई साल तक इंतजार के बाद भी शादी नहीं करने पर इसी साल छोटे भाई ने बनारस में शादी करके बड़ी मम्मी के दुखते रग पर हाथ रख दिया। पूरे देश में इस शादी से ज्यादा चर्चा सोनिया राहुल प्रियंका के इसमें शरीक नहीं होने से हुआ। अब ताजा मामला अन्ना आंदोलन का है कि युवा भीड़ अंत तक अपने युवा नेता राहुल बाबा को तलाशती ही रही, मगर वे नहीं आए, मगर वरूण की सक्रिय मौजूदगी ने एक बार फिर अपने बड़े भाई को पछाड़ ही दिया।.


बहनजी की सक्रियता आई काम

पंजा पार्टी में मैडम अम्मा हैं तो प्रियंका वाड्रा गांधी पूरे पार्टी के लिए बहनजी है। हालांकि वे राहुल गांधी की सगी बहन है, पर पूरे पार्टी ने इन्हें अपनाया और माना। इस समय पार्टी सुप्रीमों और इनका मम्मी जब देश से बाहर है तो पार्टी का सारा काम पर्दे के पीछे बहनजी के हाथ में है। देश की जनता के मूड को भांपना और अन्ना की ताकत के सामने सरकार के घुटने टेकने की कवायद और चालाकी सब भाई-बहनों के निर्देश पर हुए। हालांकि पार्टी सुप्रीमों द्वारा गठित कोर कमेटी को साथ लेकर तमाम फैसले हुए मगर कुल मिलाकर पार्टी और टीम पीएम के कोरे ज्ञान ने दिखा और बता दिया कि अपन सरदार जी विवेक पूर्वक और अपने मन से काम करने में एकदम कोरे कागज है। पीएम के नासमझी पर बहनजी ने कई बार रोष भी जताया। अब देखना है कि देश में खराब हुई पार्टी और सरकार की छवि को युवराज के सहारे ठीक करने की मुहिम में क्या अपने सरदार जी भी कदमताल कर पाएंगे ?  

पार्टी का आत्ममंथन

अन्ना हजारे का अनशन भले ही खत्म हो गया हो, मगर पंजा पार्टी में आत्ममंथन का दौर चालू हो गया है। अन्ना हजारे को हल्केपन से आंकने की भूल से लेकर अनशन के दौरान गलत बयानी और नेताओं के उग्र तेवर से होने वाले नुकसाल की समीक्षा की जा रही है। कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी,से लेकर प्रणव मुखर्जी,लुबोधकांत सहाय दिग्गी राजा से लेकर तमाम नेताओं के बयानों पर यही वोग समीक्षा करने में लगे है। खासकर प्रियंका और राहुल नेताओं द्वारा अन्ना की फौज को कमतर आंकने की भूल को माफ करने के मूड में नहीं है। अगले साल होने वाले यबपी समेत कई राज्यों के चुनाव और समाज में पार्टी की इमेज को लेकर एक गुप्त रिपोर्ट मंगवा रही है। इस बाबत एक सर्वे भी कराने पर जोर दिया जा रहा है। खासकर यूपी में अन्ना के बाद की हालात को जानने के लिए बाबा उतावले है कि सालों की मेहनत का कोई असर अभी बाकी है या अन्ना की आंधी में सब धुल(उखड़) गया। (खबर लिखने के बाद पता चला कि बेकाबू होकर बोलने में उस्ताद अपने मनीष तिवारी पर कैंची चल गई है)


अन्ना के सामने सब ढेर


महाराष्ट्र में जनसंघर्ष करने वाले अन्ना हजारे की मार्च 2011 तक नेशनल इमेज होने के बाद भी लोकप्रिय नहीं थे। खासकर धाक और प्रभाव के मामले में भी अन्ना को कोई खास महत्व नहीं दिया जाता था। मगर, एक गांधीवादी अहिंसक आंदोलनकारी की साफ सुथरी छवि होने के कारण ही दिल्ली के नेताओं को अन्ना की जरूरत पड़ी। अप्रैल में अपने मजबूत इरादे और आत्मबल से सरकार को मजबूर करने वाले अन्ना रातोरात इतने लोकप्रिय हो गए कि लोग इन्हें आज तो गांधी जैसा मानने लगे है। देश विदेश की मीडिया में सराहे जा रहे अन्ना के सामने सारे धूमिल से हो गए है। चाहे खिलाड़ी हो या अभिनेता कोई भी इनके सामने टीक नहीं पा रहा । अन्ना के पीछे पूरा देश देखकर तो सारे हैरान है कि इस 74 साल के नौजवान ने इतनी बड़ी लकीर खिंच दी है कि इसके सामने तो अभी कोई नहीं ठहरता।
           
ये तो होना ही था

अन्ना हजारे की दादागिरी नुमा गांधीगिरी जिसे अब अन्नागिरी के नाम से पुरा देश जानता, मानता और अपनाया है। अन्ना की छवि देश के दूसरे गांधी के रूप में उभरी। लोकप्रियता के चरम पर स्थापित अन्ना की इस लोकप्रियता से बौखलाए टीम अन्ना के (खुद को अन्ना से ज्यादा महान मानने वाले) सदस्यों में स्वामी अग्निवेश और रामदेव बाबा का हश्र सारा देश देख रहा है।  बंधुआ मुक्ति मोर्चा और अंग्रेजी विरोध समेत पांच तारा होटलों के बाहर प्रदर्शन करने वाले को तरजीह देने की बजाय अन्नागान सो तो बौखलाना ही था। इस भीड़ में कोई घास भी ना डाले इससे बेहतर है कि कपिल (?) मुनि की गोद में बैठकर मलाई ही चाटे। यही हाव योगगुरू रामदेव का हुआ। अन्ना के अप्रैल वाले अन्नागिरी से परेशान बाबा कालाधन के खिलाफ जोरदार हंगामे के साथ अन्ना को डाउन दिखाना चाहते थे। पर रामलीला मैदान में राम(देव) लीला क्या हुआ  यह सारा देश जानता है। अपने लालच और स्वार्थ वश अन्ना के साथ आने वालों का राज खुल गया। वाचाल रामदेव की बोलती ही बंद हो गई है। देखना है कि सरकारी मेहमान बनने की लालसा वाले अग्निवेश का क्या होता है। चाहे जो हो , मगर बंधुआ मुक्ति मोर्चा के पुरोधा अब खुद सरकारी बंधुआ होते जा रहे है।

मनमोहन पर मनमोहनी कविता

अन्ना आंदोलन के दौरान युवाओं ने कविता पैरोडी और हास्य व्यंग्य से जमकर उल्लास मनाया। अपने सरदारजी यानी पीएम मनमोहन सिंह सबों के सबसे पंसदीदा थे। मुन्नी बदनाम होने के बाद मुन्ना बदनाम हुआ की तर्ज पर लोगों ने अपने मुन्ना यानी मनमोहन जी पर कुछ इस तरह वार किया।

मुन्ना बदनाम हुआ मैडमजी आईसी(कांग्रेस आई) के लिए।
अपनी इज्जत का फलूदा बनाया मैडमजी आईसी के लिए।।

 राजा ने जमकर टूजी मे इजी करप्शन किया
 सुरेश शीला पर आपने एक्शन नहीं लेने दिया
 सालों की इमेज का काम तमाम किया मैडमजी आईसी के लिए।।

मनमोहन पर एक और गाने का मजा ले

अली बाबा 40 चोर की बात हुई पुरानी।
नए जमाने में है अब तो नयी कहानी .।।
मॅाल मोबाइल मेट्रो की मौज है
और सबसे ईमानदार पीएम की टोली में 40 चोरों की फौज है।।  



और जो अन्नागिरी से बच गए (लात जूता खाने से)

अन्ना हजारे भले ही सरकार के लिए सिरदर्द बन गए हो, मगर कुछेक लोगों के लिए तो अन्ना तारणहार बन गए। उनके मन में यह सोचकर ही दिल बैठ जाएगा कि यदि अन्ना महाराज का अनशन नहीं चल रहा होता तो इंगलैंड में गोरों के हाथों बुरी तरह शर्मनाक मात खाने के बाद अपन हिन्दुस्तान के पागल क्रिकेट प्रेमी इन क्तिकेटरों की क्या गत करते। अगर आपको कुछ याद नहीं है तो 2007 में विश्वकप के पहले ही दौर में बाहर होने के बाद तो सारे क्रिकेटरों को अपने फैन से चोर की तरह छिपछिपा कर घर पहुंचना  पड़ा था। किसी के घर के बाहर होलिका दहन की गई को किसी के घर को ही फूंकने की कोशिश की गई। मगर धोनी के धुरंधरों का ये सौभाग्य ही रहा कि हारे भी इस कदर कि खुद ही शर्मसार हो गए मगर अन्ना की आंधी में ज्यादातर भारतीय युवाओं ने क्रिकेट में देश की भारी पराजय को कोई भाव ही नहीं दिया।

कामनवेल्थ के चोरों मिला जीवनदान

पानी अब इतना महंगा औक दुर्लभ होता जा रहा है कि पानी की तरह पैसा बर्बाद करने का मुहाबरा भी गलत दिखने लगा है। सरकारी पैसे को अनाप शनाप खर्चे करने वालों में दिल्ली की सीएम शीला दीक्षित भी अन्ना अनशन से बच गई। एक तरफ अन्ना और दूसरी तरफ सोनिया का इलाज कराने अमरीका जाना भी शीला को लाईफ मिलने का कारण बन गया। अपन पीएम साहब तो दबंग है नहीं कि मैडम के बगैर कुछ कर सके। यानी अन्ना को सरकार चाहे जितना कोस ले मगर वाकई अन्ना कितनों के लिए धन्ना बन गए। जय हो जय हो अन्ना हजारे जी जय हो।



नवाकुंरों के जज्बे को सलाम

करीब पांच माह (एक्जाम और एडमिशन) के अंतराल के बाद वर्ष 2011-12 में मीडिया छात्रों को पढ़ाने का खाता दयालबाग एजूकेशनल इंस्टीट्यूट (डीइआई) से शुरू हुआ। दिल्ली की अपेक्षा छोटे और मीडिया के लिहाज से बेहद कम साधनों वाले शहर में रहकर  मीडिया में कैरियर बनाने की तैयारी करना हमेशा कठिन होता है। पत्रकारिता के बारे में सैद्धांतिक तौर से ज्यादा नहीं जानने के बाद भी इनके उत्साह और कुछ कर गुजरने की लालसा देखकर मन संतुष्ट हुआ। चाहे अतुल से लेकर पवन बघेल, पूजा मनवानी, मोनिका ककरवानी, श्वेता सारस्वत, रेणु सिंह, अंशिका चतुर्वेदी हो या नेहा सिंह। यानी कुल आठ छात्रों के मिजाज को देखना उत्साहवर्द्धक लगा। वहीं मीडिया के प्रति लड़कियों की जीवटता उत्साह (भले ही लगन कहना अभी जल्दबाजी होगी) को देखना और भी ज्यादा अनोखा और सुखद लगा कि इस बार आठ छात्रों में छह लड़कियां है। इनके जज्बे को सलाम करता हूं। साथ ही इनके हेड ज्योति कुमार वर्मा जी और इनके तमाम साथियों से  अपेक्षा करूंगा कि वे इन्हें इस तरह तराशें ताकि उत्साह ज्ञान और अनुभव से ये भावी पत्रकार खुद को निखार सके। सबों के उज्जवल और बेहतर भविष्य की कामना के साथ मीडिया या पत्रकारिता में स्वागत है।

रविवार, 28 अगस्त 2011

अन्ना क्रांति द्वार पर आई है



उठो जवानो तुम्‍हें जगाने क्रांति द्वार पर आई है

एक कहावत है, प्याज़ भी खाया और जूते भी खाए. ज़्यादातर लोग इस कहावत को जानते तो हैं, लेकिन बहुत कम लोगों को ही पता है कि इसके पीछे की कहानी क्या है. एक बार किसी अपराधी को बादशाह के सामने पेश किया गया. बादशाह ने सज़ा सुनाई कि ग़लती करने वाला या तो सौ प्याज़ खाए या सौ जूते. सज़ा चुनने का अवसर उसने ग़लती करने वाले को दिया. ग़लती करने वाले शख्स ने सोचा कि प्याज़ खाना ज़्यादा आसान है, इसलिए उसने सौ प्याज़ खाने की सज़ा चुनी. उसने जैसे ही दस प्याज़ खाए, वैसे ही उसे लगा कि जूते खाना आसान है तो उसने कहा कि उसे जूते मारे जाएं. दस जूते खाते ही उसे लगा कि प्याज़ खाना आसान है, उसने फिर प्याज़ खाने की सजा चुनी. दस प्याज़ खाने के बाद उसने फिर कहा कि उसे जूते मारे जाएं. फैसला न कर पाने की वजह से उसने सौ प्याज़ भी खाए और सौ जूते भी. यहीं से इस कहावत का प्रचलन प्रारंभ हुआ. आज कांग्रेस पार्टी के लिए यह कहा जा सकता है कि अन्ना के मामले में उसने सौ जूते भी खाए और सौ प्याज़ भी.
अन्ना हज़ारे का आंदोलन आज़ाद भारत का सबसे बड़ा आंदोलन बन गया है. अन्ना को देश के कोने-कोने से जनता का समर्थन मिल रहा है. आज सरकार के साथ-साथ देश के सभी राजनीतिक दलों के सामने यह आंदोलन सबसे बड़ी चुनौती है. समस्या यह है कि हर राजनीतिक दल अन्ना के आंदोलन को समझने में भूल कर रहा है. यह आंदोलन स़िर्फ जन लोकपाल का आंदोलन नहीं है. यह आंदोलन पिछले 20 सालों से चल रही नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के खिला़फ है. यह 20 सालों की सरकारी योजनाओं और नीतियों के खिला़फ जनता का फैसला है. सरकार विकास के आंकड़े दिखाकर भ्रम फैलाने को सुशासन कहना पसंद करती है. हक़ीक़त यह है कि शहर रहने के लायक नहीं रहे. कुछ मेट्रो शहरों को छोड़कर देश में कहीं पर 24 घंटे बिजली नहीं है. दिल्ली जैसे शहर में सा़फ पानी नहीं है. छोटे शहरों में ढंग की चिकित्सा सुविधाएं नहीं हैं. नौजवानों का भविष्य अंधकारमय है. आम आदमी का जीवन नारकीय हो गया है. किसी भी अस्पताल में जाइए, वहां डॉक्टर गिद्धों की तरह मरीज़ों से पैसे लूटते मिल जाएंगे. सरकारी दफ्तरों में बिना रिश्वत के कोई काम नहीं होता है. सरकार ने पूरे देश को एक ऐसे भंवर में डाल दिया है, जहां जीवित रहना ही एक अभिशाप बन गया है. लोग पूरी व्यवस्था से तंग आ चुके हैं. लोगों में नाराज़गी है कि सरकार उनकी परेशानी और दु:ख-दर्द को खत्म करना तो दूर, उसे समझने का भी प्रयास नहीं कर रही है. यही अन्ना के आंदोलन के समर्थन का आधार है. इस आंदोलन में शहरी मध्य वर्ग बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहा है. इसलिए कुछ लोगों को लगता है कि अन्ना का आंदोलन इंटरनेट के  ज़रिए फैला हुआ आंदोलन है. देश चलाने वालों, सभी राजनीतिक दलों और उद्योगपतियों को सचेत हो जाना चाहिए, क्योंकि अगर इस आंदोलन में ग्रामीण और आदिवासी शामिल हो गए तो यह मान लीजिए कि इस देश का प्रजातंत्र खतरे में आ जाएगा. जो लोग यह समझ रहे हैं कि यह आंदोलन स़िर्फ जन लोकपाल के लिए है तो यह उनकी एक बड़ी भूल होगी. जन लोकपाल इस जनांदोलन का स़िर्फ तात्कालिक कारण है. और वह भी इसलिए, क्योंकि कांग्रेस पार्टी के नेताओं और मंत्रियों ने लोकपाल के मामले में राजनीतिक फैसले न करके प्रशासनिक फैसले लेने का जुर्म किया है.
जे पी आंदोलन के दौरान चंद्रशेखर ने इंदिरा गांधी से कहा था कि जे पी के खिला़फ तीखे बयान देने से पार्टी को बचना चाहिए. फक़ीर और राजा के बीच जब भी जंग होती है तो जीत हमेशा फक़ीर की होती है. इसलिए फक़ीरों और संतों से नज़रें झुका कर बात करनी चाहिए. यह सुनकर इंदिरा गांधी तिलमिला उठी थीं. आज देश में वैसा ही माहौल है. दु:ख इस बात का है कि कांग्रेस पार्टी में आज कोई चंद्रशेखर नहीं है.
कांग्रेस पार्टी की सबसे बड़ी ग़लती यह है कि लोकपाल क़ानून बनाने के मामले में उसने टीम अन्ना के साथ धोखा किया, देश की जनता के सामने झूठ बोला. जब जंतर-मंतर पर अन्ना का आंदोलन हुआ और एक संयुक्त समिति बनाई गई तो सरकार ने यह वायदा किया कि दोनों पक्ष मिलकर लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करेंगे. दोनों पक्षों के बीच कई बार बातचीत हुई, लेकिन जब सरकार ने लोकपाल बिल तैयार किया तो उसने टीम अन्ना के सुझावों को दरकिनार कर दिया. इसका हल निकल सकता था, अगर प्रधानमंत्री ने इसमें मध्यस्थता की होती. सिविल सोसायटी के सुझावों को लोकपाल में शामिल करके संसद में उन पर अलग वोटिंग कराई जा सकती थी. अगर ऐसा होता तो अन्ना भूख हड़ताल पर नहीं जाते, लेकिन सरकार ने कड़ा रु़ख अपनाया. सरकार की तऱफ से अन्ना की टीम को सा़फ-सा़फ यह कह दिया गया कि आपको जो भी सुझाव देना है, स्टैंडिंग कमेटी के सामने दे सकते हैं. सत्ता का नशा कहिए या फिर क़ानून के ज्ञाता होने का अहंकार, कपिल सिब्बल ने जब भी अपनी ज़ुबान खोली, वह एक तानाशाह नज़र आए. डॉ. मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी, कपिल सिब्बल, चिदंबरम और मनीष तिवारी बोलते चले गए, अन्ना हजारे को जनता का समर्थन बढ़ता चला गया. सर्वोच्च कोटि का वकील होने और जनता का प्रतिनिधि होने में एक अंतर होता है. प्रजातंत्र में राजनीतिक सवालों का जवाब संविधान और सीआरपीसी की धाराओं से नहीं दिया जाता है. इससे टीवी चैनलों पर होने वाली बहस को तो जीता जा सकता है, लेकिन यह जनता के दिलों पर राज करने का रास्ता बिल्कुल नहीं बन सकता. मौजूदा सरकार में वकील से मंत्री बने लोगों को यही बात समझ में नहीं आई. कांग्रेस के प्रवक्ता और मंत्री बहस करते गए और लोगों की नाराज़गी बढ़ती चली गई.
टीम अन्ना के पास अनशन करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा. वैसे भी अन्ना पहले ही यह कह चुके थे कि अगर सरकार ने जन लोकपाल बिल को संसद में पेश नहीं किया तो वह अनशन करेंगे. यहां सरकार से एक और चूक हुई. सरकार ने लोकपाल का सारा श्रेय खुद लेने के चक्कर में विपक्ष को इस मामले से दूर ही रखा. यही वजह है कि इस मुद्दे पर कोई एक मत नहीं बन सका. जब अन्ना ने अनशन का ऐलान किया, तब लोकपाल के मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी की बैठक हुई. कई बड़े नेता इसमें शामिल थे. इस बैठक में रक्षा मंत्री ए के एंटोनी, सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी और ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने जनता की भावनाओं को महत्व देने की बात कही थी, लेकिन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी, गृह मंत्री चिदंबरम ने इसे नकार दिया. कपिल सिब्बल ने क़ानूनी पक्ष रखा था. इस बैठक में शामिल हुए कांग्रेस पार्टी के नेता जनता के मूड को नहीं समझ सके. सरकार ने अन्ना का विरोध करने का फैसला ले लिया. किसी भी नज़रिए से इसे राजनीतिक फैसला नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि जनमत अन्ना के साथ था. कांग्रेस ने खुद अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली.
इस आंदोलन में जो लोग शामिल हो रहे हैं, वे धन्य हैं. जो लोग अब तक शामिल नहीं हुए हैं, उनके पास मौक़ा है. अन्ना का आंदोलन लोकपाल तक ही सीमित नहीं रहने वाला है. आने वाले दिनों में न्यायिक व्यवस्था में सुधार के लिए आंदोलन होगा, चुनाव सुधार के लिए आंदोलन होगा. घर में बैठने का व़क्त खत्म हो गया है. हमें व्यवस्था परिवर्तन के लिए सड़कों पर उतरना होगा.
कांग्रेस पार्टी के एक प्रवक्ता हैं मनीष तिवारी. पहले उनके इस बयान को देखिए. कांग्रेस की एक स्पेशल प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने कहा, हम किशन बाबूराव उ़र्फ अन्ना हज़ारे से पूछना चाहते हैं कि तुम किस मुंह से भ्रष्टाचार के खिला़फ अनशन की बात करते हो. ऊपर से नीचे तक तुम भ्रष्टाचार में खुद लिप्त हो. इसके अलावा मनीष तिवारी ने अन्ना को एक दिमाग़ी तौर पर बीमार प्राणी बताया. मनीष तिवारी के इसी बयान ने उन्हें विलेन बना दिया. देश की जनता के साथ-साथ कांग्रेस पार्टी के कई सांसद मनीष तिवारी से नाराज़ हैं. मनीष तिवारी जनता की नज़रों से तो गिरे ही, अब पार्टी भी उनका साथ नहीं दे रही है. उन्हें मीडिया से दूर रहने की हिदायत दी गई है. वह उदास हैं, क्योंकि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने उनका साथ छोड़ दिया. जबकि हक़ीक़त यह है कि अन्ना हज़ारे पर हमला करने का फैसला मनीष तिवारी ने नहीं, बल्कि पार्टी के नेताओं ने लिया था. अन्ना ने जब जय प्रकाश पार्क में धारा 144 लागू होने के बावजूद अनशन करने का अपना फैसला सुनाया तो पत्रकारों ने कांग्रेस के प्रवक्ताओं से इस पर प्रतिक्रिया मांगी. पार्टी की ओर से जवाब यह मिला कि सारे सवालों का जवाब रविवार को स्पेशल प्रेस कांफ्रेंस में दिया जाएगा. आम तौर पर कांग्रेस पार्टी रविवार को प्रेस कांफ्रेंस नहीं करती है. मनीष तिवारी ने अन्ना को एक ही सांस में फासीवादी, माओवादी और अराजकतावादी क़रार दिया. मनीष तिवारी ने जिस लहज़े में अन्ना पर हमला बोला, जैसी उनकी बॉडी लैंग्वेज थी, उससे कांग्रेस पार्टी की छवि सत्ता के नशे में चूर एक अहंकारी पार्टी की बन गई. 14 अगस्त यानी रविवार की स्पेशल प्रेस कांफ्रेंस कांग्रेस पार्टी के गले की फांस बन गई.
इस ग़लती के बावजूद कांग्रेस संभल सकती थी, लेकिन वह अपने ग़लत फैसले को सही साबित करने के चक्कर में एक के बाद एक ग़लतियां करती चली गई. पहले अन्ना पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया गया. कांग्रेस को लगा कि जिस तरह उसने बाबा रामदेव पर आरोप लगाकर उनके आंदोलन की हवा निकाल दी थी, वही हाल अन्ना का होगा, लेकिन यह रणनीति नाकाम हो गई. कांग्रेस पार्टी यह नहीं समझ सकी कि अन्ना बाबा रामदेव नहीं हैं. बाबा रामदेव की तरह उनके पास हज़ारों करोड़ का साम्राज्य नहीं है. अन्ना सचमुच में फकीर हैं, एक संत हैं. इस प्रेस कांफ्रेंस के बाद कांग्रेस को संभलने का दूसरा मौक़ा 15 अगस्त को मिला, जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने लाल किले से देश को संबोधित किया. पूरे देश की नज़रें मनमोहन सिंह पर टिकी हुई थीं कि वह अपने भाषण में अन्ना के बारे में क्या कहने वाले हैं. भ्रष्टाचार और महंगाई पर प्रधानमंत्री से जो उम्मीद थी, वह उससे ठीक उलटा बोले. सरकार ने संभलने के बजाय एक और ग़लती कर दी. मनमोहन सिंह ने लाल किले से अन्ना पर हमला कर दिया. उन्होंने कहा कि उनके पास जादू की छड़ी नहीं है कि वह एक झटके में भ्रष्टाचार और महंगाई को खत्म कर देंगे. ऐसे बयान देकर सरकार जनता में ग़लत संदेश देती है. प्रधानमंत्री के पास अगर जादू की छड़ी नहीं है तो क्या आंखें भी नहीं हैं? उनकी कैबिनेट का एक साथी एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ रुपये का घोटाला कर देता है और उन्हें मालूम नहीं पड़ता है. जबकि अब पता चल रहा है कि इस घोटाले के दौरान ए राजा की तऱफ से हर फैसले के बारे में प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिखकर बताया जा रहा था. क्या प्रधानमंत्री यह दलील दे सकते हैं कि उन्हें मालूम नहीं है. अगर प्रधानमंत्री को यह मालूम न हो कि किस मंत्रालय में क्या चल रहा है तो इसका मतलब यह हुआ कि दिल्ली में सरकारी तंत्र नष्ट हो चुका है. क्या हर मंत्रालय के संयुक्त सचिव का प्रधानमंत्री कार्यालय से रिश्ता खत्म हो गया है? मनमोहन सिंह को देश की जनता को यह बताना चाहिए कि आ़खिर प्रधानमंत्री कार्यालय का काम क्या है. यही वजह है कि देश की जनता ने मनमोहन सिंह के भाषण को नकार दिया. लोगों की नाराज़गी बढ़ गई. अन्ना ने जनता के मूड को समझा और उन्होंने पहला मास्टर स्ट्रोक 15 अगस्त की शाम को खेला, जब वह अचानक राजघाट पहुंच गए. पूरा देश अन्ना को देख रहा था. छुट्टी का दिन था, लोग टीवी के सामने बैठे रहे. थोड़ी ही देर में वहां भीड़ जुटने लगी. अन्ना को कुछ कहने की भी ज़रूरत नहीं पड़ी. बस उठने से पहले उनकी आंखों से कुछ आंसू गिरे और पूरे देश में अन्ना की लहर दौड़ गई.
15 अगस्त की रात शांतिपूर्वक बीत गई. 16 अगस्त की सुबह अन्ना हजारे को राजधानी दिल्ली के मयूर विहार में हिरासत में ले लिया गया. यहां धारा 144 नहीं लगी थी. पुलिस ने अन्ना और उनके साथियों से यह कहा कि आपको वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के पास जाना है. जब वे वहां पहुंचे तो उनसे मोबाइल फोन और बाकी सामान निकाल कर बाहर रखने को कहा गया और फिर उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश कर दिया गया. पुलिस ने गिरफ्तारी की वजह यह बताई कि अन्ना और उनके साथियों से दिल्ली में क़ानून व्यवस्था बिगड़ने का खतरा है. सरकार ने अन्ना की गिरफ्तारी को दिल्ली पुलिस की कार्रवाई बताकर अपनी गर्दन बचाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन सरकार की इस दलील पर किसी ने विश्वास नहीं किया. लोगों को लगा कि अन्ना के साथ अन्याय हुआ है. देश भर में लोग सड़कों पर आने लगे. कई कंपनियों ने अपने दफ्तर बंद कर दिए. एक के बाद एक कई संगठन इस आंदोलन से जुड़ते चले गए. बड़ी संख्या में बच्चे-बूढ़े, छात्र-नौजवान और महिलाएं राजधानी दिल्ली की सड़कों पर निकल पड़े.
यहां अन्ना ने फिर एक मास्टर स्ट्रोक खेला. उन्होंने प्रशासनिक कार्रवाई का जवाब एक राजनीतिक चाल से दिया और जेल के अंदर ही अनशन शुरू कर दिया. एक तऱफ संसद में सरकार को विपक्ष की मार पड़ रही थी, दूसरी तरफ देश की जनता सड़क पर खड़ी थी. संसद में विपक्ष प्रधानमंत्री का बयान चाह रहा था, लेकिन सरकार ने उसकी मांग को ठुकरा दिया. चारों तऱफ से घिरने के बावजूद सरकार का रवैया नरम नहीं हुआ. संसद नहीं चली, लेकिन अगले दिन तक सरकार पर इतना दबाव पड़ गया कि कांग्रेस के कोर ग्रुप ने यह फैसला लिया कि प्रधानमंत्री बयान देंगे, लेकिन प्रधानमंत्री से एक भयंकर भूल हो गई. संसद में उन्होंने यह कह दिया कि अन्ना ने जो रास्ता चुना है, वह लोकतंत्र के  लिए नुक़सानदेह है. प्रधानमंत्री के बयान ने आग में घी का काम किया. जनता का सरकार से विश्वास ही उठ गया. आंदोलन और तेज़ हो गया. कांग्रेस के नेता अलग-अलग जगहों पर ग़ैर ज़िम्मेदाराना बयान देते नज़र आए. राशिद अलवी ने यह कहकर चौंका दिया कि अन्ना के आंदोलन के पीछे विदेशी ताक़तों का हाथ है. पूरी घटना देखने के बाद ऐसा लगता है कि कांग्रेस पार्टी में कोई राजनीतिक फैसले लेने वाला है भी या नहीं.
जन समर्थन देखकर केंद्र सरकार सहम गई. आंदोलन के तेवर को देखते हुए अन्ना की रिहाई का आदेश दे दिया गया. इसके बाद अन्ना ने सबसे बड़ा फैसला तब लिया, जब उन्होंने कहा कि वह अपनी शर्तों पर जेल से बाहर जाएंगे. वह जेल के अंदर अनशन करते रहे. जेल के बाहर जनता उनके समर्थन में सड़कों पर उतरती रही. अन्ना का आंदोलन जंगल की आग की तरह देश के हर छोटे-बड़े शहरों में फैल गया. अन्ना लोकपाल बिल के संसद में पास होने के लिए आंदोलन कर रहे हैं. सरकार और टीम अन्ना के बीच बातचीत होती रही. पहले दिल्ली पुलिस ने उन्हें अनशन के लिए तीन दिनों का व़क्त दिया था, बाद में पुलिस ने अन्ना को अनशन के लिए रामलीला मैदान और 15 दिनों का व़क्त दे दिया. अन्ना जब जेल से बाहर निकले तो जनसैलाब उमड़ पड़ा. पांच-पांच किलोमीटर तक पैर रखने की जगह नहीं थी. अन्ना की एक झलक पाने के लिए लोग बारिश में भीग कर इंतजार करते रहे. रामलीला मैदान पहुंचते ही उन्होंने ऐलान कर दिया कि जब तक सरकार जन लोकपाल बिल को संसद में पास नहीं कराती है, तब तक यह आंदोलन चलता रहेगा, अनशन जारी रहेगा.
1950 में ब्रिटेन के डब्ल्यू एच मोरिस-जोंस ने आधुनिकता, पारंपरिकता और संतों या सेंटली इडियम को भारतीय राजनीति के तीन महत्वपूर्ण आधार बताए थे. भारत के संविधान, संसद एवं न्यायालय को आधुनिक और राजनीति में जाति एवं संप्रदाय को पारंपरिकता से जोड़ा था, लेकिन मोरिस-जोंस ने संतों की भूमिका को अनोखा बताया. उन्होंने भारत में त्याग करने वाले संतों की विशेष भूमिका बताई थी. इस श्रेणी में महात्मा गांधी, विनोबा भावे, राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण को गिना जा सकता है, जिनका जीवन त्याग और संघर्ष की कहानी है. ये नेता लोगों के दिलों में इसलिए बसे, क्योंकि लोगों को लगता था कि ये तो संत हैं. अन्ना हजारे की सादगी और उदारता लोगों के दिलों में बस गई. लोगों को अन्ना में गांधी दिखते हैं, विनोबा दिखते हैं, जेपी दिखाई देते हैं. कांग्रेस पार्टी के नेताओं और सरकार के मंत्रियों को अन्ना में एक भ्रष्टाचारी, फासीवादी, माओवादी और अराजकतावादी नज़र आया.
राजनेताओं और देश की जनता के नज़रिए में अगर इतना बड़ा फर्क़ जहां होगा, वहां तो आंदोलन होना निश्चित है. इसके बावजूद अगर सत्ता का अहंकार राजनेताओं के सिर पर चढ़कर बोलेगा तो क्रांति होने से कोई नहीं रोक सकता है.
यह बात कहनी पड़ेगी कि संसद के बाहर पूरे देश में जो नज़ारा था, उससे संसद का औचित्य ही खत्म हो गया, क्योंकि प्रजातंत्र में तो सांसद जनता के प्रतिनिधि मात्र हैं. जब जनता खुद ही सड़क पर उतर कर जन लोकपाल की मांग करने लगे तो उसे प्रतिनिधियों की ज़रूरत नहीं पड़ती है. कई लोग यह मानते हैं कि इतिहास खुद को दोहराता है. जब सत्तर के दशक में जयप्रकाश नारायण का आंदोलन शुरू हुआ, तब भी हालात यही थे. जयप्रकाश नारायण पर भी कांग्रेस पार्टी विदेशी एजेंट और अराजकतावादी होने का आरोप लगा रही थी. पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर उस व़क्त कांग्रेस में थे. वह इंदिरा गांधी से मिले और कहा कि जयप्रकाश नारायण के खिला़फ इस तरह के बयान से कांग्रेस को बचना चाहिए. इंदिरा गांधी तिलमिला उठीं, लेकिन चंद्रशेखर ने दो टूक कहा कि फकीर और राजा के बीच जब भी जंग होती है तो जीत हमेशा फकीर की होती है. इसलिए फकीर और संतों से नज़रें झुका कर बात करनी चाहिए. आज देश में वैसा ही माहौल है. दु:ख इस बात का है कि कांग्रेस पार्टी में आज कोई चंद्रशेखर नहीं है. देश की जनता को अन्ना को धन्यवाद देना चाहिए, क्योंकि उन्होंने परेशानी से जूझ रहे देश को जगाने का काम किया है. इस आंदोलन में जो लोग शामिल हो रहे हैं, वे धन्य हैं. जो लोग अब तक शामिल नहीं हुए हैं, उनके पास मौक़ा है. अन्ना का आंदोलन लोकपाल तक ही सीमित नहीं रहने वाला है. आने वाले दिनों में न्यायिक व्यवस्था में सुधार के लिए आंदोलन होगा, चुनाव सुधार के लिए आंदोलन होगा. घर में बैठने का व़क्त खत्म हो गया है. हमें व्यवस्था परिवर्तन के लिए सड़कों पर उतरना होगा. आज राम गोपाल दीक्षित की एक कविता याद आती है:-
कौन चलेगा आज देश से भ्रष्टाचार मिटाने को,
बर्बरता से लोहा लेने, सत्ता से टकराने को,
आज देख लें कौन रचाता मौत के संग सगाई है,
उठो जवानो, तुम्हें जगाने क्रांति द्वार पर आई है.

शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

प्रेस क्लब / अनामी शरण बबल-5




युवराज की फटकार के बाद  जागी टीम मनमोहन

अन्ना की आंधी इतनी विकराल होगी, शायद इसका अनुमान तो टीम अन्ना समेत अन्ना को भी नहीं थी। दिल्ली पुलिस द्वारा तमाम नियम कानून को ठेंगे पर ऱखकर जो कुछ किया गया, उसके खिलाफ देशव्यापी जनसैलाब को देखकर भी पहले तो वकील साहब ने मनुजी को यकीन दिला दिया कि बस चार छह घंटे का ये तमाशा है शाम ढलते-ढलते सब कुछ सामान्य हो जाएगा। अपने बेस्ट माइंड पर भरोसा करके मनु साहब बेफ्रिक थे, मगर पूरे देश में आंधी देखकर टीम मनमोहन का दम उखड़ने लगा। अपने युवराज को भी मुगली घूंटी 555 की तरह हर बार समझा बूझा लेने वाले वकील साहब ने इस बार भी राहुल बाबा को कोरा बाबा मानकर दिलासा बंधाया। मगर बेकाबू हाल देखकर अपने सौम्य और सुकुमार बाबा का खून खौला और शाम की मीटिंग में सबको जमकर लताड़ा। लताड़ के बाद ही अपने चेहरे पर मुस्कान लपेटकर टीम मनु की त्रिमूर्ति सोनी पी.चिंद और वकील साहब प्रेस के सामने आकर डैमेज कंट्रोल में लगे कैमरों के सामने मुस्कुराते दिखे। खासकर वकील साहब का खिलखिलाता स्माईली फेस (चेहरा) देखना तो वाकई हैरतनाक लगा।

कहां से कहां तक

एक कहावत मशहूर है कि चौबे जी गए छौब्बे बनने और दुबे होकर लौटे। इसका सार ये है कि चालाकी के फेर में बेवकूफ बने। कमसे कम अन्ना के मामल में सरकार और इसकी पीछलग्गू दिल्ली पुलिस को एक बार फिर ( दो माह में दूसरी बार)  किरकिरी का सामना करना पड़ा। मगर मरता क्या नहीं करता। सरकारी नौकरी जो ठहरी। सरकार के आदेश का तो पालन करना ही था। सरकारी निर्देश पर ही रामदेव को चूहा बनाया गया  और अन्ना को भी चूहेदानी में बंद करने के लिए ही आमादा अहिंसा प्रिय मनमोहन साहब ने तो अन्ना को मयूर विहार से ही उठाकर मुबंई भेजने की योजना तय कर रखी थी। जिसमें पुलिस ही फेल हो गई. तिहाड में भी किसी बहाने गाड़ी में बैठाकर दिल्ली से बाहर करने की सरकारी षड़यंत्र का पर्दाफाश हो गया। अपने सबसे ईमानदार पीएम की ईमानदारी का दम पूरी तरह जगजाहिर हो गया। लोग तो यह कहने भी लगे है कि जब मैडम के फरमान के बगैर पीएम साहब सांस नहीं ले सकते तो आपके लिए आपके साथ दिल्ली पलिस की क्या मजाल कि वो अपने मन से अन्ना को छू ले। यानी अन्ना लहर में यूपीए और युवराज के डैमेज कंट्रोल की सारी नौटंकी पर से राज उठ गया है कि सबकुछ सरकार के संकेत पर ही हो रहा था।

जिद्दी नहीं संजीदा बने अन्ना

यूपीए सरकार का बाजा बजाने और तमाम नेताओ और नौकरशाहों को चूहा बना देने के बाद अब बारी आपकी है अन्ना। एक माह के अनशन से भी जनता में वो मैसेज नहीं जाता जो मात्र 48 घंटे में हो गया। अब जब सरकार घुटनों के बल आ गई है तो फिर क्यों जिद्द ? सरकार ने बिना शर्ते जब 15 दिन की मोहलत दी है तो इसमें भूखे रहने से ज्यादा जरूरी है जनलोकपाल बिल को बहस का एक मुद्दा बनाया जाए। सभी दलों को इसमें संशोधन और बेहतर बनानेकी पहल शुरू कराने की। अब अपनी टीम के साथ इसको सर्वमान्य बनाने पर जोर देने की ताकि सरकार को एक मजबूत लोकपाल लाना पड़े। अन्ना दा एक कहावत है काठ की हांड़ी बार बार नहीं। एक ही मुद्दे पर देश भर में बारम्बार खून नहीं खौलता। इस बार जब सारा देश आपके पीछे है तो अनशन, अन् जल त्याग से भी ज्यादा जरूरी है इस मौके को सार्थक बनाने की, जिसका मौका समय हर बार नहीं देता है ना देगा।


अपने ही फंदे में सरकार

रंग बदलने में गिरगिट को भी मात देने वाले तेज (स्मार्ट) कांग्रेसियो ने यह पूरे देश को जता दिया कि मनमोहन सरकार में कौशल पूर्ण रणनीति बनाने वालों का वाकई अकाल हो गया है। कमसे कम अन्ना हजारे के आंदोलन के मामले में तो पीएम से लेकर वकालती अंदाज में पोलटिक्स करने वाले नेताओ तक में समय की नब्ज भांपने की कितनी कमी है। रामदेव को कुचलने वाली यूपीए सरकार के हौसले नादिरशाहों जैसी हो गई थी। लगता था मानो एचएमवी की मुद्रा में बैठी दिल्ली पुलिस से वो कोई भी जुल्म को समय की मांग बताकर करवा लेंगे। अन्ना की आंधी को रोकने के लिए मनु सरकार ने योजना तो सुपर बनाई थी, मगर अपनी टीम में रामदेव एकल थे जिन्हें पुलिसिया शिकार बनना पड़ा, मगर अन्ना की टीम के लोगों को देखकर मनु जी अपने ही फंदे में फंस गए। सरकार की फजीहत देखकर तो वाकई सोनिया की सेहत खराब हो जाती। सचमुच विदेश में जाकर इलाज कराने का कारण अब पता चल गया कि मनु के भरोसे देश को तो छोड़ा जा सकता है, मगर किसी बीमार को नहीं।

यह कैसी चुनौती ?

अपने दिवगंत पिताजी के नाम और काम की वैशाखी पर सवार होकर जिस उम्र में सचिन पायलट मंत्री बन गए है, अगर उनके पीछे पापा की लाठी नहीं होती तो शायद दर्जनों जूतियां घीस जाने के बाद भी वे सांसद तो दूर विधायक बनना भी बस सपना ही रहता। योगगुरू रामदेव आज भले ही मात खा गए हो, मगर लोकप्रियता और असर के मामले में तो वो राजेश पायलट पर भी भारी ही पड़ते। बच्चा पायलट ने रामदेव को संसदीय चुनाव में खड़ा होने की चुनौती देकर अपने आपको जता दिया कि बाप के नाम का साथ होना एक बात है, मगर मंजा होना अलग बात है। रामदेव को तो छोड़ो ( वो तो देश के किसी भी क्षेत्र से किसी के लि्ए भी आज बड़ी चुनौती बन सकते है) मगर फारूक अब्दुल्ला के दामाद पायलट साहब गैर गूर्जर वोट वाले देश के किसी भी संसदीय इलाके से अपनी किस्मत ही आजमा कर तो दिखा दे कि क्या वहां से (पर) पायलट साहब की उड़ान मुमकिन हो पाएगी या......?

कांग्रेस के असली दुश्मन

कांग्रेस के असली दुशमन रामदेव अन्ना हजारे या विपक्षी दल के वो नेता तो कतई नहीं है, जिससे मनु सरकार की नींद हराम हो गई है। मनु सरकार को दरअसल सबसे ज्यादा नुकसान करने वालो में वकील कपिल सिब्बल, दिग्गी राजा(बिना किसी स्टेट के ), मनीष तिवारी है। बगैर कुछ सोचे समझे बेकाबू होकर बोलने वाले इन नेताओं से मनु जी के  साथ युवराज बाबा सोनिया गांधी से लेकर हर उस आदमी को निराशा हो रही , जिसने मनु सरकार से अपनी उम्मीदें बांध रखी थी। सच में मनु जी आप थोड़ा बोलने का रियाज करें, ताकि मौके पर लोग आपकी वाणी सुनकर आपके मुखार बिंद को पहचानने लगे। बोलने के नाम पर रोने वाले मनु जी कुछ करो । अपनी नहीं तो देश के बारे में विचार करे, जिसकी इज्जत का गुब्बारा खतरे में है।

जनता के बीच जाना है

अन्ना हजारे ने नेताओं को एकसूत्र में बांधकर एक कतार में अपने लिए खड़ा कर दिया। कल तक अन्ना के आंदोलन की खिल्ली उड़ा रहे लालू भाई भी सोनिया का दामन छोड़कर अपना सूर बदल दिया। मुलायम, मायावती और लेफ्ट तो पहले ही आ चुके थे। कमल छाप भी शुरू से अन्ना के साथ था। गैर यूपीए के तमाम घटक एक साथ हो गए। खासकर चारा मामले में अभी तक फंसे और जगन्नाथ मिश्र के साथ एक और मामले में नवाजे गए लालू के बदले रूख पर मैं चौंक गया। पाला बदल पर लालू ने कहा क्या करे चुनाव में तो जनता के बीच जाना होता है, और अन्ना की आंधी से बचना ही इस समय की पोलिटिकल मांग है.....।

कुछ करिए गुलाम जी

लोकसभा में केवल रोने और मगरमच्छ वाला आंसू बहाने से काम नहीं चलेगा। सरकार से कोई जीत सकता है क्या ? अगर डाक्टरी की पढ़ाई के बाद कोई एक साल के लिए भी गांवों में नहीं जाता है तो यह आपके और आपकी सरकार के लिए ज्यादा शर्मनाक है। एडमिशन के समय ही एक साल का एग्रीमेंट और पालन नहीं करने पर अयोग्य करार कर देने की चेतावनी का अनिवार्य कानून बना देने के बाद गुलाम साहब क्या मजाल कि कोई गांव में ना जाए ? मगर गावों को तो आप और आपकी सरकार ने केवल चुनाव के समय देखा और रोया। फिर भूल गए। गावों में संसाधन देने के नाम पर मनु साहब का बजट खराब होने लगता है, और प्रणव दा के टसूए चूने लगते है। अस्पतालों की बेहतर हालात और डाक्टरों की सुरक्षा की पूरी व्यवस्था रहे तो आज का युवा अपनी मिट्टी से तो जुड़ना चाहता है, मगर सरकार की नीतियों से जमीन क्रंकीट में बदलते जा रहे है। सारा विकास शहरी हो गया है, वहां पर जान जोखिम में डालकर कौन जाएगा गुलाम साहब ?  रोने की बजाय अपने गिरेबान में झांककर देखेंगे तो आजाद ख्याल के गुलाम साहब असलीयत का अंदाजा लगेगा।


फेसबुकिया दोस्ती से जरा बचके

निसंदेह फेसबुक लोगों को जोड़ने का एक बड़ा माध्यम बन चुका है। नए दोस्तों के साथ पुराने लोग भी एक जीवंत रिश्तों से जुड़ जाते हैं। मगर अपन 46 साल के कलम घिस्सू को बड़े बुरे अनुभव से गुजरना पड़ा। पंजाब के एक इंजीनियरिंग कालेज की एक 24 साल की लड़की (शायद वो लड़का हो) नीरू शर्मा ने दोस्ती मैसेज में रिलेशन बनाने का आफर दिया। वहीं, अभी चार पांच दिन पहले राकेश गर्ग नामक एक युवक ने फ्रेंडशिप करके रोजाना चैट करने लगा। और चौथे या पांचवे दिन गर्ग ने कहा कि क्या हमलोग सेक्स की बाते कर सकते है ? मेरे द्वारा लताड़ने और फिर बात ना करने की हिदायत पर कहीं पिंड छूटा। अपने से 20-22 साल कम उम्र के युवाओं से इस तरह की बातें सुनकर खुद पर शर्म आती है। प्लीज फेसबुक(पर) से जरा बच के भी रहना दोस्तों।

और क्रिकेट की आंधी थम गई

अन्ना की जोरदार आंधी में यह खबर दब गई कि बिहार की तरफ से रणजी खेलने वाले ताबड़तोड़ खब्बू बल्लेबाज रमेश सक्सेना की टाटा( जमशेदपुर) में गुमनाम सी मौत हो गई। हालांकि कई सीएम और खिलाड़ियों ने शोक जताया। आज से 42-44 साल पहले 1967 में इंग्लैंड़ के खिलाफ एकमात्र टेस्ट खेलने वाले(17 और 16 रन)  रमेश ने कोई धमाका तो नहीं किया, मगर दो तीन साल तक कई देशों में टीम के साथ ले जाए जाने के बाद भी फिर कभी मौका नहीं मिला। युसूफ पठान धोनी और याद करे कपिलदेव की हंटर बल्लेबाजी(175 रन)  से भी उम्दा खेलने वाले रमेश के पीछे कोई (गाड) फादर नहीं होना ही इसकी चमक को खा गया। मुझे जमशेदपुर मे आज से 30 साल पहले कालीचरण की वेस्टइंडीज टीम  के खिलाफ सक्सेना की खेली धुंआधार पारी आज भी याद है (तब मैं केवल 15 साल का था और जिद करके घर से 350 किलोमीटर दूर टाटा केवल मैच देखने गया था) कि सक्सेना की 86 रनों की पारी में हर छक्के( 8 छक्के) पर कप्तान कालीचरण सक्सेना के बल्ले को आकर बार बार देखते थे। और जब सक्सेना आऊट हुए तो कालीचरण ने उन्हें अपनी बांहों में जकड़ लिया। आज अगर सक्सेना खेल रहे होते तो इसमें कोई शक नहीं कि इन्हें अपनी टीम में ऱखने के लिए विजय माल्या और शाहरूख खान के बीच करोड़ों की जंग होती। गुमनामी के बाद भी केवल 149 मैचों में 17 शतक और 61 अर्द्धशतक की मदद से 8141 बनाने वाले सक्सेना के दमदार रिकार्ड आज भी चयनकर्ताओं को शर्मसार करने लिए काफी है। बिहार के इस चमकदार और मेरे हीरो रहे रमेश सक्सेना को श्रद्धासुमन के साथ नमन। 

नोट-- एक सप्ताह के लिए मैं दिल्ली से बाहर (असली भारत) में रहूंगा, जहां पर आज भी कम्प्यूटर और लाईट का होना एक स्वप्न है। लिहाजा प्रेसक्लब-6 समय पर प्रस्तुत नहीं कर सकता। इसका इलसा पोस्ट दो या तीन सितम्बर को करूंगा। इसके लिए क्षमायाचना सहित --सधन्यबाद
आपका 
अनामी शरण बबल
20.09.2011 सुबह 3.23 मिनट

बुधवार, 17 अगस्त 2011

रामदेव---1.किंगमेकर बनने की ख्‍वाइश बाबा को ले डूबी!



 महेंद्र प्रताप सिंह
चार जून शायद कम लोगों को याद रहे लेकिन कुछ तो चाह कर भी नहीं भूल पाएंगे, जो भारत की राजधानी दिल्‍ली में रामलीला मैदान में एक साधू के बहकावे में आ टपके थे, किसी के हाथ टूटे किसी के पैर कोई छुप गया तो कोई भाग गया. सत्तामठों को ब्लैक मेल करने की चाहत और राजनीति के पिछले गलियारे से इंट्री कर किंग मेकर बनने की ख्वाइश इस कदर ले डूबेगी इसका अंदाज़ा गेरुआ चोला धारक को बिलकुल नहीं था. रही बात पूरे मामले में मीडिया की भूमिका की तो भ्रष्टाचार की गंगोत्री से फूटे प्रवाह में पत्रकारिता के मानदंड या तो बह गए या किनारे लग गए जो कुछ एक बचे हैं वो इतने हताश निराश और टूट चुके हैं कि उनकी कलम अंगार उगलने के काबिल ही नहीं बची, हिम्मत दीखाने वाले पर या तो दनदनाती गोलियां चलती है या उन्हें इतना प्रताड़ित कर दिया जाता है कि सच लिखने की परिभाषा तक भूल जाता है सच को लिखने के अक्षम्य अपराध में मुंबई के एक पत्रकार की हत्या और लखनऊ के दो संवाददाताओं पर हमला जल्द ही हुआ है.
कालाधन हमारे देश के लोगों के खून पसीने की कमाई है जिसे वापस लाने के लिए अकेले रामदेव नहीं देश की मीडिया और सभी पार्टियों के लोगों को एक माहौल बनाना चाहिए. जो विदेश में काला धन जमा कर सकते हैं वो अपने भारत के अन्दर अपने धन के जरिये अस्थिरता पैदा कर सकते हैं, ये बाबा को सोच कर ही ताल ठोंकनी चाहिए थी. ज्यादा चालाकी के चक्कर में अकेले पड़ चुके बाबा का साथ तो अन्ना हजारे ने भी दिल से नहीं दिया, कालेधन के खातेदार बाबा की राजनैतिक नौसिखियेपन का फायदा उठाते हुए कुछ सफेदपोशों के जरिये इन्हें सबक सिखाने के लिए मैदान में कूड़े लेकिन परदे के पीछे से..लेकिन बाबा को जब तक समझ में आता कि उन्होंने सांप के बिल में हाथ ड़ाल दिया है, तब तक उस सांप ने उन्हें डस भी लिया और जहर उनके सबसे करीबी तक पहुच गया.
केंद्र की कठपुतली सीबीआई की पीठ तो वाकई ठोंकने लायक है क्यूं कि इसको चालाने के लिए ऊँगली का भी इस्तेमाल नहीं करना पड़ता शायद इन्हें भर्ती के दौरान ही सत्ता के इशारे समझने की ट्रेनिंग भी दी जाती है, लेकिन सच तो ये है कि दाग इधर भी हैं जो योग से हासिल प्रतिष्ठा में अब तक छुपे थे, पतंजलि योगपीठ के प्रमुख रामदेव और बालकृष्ण का विवादों से पुराना नाता है. बाबा की दवाओं कंपनियों और बालकृष्ण की नागरिकता, पासपोर्ट पर सवाल पहले भी उठ चुके हैं पर 4 जून के पहले इनकी जाँच करने की जहमत किसी ने नहीं उठाई और ये मामले सिर्फ फाइलों में कैद होकर धूल चाटते रह गए.
हरिद्वार के कनखल स्थित त्रिपुरा योग आश्रम से रामदेव बालकृष्ण ने योग सिखाने की शुरुआत की धीरे-धीरे ये तिकड़ी हरिद्वार के दिव्या योग मंदिर के अध्यक्ष शंकरदेव की शरण में पहुंचे जहाँ इस कला का जमकर विस्तार किया सच तो ये है कि रामदेव की डीलिंग पावर और बालकृष्ण की चतुराई ने इन्हें कम समय में ही आसमान की बुलंदियों तक पंहुचा दिया, चूंकि रामदेव और बालकृष्ण ये जान गए थे कि वही इस ख्याति के मुख्य अधिकारी हैं सो अपने परिवार और रिश्तेदारों को उन्होंने महत्वपूर्ण पद और जिम्मेदारियां दे दी, जिससे नाराज कर्मवीर और कई साथियों ने इनका साथ छोड़ दिया सबसे ज्यादा समस्या तो शंकर देव की प्रतिष्ठा के दांव पर लगने से हुई और उनकी २००७ में रहस्यमयी तरीके से हुई गुमशुदगी भी अब सीबीआई के लिए एक हथियार बन गयी है, जो अब तक ठण्‍डे बस्‍ते में पड़ी थी.. सीबीआई भी इस हाई प्रोफाइल बन चुके मामले में कोई रिस्क नहीं लेना चाहती लेकिन शुरुआत तो बालकृष्ण से हो ही गई है.
जाँच शुरू हुई देहरादून से लेकिन सबूत इस जाँच के बनारस तक ले गए और फिर परते खुलने में देर नहीं लगी, सम्पूर्णानन्द विश्व विद्यालय ने तो पल्ला झाड़ ही लिया उल्‍टे नाम ख़राब करने के चक्कर में आचार्य पर एफआईआर तक की धमकी दे डाली. मीडिया को खुल कर उन रोल नंबर का डिटेल भी दे दिया, जिनके जरिये ये नेपाली आचार्य जी लोगों से पैर छुआ कर आशीर्वाद दिया करते थे. हरिद्वार नगर पालिका से उनके जन्म सम्बन्धी दस्तावेज पहले ही गायब हो चुके हैं. सीबीआई के हर रोज कसते शिकंजे से बाबा के चेहरे का रंग बदलता चला जा रहा है.. सोचने वाली बात ये है कि सीबीआई को जाँच में सहयोग नहीं कर रहे बालकृष्ण शायद काले कोट के बहकावे में हैं कि उनको कुछ नहीं होगा और वो पतंजलि योगपीठ सहित तमाम संस्थानों और पतंजलि आयुर्वेद विश्व विद्यालय के कुलपति और सर्वे सर्वा बने रह पाएंगे. ये सवाल आज काले धन से जयादा चर्चा का विषय है.

2कर्ज संकट की आग में जल सकता है भारत


PoorBest 
स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने अमेरिका की लॉन्ग टर्म कर्ज की रेटिंग को ट्रिपल एसे कम करके एए प्लसकर दिया है। रेटिंग कम होने से ज्यादा खतरनाक अवस्था अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार की रफ्तार का बहुत ज्यादा सुस्त होना है। डर की वजह से सरकार एतहियाती रवैया अपनाने की नाकाम कोशिश कर रही है। यूरोप और मध्य पूर्व देशों के हालत भी अच्छे नहीं हैं। दिन प्रति दिन इन देशों में कर्ज का संकट और भी गहराता चला जा रहा है। अब सब कुछ इन देशों की सरकार पर निर्भर करता है कि वे किस तरह से इस कर्ज संकट से मुकाबला करते हैं। हालांकि अमेरिका ने बेरोजगारी के फ्रंट पर अच्छा काम किया है। लेकिन फिलहाल उसका लाभ उसको मिलता नहीं दिख रहा है। ध्‍यातव्य है कि जुलाई में 75,000 के अनुमान के मुकाबले में अमेरिका ने 1,17,000 बेरोजगारों को नौकरी मुहैया करवाया है।
जाहिर है कि रोजगार के बेहतर आंकड़े भी कर्ज संकट पर सकारात्मक प्रभाव नहीं डाल पा रहे हैं। वैसे भारतीय निर्यातक भी पशोपेश में हैं। उनको लग रहा है अगर कर्ज संकट के बादल ऐसे ही उमड़ते-घुमड़ते रहे तो निश्चित रुप से उसका नकारात्मक प्रभाव उनके निर्यात आर्डरों पर पड़ेगा। दरअसल भारत के निर्यात का एक तिहाई हिस्सा अमेरिका, यूरोप और मध्य पूर्व के देशों में जाता है और तीसरी और चौथी तिमाही में भारतीय निर्यात पर इसका असर पड़ सकता है। क्योंकि इस मंदी से अमेरिकी डालर की हालत पतली होगी एवं भारतीय रुपया मजबूत होगा। अगर अमेरिका तथा यूरोपीय देश अपना राजस्व बढ़ाने के लिए टैक्स बढ़ाते हैं तब भी वहाँ के नागरिकों की आमदनी कम होगी और जिसका नकारत्मक प्रभाव वहाँ के आयातकों पर पड़ेगा।
ज्ञातव्य है कि 2011 की शुरुआत में यूनान की आर्थिक स्थिति खस्ताहाल थी। इस कारण वहाँ की सरकार ने कई देशों के निर्यातकों के आर्डरों को रद्द कर दिया था। यूनान जैसी स्थिति का निर्माण इटली, कनाडा, अमेरिका इत्यादि देशों में भी हो सकता है। उल्लेखनीय है कि इन देशों में भारत विनिर्माण, पावर, फाउंड्री, टेक्सटाईल और इंजीनियरिंग जैसे उत्पादों का बड़े पैमाने पर निर्यात करता है। विगत साल दक्षिण अमेरिका और कनाडा में भारतीय इंजीनियरिंग उत्पादों के निर्यात में महत्वपूर्ण इजाफा हुआ था। कर्ज संकट के कारण इन देशों में विविध उत्पादों की मांगों में भारी कमी आई है। पीतल और उससे बने उत्पाद भी उनमें से एक हैं। पीतल की मांग में भी जबर्दस्त गिरावट दर्ज की गई है। इसकी वजह से भारत के जामनगर के पीतल निर्माण इकाईयों में पीतल के निर्माण में तकरीबन 25-30 फीसदी की कमी आई है एवं जिसके कारण कीमत में पिछले वितीय वर्ष की तुलना में 20 फीसदी का उछाल आया है।
गौरतलब है कि भारत में पीतल उद्योग लगभग 2000 करोड़ रुपयों का है और इस क्षेत्र में 5,000 विनिर्माण इकाईयां सक्रिय हैं। बिगड़ते हालात से निपटने के लिए भारतीय निर्यातक सरकार से इंट्रेस्ट सववेंशन की स्कीम को जारी रखने, विविध करों में छूट और अन्यान्य दूसरे फायदे निर्यातकों को देने की गुहार सरकार से लगा रहे हैं। कॉपर का प्रयोग पावर सेक्टर, बिजली के कारोबार, एसी, कम्पयूटर, कार के पार्टस इत्यादि में उपयोग किया जाता है। इतना महत्वपूर्ण धातु होने के बाद भी इसके मांग में कमी देखी जा रही है और कीमत आसमान पर पहुँच रहा है। कॉपर की तरह एल्युमीनियम की जरुरत भी उद्योगों के लिए अतुलनीय है। फिर भी कर्ज संकट की वजह से अंतराष्ट्रीय स्तर पर इसकी कीमत में तेजी बना हुआ है तथा इसके डिमांड में लगातार कमी आ रही है।
प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (पीएमईएसी) के अघ्यक्ष सी रंगराजन का मानना है कि अमेरिकी कर्ज संकट का फिलहाल भारत पर बहुत ज्यादा नेगेटिव प्रभाव नहीं पड़ेगा। पर यदि अमेरिका की अर्थव्यवस्था मंदी के भंवर में फंसता है तो उसका नकारात्मक असर पूरी दुनिया पर पड़ सकता है। स्पष्ट है कि अमेरिका और यूरोप में विकास की गति निरंतर कम हो रही है। विश्‍लेषकों का मानना है कि अमेरिका में पहली छमाही में 1.5 फीसदी का विकास दर रह सकता है। जो कि पिछले साल के मुकाबले में काफी कम है। सम्मिलित रुप से यूरोप की विकास दर भी उत्साहजनक नहीं है। स्पेन, पोलैंड और आयरलैंड जैसे देश आज लगभग दिवालिया होने के कगार पर पहुँच चुके हैं। अगर ऐसी स्थिति अमेरिका तथा यूरोप में बरकरार रहती है तो निश्चित रुप से विकासशील देशों का निर्यात प्रभावित होगा। इसका प्रभाव निवेश पर भी पड़ेगा।
पूंजी का बहाव कम जोखिम वाले क्षेत्रों की तरफ रहने की संभावना बढ़ जाएगी। खास तौर पर उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं पर इसका असर साफ तौर देखा जा सकता है। बावजूद इसके भारत नीतिगत फैसलों के माध्यम से निवेश के माहौल को मजबूत कर सकता है। यहाँ की विकास की दर भी बेहतर है और इसमें बेहतरी का कारण घरेलू बाजार की मजबूती है। यहाँ के सरकारी बैंकों के हालत विदेशी बैंकों की तरह खराब नहीं हैं। फर्जीवाड़े के मामले भी भारतीय बैंकों में कम देखने को मिलते हैं।

अगस्‍त क्रांति : किसी को याद नहीं है पहला शहीद परशुराम शर्मा

 शशांक चंद्रशेखर उपाध्‍याय
कौन याद रखता है अंधेरे वक्त के साथियों को सुबह होते ही चिरागों को बुझा देते हैं। आज 10 अगस्त के बेशर्म सन्नाटे के गुजरने के बाद यह शब्द श्रद्धांजलि समर्पित है एक ऐसे जाबांज शहीद को जो नामचीन नहीं है लेकिन शहादत के रिवाज में वह अगड़ा है, पर अफसोस हमे मालूम नहीं। अपने बुड्ढ़े व लाचार मां बाप के सपनों को देश के लिए स्वाहा करने वाले मध्यम वर्गीय परिवेश के इस शहीद की शहादत की याद देश को कराना इसलिए जरूरी है कि करो या मरो के आन्दोलन में यह देश का पहला बलिदान था। पर अफसोस कि हमें मालूम नहीं कि वह भी सन 1942 की 10 अगस्त थी।
आगरा के हाथीघाट से जो सड़क दरेसी की तरफ जाती है, उस पर अंग्रेज पुलिस की कड़ी नाकेबंदी को चीरता हुआ एक नौजवान आगे बढ़ रहा था। हाथ में तिरंगा था, तभी पुलिस की बंदूके गरजी, एक गोली उसकी बांह में लगी वह उठाचला, लेकिन फिर बंदूकों की धांय-धांय सुनाई दीजिसने उस नौजवान का सीना छलनी कर दिया। वह फिर नहीं उठा, कभी नहीं उठापर अफसोस हमें मालूम ही नहीं।
क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद बंबई में 7 अगस्त 1942 को कांग्रेस कार्यसमिति में महात्मा गांधी बोले थे- कांग्रेस से मैं ने यह बाजी लगवाई है कि या तो देश आजाद होगा अथवा कांग्रेस खुद फना हो जाएगी। करो या मरो हमारा मूल मंत्र होगा। 8 अगस्त को कांग्रेस कार्यसमिति ने अंग्रेजों भारत छोड़ों प्रस्ताव स्वीकृत किया। 9 अगस्त 1942 को बंबई में गांधी जी समेत राष्ट्रीय आन्दोलन के सभी बडे़ नेता गिरफ्तार कर लिए गए। सारे देश में गिरफ्तारी और दमन चक्र पूरे वेग से प्रारंभ हो गया। आगरा में कुछ नेता तो पहले ही पकडे़ जा चुके थे। कुछ फरार थे। अपने नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में 10 अगस्त को सारे शहर में पूर्ण हड़ताल थी।
मोतीगंज स्थित कचहरी के मैदान में एक आम सभा का ऐलान किया जा चुका था। सारा शहर अज्ञात भय से आतंकित था और सभी के मन में आसन्न संकट के बादल छाए हुए थे। जनता की सहानुभूति आन्दोलन के साथ ही अंग्रेज निजाम के अफसर आम सभा को विफल करने पर उतारू थे। सारे शहर में पुलिस का सख्त पहरा था। वह चौकन्नी थी। अंग्रेज की पुलिस मोटर लारियां सायरन बजाती इधर से उधर दौड़ रही थी। जमुना किनारे के आसपास बने बगीचे उस दिन सुनसान पडे़ थे। मोतीगंज के मैदान का मुख्य फाटक बंद था। उसके सामने सशस्त्र सिपाहियों की लंबी कतार मौजूद थी। उनसे आगे कुछ फासले पर इसी तरह की तीन कतार और थी, पास ही डटे हुए थे पुलिस अधिकारी और सिटी मजिस्ट्रेट। कुछ लोगों को आभास हो गया था कि आज गोली चले बिना नहीं रह सकती।
इसलिए वे चुंगी के सामने वाले रेलवे के मैदान में एक गुमटी के पीछे गोलियों की बौछार से बचने के लिए जा खडे़ हुए थे। मुख्य द्वार से हटकर पुलिस ने दाएं बांए हो कर तीन तीन कतारों में पोजीशन ले ली। कुछ लोग हाथीघाट जाने वाली सड़क पर जमा थे। कुछ पत्थरों की आड़ में छिपे हुए तमाशा देख रहे थे। आम सभा करने की जिद पर अडे़ लोग सड़क पर ही इकट्ठा हो गए। कांग्रेस के बाबूलाल मित्‍तल को सभा की सदारत सौंपी गई। जैसे ही बाबूलाल मित्‍तल बोलने को खडे़ हुए पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उनकी गिरफ्तारी से तनाव बढ़ गया। कुछ लोग उनकी रिहाई करने एवं सभा में बोलने के लिए नारेबाजी करने लगे। तनाव बढ़ता देख पुलिस ने पोजीशन ले ली। उत्तेजित भीड़ ने पुलिस बल पर कत्तलों (पत्थर के छोटे टुकडों) की वर्षा शुरू कर दी।
पोजीशन लिए हुए सिपाही कत्तलों की मार से इतने भयभीत हो गए कि अपना बचाव करने के लिए पीछे भागते नजर आएं। जनता पत्थरों की चोट मार रही थी और सिपाही भाग रहे थे। जनता ने उन्हें चुंगी के फाटक तक खदेड़ दिया। पुलिस ने अब पहले चक्र की गोलियां चलाई, कुछ लोग पत्थर की आड़ में हो गए। सामने वाली भीड़ में भगदड़ मच गई। पुलिस ने दूसरे चक्र की गोलियां दागी। लोग भयभीत हो कर इधर-उधर भाग रहे थे, जो लोग स्ट्रेची पुल की तरफ भागे वे वहां तैनात सिपाहियों की गिरफ्त में आ गए। कुछ उत्साही नौजवान गोलियों की परवाह न करके पुलिस पर खुलेआम पत्थर बरसा रहे थे।
पत्थरों की ओट के कारण वे सुरक्षित बचे हुए थे कि तभी परशुराम शर्मा नामक नौजवान तिरंगा हाथ में लिए उठ खड़ा हुआ। जिस समय उसकी दायीं बांह में पुलिस की पहली गोली लगी वह सामने पुलिस पर पत्थर बरसा रहा था। उसके जमीन पर गिरते ही पुलिस पर पत्थरों की बरसा रूक गई। पुलिस की गोलियां भी अब शांत हो चुकी थी। अंग्रेज पुलिस वाले शहीद परशुराम शर्मा की लाश को मोटर लारी में डालकर जिला अस्पताल ले गए। किसी ने दौड़ कर छीपी टोला स्थित उसके निवास पर उसकी शहादत की सूचना दी।
बदहवास मां-बाप और रोते बिलखते परिजन भी घटनास्थल पर आ गए। उसकी मां के करूण क्रन्दन से मौजूद लोगों के हृदय फट गए थे। सुबह उत्साह में न्निनई (बिना कुछ खाए पीए) ही घर से चल दिया था परशुराम। आज परशुराम के बलिदान का 69वां साल था। लेकिन अफसोस पूरे देश के साथ साथ आगरा भी उसकी याद में नावास्ता रह गया। जब देश जश्ने आजादी की 64वीं सालगिरह के आमोद में व्यस्त था तब भी इस जाबांज की चिता पर मेले नहीं लगे और आज भी नहीं लेंगे। जश्ने आजादी के जलसों के गीत, कविता, ड्रामें, कव्वालियां और जाने क्या क्या.....शुमार था। पर उनमें परशुराम की यादें नहीं थी। सभी अपने को एक दूसरे से बड़ा साबित करने की जुगाड़ में जीजान से जुटे थे। कल भी परशुराम की जिंदाबाद को कोई हाथ नहीं उठा।......तो हमेशा की तरह आज 10 अगस्त को भी आजादी के विशाल मंदिर की बुनियाद में नीचे गडे़ परशुराम ने राजनय-विद्रूपता अपनी निरन्तर उपेक्षा एवं अपमान पर जोर जोर से हंसते हुए कहा ही होगा--बौने जब से मेरी बस्ती में आ कर रहने लगे है। रोज कददोकदावत के झगडे़ होने लगे है। मुझे सोने दो, मत जगाओं वरना, हस्ती के हिसाब होने लगे हैं।

यही है आजादी! नैतिकता बची नहीं, भलमनसाहत भी खतम हो रही है

 डॉ. शशि तिवारी
कहने को तो स्वतंत्र हुए हम 64 बसंत देख चुके हैं लेकिन जब भी जालिम अंग्रेजों का ख्याल आता है तब-तब अनायास ही हमें अपने भारतीय जल्लाद तथाकथित नेता अनायास ही याद आ जाते हैं, जब भी मैं दोनों के मध्य तुलना करती हूं तो भारतीय नेताओं को सबसे निचले पायदान पर ही पाती हूं। ऐसा भी नहीं है कि इन दोनों समूहों से मेरी कोई व्यक्तिगत रंजिश हो, पर न जाने क्यों भारतीय नेताओं में ईमानदारी की कमी ही पाती हूं। रहा सवाल देशभक्ति का तो वो इन्हें दूर-दूर तक नहीं छू पाती हैं। कभी-कभी इसकी एक्टिंग जरूर अच्छी कर लेते हैं। ऐसा भी नहीं है कि सभी बेकार है, निकृष्ट हैं, जनता के धन के लुटेरे हैं, बलात्कारी या अपराधी हैं लेकिन हां ऐसे नेताओं की जमात निःसंदेह अधिक है। इन 64 वर्षों में नेताओं के चाल-चरित्र में गजब की रिकार्ड गिरावट देखी जा रही हैं।
पंडित जवाहरलाल नेहरू जिन्होंने स्वयं जनप्रतिनिधि कैसा होना चाहिए को लेकर राजनीति एवं जनता के बीच एक स्पष्ट संदेश दिया लेकिन 1984 से 15वीं लोकसभा तक अधिकांश जनप्रतिनिधियों ने न केवल जमकर भ्रष्टाचार किया बल्कि अपने दुष्ट कर्मों को भोगते हुए आज एक के बाद एक जेल जाने की तैयारी में ही बैठे है, फिर क्या पुरूष, क्या महिला कोई भी पीछे रहना नहीं चाहता। आज अधिकांश राजनेता जनमुद्दों से गिर एक-दूसरे पर केवल कीचड़ उछालने के ही कार्य में मशगूल हैं। आज जन प्रतिनिधियों का आचरण सामंतशाही जैसा हो गया है जो जनता को केवल चुनाव के समय ही भगवान समझती हैं बाद में तो केवल दो कौड़ी का आदमी, चुनाव जीतने के बाद और मंत्री बनने पर तो अपने को खुदा से कम नहीं समझते।
संसद के अंदर उनका आचरण ऐसा कि अच्छे-भले मनुष्य को शर्म आ जाये, हंगामा इतना कि मछली बाजार भी फीका लगे, संसद में यदा-कदा ही जाते है, गए भी तो पैसा लेकर प्रश्न पूछते है आदि-आदि। मैं चौदहवीं लोकसभा के अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी की तारीफ करना चाहूंगी कि जिन्होंने बड़ी बेबाकी से सांसदों को श्राप दिया - ‘‘भगवान करे आप सब चुनाव हार जाएं आपका आचरण निंदनीय है, आप जनता के धन में से एक पैसे के भी हकदार नहीं है, जनता सब देख रही है वह चुनावों में सबको सबक सिखाएगी।’’ मुझे अध्यक्ष के रूप में इस कुर्सी पर बैठकर शर्म आ रही है आदि-आदि, चटर्जी में नैतिकता भी थी और भलामनसाहत भी थी लेकिन बेशर्मों का क्या? फिर मशगूल है बेशर्मी में।
यदि हम अपने दिमाग पर जोर डाले तो देखते है कि लोक लेखा समिति के अध्यक्ष डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि राजा ने 250 करोड़ रुपये की रिश्वत ली थी जिससे देश को 1.75 लाख करोड़ का नुकसान हुआ। इसी रिपोर्ट में यह भी बताया कि राजा के साथ कनिमोझी ने भी 300 करोड़ की रिश्वत ली थी और कहा कि राजा जितने दोषी हैं उतने ही दोषी पी.चिदंबरम भी है, जब यह रिपोर्ट मीडिया में आई तब शुरू में केन्द्र सरकार ने अपनी आदत के अनुसार राजा एवं कनिमोझी दोनों को ही प्रथम दृष्टया बेकसूर ही बताया था, लेकिन अंत हम सभी के सामने है। वहीं पी. चिदंबरम देश में बढ़ते आतंकवाद और इसको दिये गये वक्तव्य से पुनः सुर्खियों में आ गए हैं, पी. चिदंबरम कह रहे हैं कि अब आतंकी देश के भीतर ही बन रहे हैं। उन्हें ढूंढना न केवल मुश्किल है बल्कि नामुमकिन भी है।
उनका यह वक्तव्य अपने आप में बहुत ही खतरनाक है विशेषतः आतंकियों के हौंसले बुलंद करने एवं बढ़ावा देने के लिए। यह सत्य है कि आतंकवादियों की न तो कोई जात होती है न कोई धर्म। आगे चिदंबरम यह भी कहते नहीं थकते कि हमारी खुफिया एजेंसी अमेरिका और चीन के जैसी नहीं है। ऐसा वक्तव्य दे, देशवासियों के सामने केवल अपने नाकारा प्रणाली का ही सबूत दिया है। इस बेचारगी मात्र से वे अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते। भारत की जनता से जब जी भर कर टैक्स लिया जाता है तो सुरक्षा दिलाने का जिम्मा भी देश के गृहमंत्री का ही बनता है, लेकिन वे अपनी जिम्मेदारियों से छिटक एक कदम आगे बढ़ अब जनता से ही अपील कर रहे है कि आतंकियों का अब जनता ही पता लगाए उन्हें चिन्हित भी करे। इसी के साथ राजनीतिक दलों को भी जिम्मेदारी से पेश आने की नसीहत देते हुए कहा है कि वोट की राजनीति के खातिर सच्चाई को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने से भी बचना चाहिए। आतंकवाद की विषबेल को यदि आज नहीं रोका गया तो हमारा कल विपदाओं भरा होगा।
लेखा समिति के बाद आज जब कैग की रिपोर्ट पेश हो चुकी है अब दूध पानी का पानी साफ हो गया है, राष्ट्र मंडल खेल के मुख्य सूत्रधार कलमाड़ी ने जेल जाने के पहले से कहते आ रहे थे कि मैं अकेला इस भ्रष्टाचार के खेल में नही हूं और भी है? रिपोर्ट के बाद भ्रष्टाचार की लूट में सी.ए.जी. ने दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पर स्ट्रीट लाईट लगाने के ठेकों से गमलों में लगे हुए पौधों के साथ लगभग एक दर्जन अरोपों का दोषी माना है। जिसमें भारत की गरीब जनता का 900 करोड़ रुपया बर्बाद कर गोलमाल किया गया है। कलमाड़ी की तरह ही प्रथम दृष्टया सरकार शीला दीक्षित को भी अभी से बचाने में जुट गई है आने वाले समय में उनका क्या होगा, यह तो भविष्य के गर्त में ही छिपा है। बरहाल राजनीतिक दलों ने शीला के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। कलमाड़ी की नियुक्ति को ले पी.एम.ओ. कार्यालय भी पहले से ही संदेह के घेरे में है।
यहां कुछ यक्ष प्रश्न उठ रहे हैं मसलन हमारे राजनेता नैतिक तौर पर इतने गिर चुके हैं कि जनता मोर्चा निकाले? क्या हम वाकई बेशर्म हो गए हैं? हममे कोई लोकलाज नहीं बची? जब हमने किसी भी सरकारी रिपोर्ट को न मानने की कसम खा रखी है तो फिर लेखा समिति नियंत्रक और महालेखा परीक्षक सी.ए.जी. जैसी संस्थाओं का औचित्य ही क्या रह जाता है? दूसरा पहले ये आम धारणा थी कि महिलाएं भ्रष्टाचार नहीं करती लेकिन अब ये धारणा भी टूट रही है। तीसरा कोर्ट ने कलमाड़ी पर कोर्ट का समय बर्बाद करने के लिये एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया हैं। ये उन सांसदों एवं जन प्रतिनिधियों के लिये सबक है जो नियमित रूप से संसद में नहीं जाते या बहुत कम जाते हैं, लेकिन जब किसी घपले या मर्डर में फंसते हैं तो संसद जाने की बात करते हैं। चौथा सभी राजनीतिक पार्टियों का नैतिकता को ले अपने अपने भीतर में झांकने की आवश्यकता है।

यही है आजादी! नैतिकता बची नहीं, भलमनसाहत भी खतम हो रही है

 डॉ. शशि तिवारी
कहने को तो स्वतंत्र हुए हम 64 बसंत देख चुके हैं लेकिन जब भी जालिम अंग्रेजों का ख्याल आता है तब-तब अनायास ही हमें अपने भारतीय जल्लाद तथाकथित नेता अनायास ही याद आ जाते हैं, जब भी मैं दोनों के मध्य तुलना करती हूं तो भारतीय नेताओं को सबसे निचले पायदान पर ही पाती हूं। ऐसा भी नहीं है कि इन दोनों समूहों से मेरी कोई व्यक्तिगत रंजिश हो, पर न जाने क्यों भारतीय नेताओं में ईमानदारी की कमी ही पाती हूं। रहा सवाल देशभक्ति का तो वो इन्हें दूर-दूर तक नहीं छू पाती हैं। कभी-कभी इसकी एक्टिंग जरूर अच्छी कर लेते हैं। ऐसा भी नहीं है कि सभी बेकार है, निकृष्ट हैं, जनता के धन के लुटेरे हैं, बलात्कारी या अपराधी हैं लेकिन हां ऐसे नेताओं की जमात निःसंदेह अधिक है। इन 64 वर्षों में नेताओं के चाल-चरित्र में गजब की रिकार्ड गिरावट देखी जा रही हैं।
पंडित जवाहरलाल नेहरू जिन्होंने स्वयं जनप्रतिनिधि कैसा होना चाहिए को लेकर राजनीति एवं जनता के बीच एक स्पष्ट संदेश दिया लेकिन 1984 से 15वीं लोकसभा तक अधिकांश जनप्रतिनिधियों ने न केवल जमकर भ्रष्टाचार किया बल्कि अपने दुष्ट कर्मों को भोगते हुए आज एक के बाद एक जेल जाने की तैयारी में ही बैठे है, फिर क्या पुरूष, क्या महिला कोई भी पीछे रहना नहीं चाहता। आज अधिकांश राजनेता जनमुद्दों से गिर एक-दूसरे पर केवल कीचड़ उछालने के ही कार्य में मशगूल हैं। आज जन प्रतिनिधियों का आचरण सामंतशाही जैसा हो गया है जो जनता को केवल चुनाव के समय ही भगवान समझती हैं बाद में तो केवल दो कौड़ी का आदमी, चुनाव जीतने के बाद और मंत्री बनने पर तो अपने को खुदा से कम नहीं समझते।
संसद के अंदर उनका आचरण ऐसा कि अच्छे-भले मनुष्य को शर्म आ जाये, हंगामा इतना कि मछली बाजार भी फीका लगे, संसद में यदा-कदा ही जाते है, गए भी तो पैसा लेकर प्रश्न पूछते है आदि-आदि। मैं चौदहवीं लोकसभा के अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी की तारीफ करना चाहूंगी कि जिन्होंने बड़ी बेबाकी से सांसदों को श्राप दिया - ‘‘भगवान करे आप सब चुनाव हार जाएं आपका आचरण निंदनीय है, आप जनता के धन में से एक पैसे के भी हकदार नहीं है, जनता सब देख रही है वह चुनावों में सबको सबक सिखाएगी।’’ मुझे अध्यक्ष के रूप में इस कुर्सी पर बैठकर शर्म आ रही है आदि-आदि, चटर्जी में नैतिकता भी थी और भलामनसाहत भी थी लेकिन बेशर्मों का क्या? फिर मशगूल है बेशर्मी में।
यदि हम अपने दिमाग पर जोर डाले तो देखते है कि लोक लेखा समिति के अध्यक्ष डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि राजा ने 250 करोड़ रुपये की रिश्वत ली थी जिससे देश को 1.75 लाख करोड़ का नुकसान हुआ। इसी रिपोर्ट में यह भी बताया कि राजा के साथ कनिमोझी ने भी 300 करोड़ की रिश्वत ली थी और कहा कि राजा जितने दोषी हैं उतने ही दोषी पी.चिदंबरम भी है, जब यह रिपोर्ट मीडिया में आई तब शुरू में केन्द्र सरकार ने अपनी आदत के अनुसार राजा एवं कनिमोझी दोनों को ही प्रथम दृष्टया बेकसूर ही बताया था, लेकिन अंत हम सभी के सामने है। वहीं पी. चिदंबरम देश में बढ़ते आतंकवाद और इसको दिये गये वक्तव्य से पुनः सुर्खियों में आ गए हैं, पी. चिदंबरम कह रहे हैं कि अब आतंकी देश के भीतर ही बन रहे हैं। उन्हें ढूंढना न केवल मुश्किल है बल्कि नामुमकिन भी है।
उनका यह वक्तव्य अपने आप में बहुत ही खतरनाक है विशेषतः आतंकियों के हौंसले बुलंद करने एवं बढ़ावा देने के लिए। यह सत्य है कि आतंकवादियों की न तो कोई जात होती है न कोई धर्म। आगे चिदंबरम यह भी कहते नहीं थकते कि हमारी खुफिया एजेंसी अमेरिका और चीन के जैसी नहीं है। ऐसा वक्तव्य दे, देशवासियों के सामने केवल अपने नाकारा प्रणाली का ही सबूत दिया है। इस बेचारगी मात्र से वे अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते। भारत की जनता से जब जी भर कर टैक्स लिया जाता है तो सुरक्षा दिलाने का जिम्मा भी देश के गृहमंत्री का ही बनता है, लेकिन वे अपनी जिम्मेदारियों से छिटक एक कदम आगे बढ़ अब जनता से ही अपील कर रहे है कि आतंकियों का अब जनता ही पता लगाए उन्हें चिन्हित भी करे। इसी के साथ राजनीतिक दलों को भी जिम्मेदारी से पेश आने की नसीहत देते हुए कहा है कि वोट की राजनीति के खातिर सच्चाई को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने से भी बचना चाहिए। आतंकवाद की विषबेल को यदि आज नहीं रोका गया तो हमारा कल विपदाओं भरा होगा।
लेखा समिति के बाद आज जब कैग की रिपोर्ट पेश हो चुकी है अब दूध पानी का पानी साफ हो गया है, राष्ट्र मंडल खेल के मुख्य सूत्रधार कलमाड़ी ने जेल जाने के पहले से कहते आ रहे थे कि मैं अकेला इस भ्रष्टाचार के खेल में नही हूं और भी है? रिपोर्ट के बाद भ्रष्टाचार की लूट में सी.ए.जी. ने दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पर स्ट्रीट लाईट लगाने के ठेकों से गमलों में लगे हुए पौधों के साथ लगभग एक दर्जन अरोपों का दोषी माना है। जिसमें भारत की गरीब जनता का 900 करोड़ रुपया बर्बाद कर गोलमाल किया गया है। कलमाड़ी की तरह ही प्रथम दृष्टया सरकार शीला दीक्षित को भी अभी से बचाने में जुट गई है आने वाले समय में उनका क्या होगा, यह तो भविष्य के गर्त में ही छिपा है। बरहाल राजनीतिक दलों ने शीला के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। कलमाड़ी की नियुक्ति को ले पी.एम.ओ. कार्यालय भी पहले से ही संदेह के घेरे में है।
यहां कुछ यक्ष प्रश्न उठ रहे हैं मसलन हमारे राजनेता नैतिक तौर पर इतने गिर चुके हैं कि जनता मोर्चा निकाले? क्या हम वाकई बेशर्म हो गए हैं? हममे कोई लोकलाज नहीं बची? जब हमने किसी भी सरकारी रिपोर्ट को न मानने की कसम खा रखी है तो फिर लेखा समिति नियंत्रक और महालेखा परीक्षक सी.ए.जी. जैसी संस्थाओं का औचित्य ही क्या रह जाता है? दूसरा पहले ये आम धारणा थी कि महिलाएं भ्रष्टाचार नहीं करती लेकिन अब ये धारणा भी टूट रही है। तीसरा कोर्ट ने कलमाड़ी पर कोर्ट का समय बर्बाद करने के लिये एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया हैं। ये उन सांसदों एवं जन प्रतिनिधियों के लिये सबक है जो नियमित रूप से संसद में नहीं जाते या बहुत कम जाते हैं, लेकिन जब किसी घपले या मर्डर में फंसते हैं तो संसद जाने की बात करते हैं। चौथा सभी राजनीतिक पार्टियों का नैतिकता को ले अपने अपने भीतर में झांकने की आवश्यकता है।

Do Took-Indian Army under Conspiracy
झंडा ऊँचा रहे हमारा

Anna's Fast: Venue Does Matter
Kalmadi-Makan Exposed

Subramanian Swamy - Controversy
दो टूक - लोकपाल बिल

Interval 05-08-2011
UID- A DANGEROUS CARD

थल सेनाध्यक्ष के खिलाफ सरकार की साजिश

भारतीय सेना पर लिखने से हमेशा बचा जाता रहा है, क्योंकि सेना ही है जो देश की रक्षा दुश्मनों से करती है, पर पिछले कुछ सालों में सेना में भ्रष्टाचार बढ़ा है. अक्सर खाने के सामान की शिकायतें आती हैं कि वहां घटिया राशन सप्लाई हुआ है. लोग पकड़े भी जाते हैं, सज़ाएं भी होती हैं. सेना में खरीद फरोख्त में लंबा कमीशन चलता है, जिसके अब कई उदाहरण सामने आ चुके हैं. ज़्यादातर मामलों के पीछे राजनेताओं का छुपा हाथ दिखाई दिया है. अब जो बात हम सामने रखने जा रहे हैं, वह एक गठजोड़ की ताक़त बताती है कि कैसे सच्चाई को झूठ और ताक़त के बल पर दबाया या झुठलाया जा रहा है. इसका शिकार कौन होने वाला है? भारत का सेनाध्यक्ष. जब हमें छिटपुट खबरें मिलीं, जिन्हें भारत के रक्षा मंत्रालय या रक्षामंत्री ने लीक कराया था. तब हमारा माथा ठनका. खबरें थीं भारत के सेनाध्यक्ष की जन्मतिथि के बारे में कि आखिर असली जन्मतिथि है क्या. खबरों में यह बताने की कोशिश की गई कि भारत के थल सेनाध्यक्ष झूठ बोल रहे हैं और उनकी जन्मतिथि वह नहीं है, जो वह बता रहे हैं. भारत के थल सेनाध्यक्ष सच्चाई पर प्रकाश डालने के लिए जब उपलब्ध नहीं हुए तो हमने इस सारे मामले की जांच करने का निर्णय लिया. हमारी जांच में बहुत ही चौंकाने वाले तथ्य सामने आए, जो बताते हैं कि कैसे न्याय का गला सरकार घोंट रही है और सुप्रीम कोर्ट की दी हुई नज़ीरों को अनदेखा कर रही है.
भारत के इतिहास में पहली बार इतना गंभीर होने जा रहा है, जिसका असर भारत के लोकतंत्र पर पड़ने वाला है. आज़ाद भारत की पहली सरकार मनमोहन सिंह की सरकार होगी, जिसे शायद इतिहास की सबसे गंभीर शर्मिंदगी झेलनी पड़ेगी. भारतीय सेना का सर्वोच्च अधिकारी, भारतीय थलसेना का सेनाध्यक्ष न्याय के लिए रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री का चेहरा देख रहा है, पर उन्होंने न्याय देने के सवाल पर अपनी आंखें बंद कर ली हैं. आंखें तो सरकार ने बहुत सी समस्याओं से फेर ली हैं, पर भारतीय सेना से आंखें फेरना और सेना के ईमानदार और सच्चे अधिकारी को न केवल झूठा साबित करना, बल्कि अपमानित करना बताता है कि सरकार कितनी ज़्यादा असंवेदनशील और अकर्मण्य हो गई है.
क्या है मामला
श्री कमल टावरी रिटायर्ड आईएएस हैं और एक एनजीओ नेशनल थिंकर्स फोरम के उपाध्यक्ष हैं. उन्होंने जब अ़खबारों में भारतीय थल सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि पर विवाद उठते देखा तो 28 अक्टूबर, 2010 को एक आरटीआई डाली, जिसे उन्होंने सीपीआईओ, इंडियन आर्मी, इंटीग्रेटेड हेड क्वार्टर ऑफ मिनिस्ट्री ऑफ डिफेंस (आर्मी), रूम नं. जी- 6, डी-1 विंग, सेना भवन, न्यू देहली को भेजा. इस दरख्वास्त में, जिसे उन्होंने राइट टू इंफॉर्मेशन एक्ट 2005 के सेक्शन 6 के तहत भेजा, जानकारी मांगी कि मौजूदा थल सेनाध्यक्ष जनरल विजय कुमार सिंह और उन लेफ्टिनेंट जनरलों की आयु बताई जाए, जिन्हें जनरल वी के सिंह के रिटायर होने की स्थिति में थल सेनाध्यक्ष बनाया जा सकता है. इसके जवाब में 23 फरवरी, 2011 को सेना के आरटीआई सेल, एडीजीएई, जी-6, डी-1 विंग, सेना भवन, गेट नं. 4, आईएचक्यू ऑफ एमओडी (आर्मी), न्यू देहली ने कमल टावरी को एक खत और एक सूची भेजी, जिसमें सेना के छह सर्वोच्च अ़फसरों की जन्मतिथियां थीं. इसके अनुसार सेना के एजी ब्रांच और हाईस्कूल सर्टिफिकेट के हिसाब से इन सबकी जन्मतिथियों की जानकारी है. इस सूची के अनुसार थल सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह, पीवीएसएम, एवीएसएम, वाईएसएम, एडीसी की जन्मतिथि 10 मई, 1951 है. लेफ्टिनेंट जनरल प्रदीप खन्ना, पीवीएसएम, एवीएसएम, वीएसएम, एडीसी की जन्मतिथि 7 फरवरी, 1951 है. लेफ्टिनेंट जनरल ए के लांबा, पीवीएसएम, एवीएसएम की जन्मतिथि 16 अक्टूबर, 1951 है. लेफ्टिनेंट जनरल शंकर घोष एवीएसएम, एसएम की जन्मतिथि 22 मई, 1952 है. लेफ्टिनेंट जनरल वी के अहलूवालिया एवीएसएम, वाईएसएम, वीएसएम की जन्मतिथि 2 फरवरी, 1952 है और लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह, यूवाईएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम की जन्मतिथि 19 जुलाई, 1952 है. इस खत के बाद डीडीजी आरटीआई एंड सीपीआईसी ब्रिगेडियर ए के त्यागी ने फिर कमल टावरी को एक खत भेजा, जिसमें 23 फरवरी, 2011 के खत से जुड़ी अतिरिक्त जानकारी दी और लिखा कि राजस्थान बोर्ड द्वारा दिए गए हाईस्कूल सर्टिफिकेट के अनुसार जन्मतिथि 10 मई, 1951 है, जिसे एलए (डिफेंस) की सलाह अनुसार करेक्शन के लिए भेज दिया गया है. इस तरह के सबूतों को, सेना के काग़ज़ों को हम आपके सामने रखें, उससे पहले आपको पूरी कहानी बताते हैं, जिसे जनरल वी के सिंह के गांव वालों ने बताया है.
आ़खिर, भारत सरकार (रक्षा मंत्री और उनका मंत्रालय प्रत्यक्ष तौर पर, प्रधानमंत्री और उनका कार्यालय अप्रत्यक्ष तौर पर) सेना के सर्वोच्च अधिकारी को अपमानित करने पर क्यों तुली हुई है? क्या इसके पीछे देश का ज़मीन माफिया और दुनिया का हथियार माफिया है? जनरल वी के सिंह ईमानदार अफसर माने जाते हैं और आज तक उनके ऊपर कोई आरोप नहीं लगा है. देश के तीन भूतपूर्व सर्वोच्च न्यायाधीशों ने भी इस मामले पर विस्तार से अलग-अलग विचार किया. सभी ने कहा कि जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि 10 मई, 1951 मानी जाएगी.
हाईस्कूल बनाम एनडीए
जनरल वी के सिंह का जन्म 10 मई, 1951 को आज के हरियाणा के फफोड़ा गांव में हुआ. उन दिनों हरियाणा और पंजाब एक ही थे. यह गांव भिवानी ज़िले में आता है. बिड़ला स्कूल पिलानी में पढ़ते हुए जनरल वी के सिंह ने सेना में जाना तय किया. यह 1965 का साल था और उनकी उम्र 15 साल थी. एनडीए का फॉर्म भरा जा रहा था. कई लड़के एक साथ बैठकर फॉर्म भर रहे थे. एक शिक्षक उन्हें फॉर्म भरवाने में मदद कर रहा था. यह फॉर्म यूपीएससी का था. शिक्षक के कहने पर या किसी साथी विद्यार्थी के कहने पर ग़लती से उन्होंने उस फॉर्म में जन्मतिथि 10 मई, 1950 भर दी. फॉर्म चला गया और महत्वपूर्ण बात यह कि उस समय तक राजस्थान बोर्ड का हाईस्कूल का सर्टिफिकेट आया नहीं था. यह फॉर्म प्रोविजनल होता है. जब सर्टिफिकेट आया हाईस्कूल का तो उसे यूपीएससी भेजा गया. यूपीएससी ने 1966 में एक ग़लती पकड़ी और वी के सिंह से पूछा कि आपने फॉर्म में जन्मतिथि 10 मई, 1950 लिखी है, जबकि आपके हाईस्कूल सर्टिफिकेट में यह 10 मई, 1951 दर्ज है. वी के सिंह ने क्लेरीफिकेशन भेज दिया कि हाईस्कूल के सर्टिफिकेट में लिखी जन्मतिथि 10 मई, 1951 ही सही है, फॉर्म में भूलवश या मानवीय ग़लती से 10 मई, 1950 लिखा गया है. वी के सिंह के इस उत्तर को यूपीएससी ने स्वीकार किया तथा उन्हें इसकी रसीद भी भेज दी. यूपीएससी का नियम है कि यदि उसने इसे स्वीकार न किया होता तो वी के सिंह का फॉर्म ही रिजेक्ट हो जाता. वी के सिंह  एनडीए में चुने गए और 1970 में उन्होंने पासआउट किया. आईएमए ने उन्हें आई कार्ड दिया, जिस पर जन्मतिथि 10 मई, 1951 लिखी. आर्मी में वी के सिंह की ज़िंदगी शुरू हो गई.
जनरल वी के सिंह खुद चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ बन गए. वह चाहते तो अपनी जन्मतिथि स्वयं ठीक करा सकते थे, क्योंकि दोनों ब्रांच उन्हीं के अधीन थीं, लेकिन उन्होंने ईमानदारी और नैतिकता की राह पकड़ी. उन्होंने रक्षा मंत्री को सारा मामला बताया. रक्षा मंत्री ने कहा कि मैं इस मामले को अटॉर्नी जनरल को भेजना चाहता हूं. जनरल ने कहा, आपकी मर्ज़ी. रक्षा मंत्री ने एजी से दो बार राय मांगी. दूसरी राय में एजी ने लिखा है कि जनरल वी के सिंह ने अपने सारे प्रमोशन 10 मई, 1950 बताकर लिए हैं, जबकि बोर्ड के सारे प्रमोशनों की फाइलें, जिन पर प्रधानमंत्री के दस्त़खत हैं, रक्षा मंत्री के दस्त़खत हैं, उन सब में जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि 10 मई, 1951 लिखी है.
कब खुला मामला
अब आया 2006. मेजर जनरल वी के सिंह को एक खत मिला, तत्कालीन मिलिट्री सेक्रेट्री रिचर्ड खरे के हस्ताक्षरित, जिसमें रिचर्ड खरे ने लिखा था कि हम लोगों ने पाया है कि आपकी जन्मतिथि दो तरह की लिखी गई है. एडजुटेंट जनरल ब्रांच और मिलिट्री सेक्रेट्री ब्रांच के रिकॉर्ड में अंतर है. एडजुटेंट जनरल ब्रांच, जो कि कस्टोडियन ब्रांच है, में लिखा है 10 मई, 1951 और मिलिट्री सेक्रेट्री ब्रांच में 10 मई, 1950 मेंटेन हो रहा है. जनरल वी के सिंह ने क्लेरीफिकेशन दिया कि उनकी जन्मतिथि 10 मई, 1951 है, न कि 10 मई, 1950. क्लेरीफिकेशन के साथ वी के सिंह ने हाईस्कूल सर्टिफिकेट भी भेज दिया. मिलिट्री सेक्रेट्री ब्रांच ने लिखा कि वह एडजुटेंट जनरल ब्रांच से क्लेरीफिकेशन लेंगे. एडजुटेंट जनरल ब्रांच ने सारे काग़ज़ों को खंगाल कर मिलिट्री सेक्रेट्री ब्रांच को लिखा कि जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि 10 मई, 1951 है.
जनरल जे जे सिंह का खेल
जनरल जे जे सिंह उस समय चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. फाइल करेक्शन के लिए उनके पास आई. उन्होंने ऑर्डर निकाला कि पॉलिसी में है कि अगर आप जन्मतिथि में परिवर्तन चाहते हैं तो दो साल के भीतर ही यह हो सकता है, अब यह चेंज नहीं हो सकता. यहां जनरल जे जे सिंह ने एक खेल किया. उन्होंने आंकड़ा लगाया कि जन्मतिथि 10 मई, 1950 हो या 10 मई, 1951, जनरल वी के सिंह चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ बनेंगे ही. पर यदि जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि 10 मई, 1951 रह जाती है तो ले.जनरल बिक्रम सिंह चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ नहीं बन पाएंगे. संयोग की बात है कि जनरल जे जे सिंह सिख बिरादरी से आते हैं और ले. जनरल बिक्रम सिंह भी सिख बिरादरी से हैं. उन दिनों भी प्रधानमंत्री सिख समाज के सरदार मनमोहन सिंह थे, आज भी प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह हैं. जनरल जे जे सिंह ने बिक्रम सिंह को देश का सेनाध्यक्ष बनाने की बिसात 2006 में बिछा दी. जनरल जे जे सिंह के खत के जवाब में जनरल वी के सिंह ने लिखा कि जन्मतिथि में चेंज का सवाल कहां से आया, यह तो आपका एकतऱफा नज़रिया है. मैं तो करेक्शन मांग रहा हूं, जो अब तक हो जाना चाहिए था. मैं चेंज मांग ही नहीं रहा, अत: यह पॉलिसी उन पर लागू नहीं होती.
जनरल जे जे सिंह उस समय चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. तब उन्होंने एक खेल किया. उन्होंने आंकड़ा लगाया कि जन्मतिथि 10 मई, 1950 हो या 10 मई, 1951, जनरल वी के सिंह चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ बनेंगे ही. पर यदि जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि 10 मई, 1951 रह जाती है तो ले. जनरल बिक्रम सिंह चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ नहीं बन पाएंगे. संयोग की बात है कि जनरल जे जे सिंह सिख बिरादरी से आते हैं और ले. जनरल बिक्रम सिंह भी सिख बिरादरी से हैं. उन दिनों भी प्रधानमंत्री सिख समाज के सरदार मनमोहन सिंह थे, आज भी प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह हैं. जनरल जे जे सिंह ने ले. जनरल बिक्रम सिंह को देश का थल सेनाध्यक्ष बनाने की बिसात 2006 में बिछा दी.
जनरल दीपक कपूर का दबाव
जनरल जे जे सिंह के बाद जनरल दीपक कपूर सेनाध्यक्ष बने. जनरल दीपक कपूर ने जनरल वी के सिंह को बुलाया और कहा कि सारी फाइलें, प्रमोशन वाली रुक गई हैं आपकी चिठ्ठी से और मिनिस्ट्री बार-बार कह रही है कि जनरल वी के सिंह का मामला निबटाओ. मैंने सारे काग़ज़ात देखे हैं, मैं इन्हें लॉ मिनिस्ट्री को भेजना चाहता हूं. मैं तुम्हारा चीफ हूं, मैं तुमसे कह रहा हूं कि फाइलों के मूवमेंट को मत रोको. एमएस में बाधा मत बनो, वह जो कह रहा है उसे स्वीकार कर लो. जनरल वी के सिंह ने जनरल कपूर से कहा कि मैं कैसे स्वीकार कर लूं या फिर क्या मेरे स्वीकार करने से मेरी जन्मतिथि बदल जाएगी? मेरा जन्म निर्धारित है, क्या आप हाईस्कूल सर्टिफिकेट को भी बदल देंगे? जनरल दीपक कपूर ने फिर दबाव डाला और कहा कि बात मान लो और फाइलें मूव होने दो. जनरल वी के सिंह ने कहा कि मैं कैसे मान लूं, आप वेरीफाई करा लें, उसके बाद करेक्शन कर दें. यही कंडीशनल एक्सेप्टेंस वी के सिंह ने जनरल दीपक कपूर को दे दी. हमारी जांच बताती है कि जैसे ही जनरल वी के सिंह दिल्ली से अंबाला पहुंचे, उस समय शाम के चार बजे थे, उन्हें आर्मी हेडक्वार्टर से सिग्नल मिला कि जैसा चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ बताते हैं, वैसा सुबह 10 बजे तक आप नहीं भेजेंगे तो आपके खिला़फ एक्शन बीईंग एप्रोप्रिएट लिया जाएगा. आर्मी का डिफेंस सर्विस रूल कहता है कि अगर आपके सीनियर ने कोई ऑर्डर, भले ही मौखिक हो, जारी कर दिया है तो आप उससे पूछ नहीं सकते. अगर आप उस आदेश का पालन नहीं करते हैं तो आपको कम से कम तीन महीने का कठोर कारावास का दंड मिलेगा. जनरल वी के सिंह ने इस सिग्नल के जवाब में लिखा, एज डायरेक्टेड बाइ चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ, आई एक्सेप्ट. जनरल वी के सिंह का अंबाला से कलकत्ता ट्रांसफर हो गया. उन्होंने फिर चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ को खत लिखा कि आपने मुझे बुलाया, आपने मुझसे कहा कि आप मेरे मामले को क़ानून मंत्रालय भेज रहे हैं. आप पर चीफ के नाते मेरा पूरा विश्वास है, लेकिन आपने वायदे के हिसाब से जो कहा था, वह नहीं किया, एथिकली और लॉजिकली यह सही नहीं है. चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ ने वह खत रख लिया, जवाब नहीं दिया. जब जनरल वी के सिंह मिलने गए तो जनरल दीपक कपूर ने कहा कि मैं कुछ नहीं करूंगा. तुम चीफ बनना तो खुद ठीक करवा लेना अपनी जन्मतिथि. जनरल वी के सिंह चुपचाप वापस चले आए.
रक्षामंत्री और एजी का रवैया
अब जनरल वी के सिंह खुद चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ बन गए. वह चाहते तो अपनी जन्मतिथि स्वयं ठीक करा सकते थे, क्योंकि दोनों ब्रांच उन्हीं के अधीन थीं, लेकिन उन्होंने ईमानदारी और नैतिकता की राह पकड़ी. उन्होंने रक्षा मंत्री को सारा मामला बताया और कहा कि उनका यह मामला पेंडिंग है. रक्षा मंत्री ने कहा कि मुझे पता है, मैं दिखवाता हूं. रक्षा मंत्री ने इस मामले को टाला और रक्षा मंत्रालय ने इसे प्रेस को लीक करना शुरू किया. अ़खबारों में पढ़ तीन लोगों ने सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांग ली. इन तीन में एक रिटायर्ड आईएएस तथा सेना के भूतपूर्व ऑफिसर कमल टावरी भी थे, जिन्हें सेना की छीछालेदर मंत्रालय द्वारा करना पसंद नहीं आया. उन्होंने आरटीआई में पूछा कि जनरल वी के सिंह और उनके नीचे के पांच जनरलों की डेट ऑफ बर्थ क्या है तथा क्या जनरल वी के सिंह की डेट ऑफ बर्थ में एनोमलीज़ है? क्या उस पर क़ानून मंत्रालय से कोई राय लेकर सुधार किया गया है?
सरकार ने पहला जवाब दिया कि जनरल वी के सिंह की डेट ऑफ बर्थ 10 मई, 1951 है. दूसरा जवाब दिया कि कोई एनोमली नहीं है. एक छोटी भूल एक विभाग में हो गई है. क़ानून मंत्रालय से मशविरा कर लिया गया है और उसकी सलाहानुसार उस विभाग को निर्देशित कर दिया गया है कि वह भूल सुधारे और 10 मई, 1951 मेंटेन करे.
यह जवाब अ़खबारों में आ गया. इसे पढ़ रक्षा मंत्री ने चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ को बुलाया तथा पूछा कि क्या होना चाहिए. चीफ ने उनसे कहा कि जब क़ानून मंत्रालय की राय आ गई है तो उसे मानना चाहिए. इस पर रक्षा मंत्री ने कहा कि मैं इस मामले को अटॉर्नी जनरल को भेजना चाहता हूं. जनरल ने कहा, आपकी मर्ज़ी.
एजी को वे फाइलें भेजी गईं, जिन्हें मिलिट्री सेक्रेट्री ब्रांच मेंटेन कर रही थी. उसमें भी पूरे तथ्य नहीं भेजे गए. इसका एक सबूत हमारे हाथ लगा है. दरअसल रक्षा मंत्री ने एजी से दो बार राय मांगी. दूसरी राय में एजी ने लिखा है कि जनरल वी के सिंह ने अपने सारे प्रमोशन 10 मई, 1950 बताकर लिए हैं, जबकि बोर्ड के सारे प्रमोशनों की फाइलें, जिन पर प्रधानमंत्री के दस्त़खत हैं, रक्षा मंत्री के दस्त़खत हैं, उन सब में जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि 10 मई, 1951 लिखी है. एजी की पहली राय पर रक्षा मंत्री ने जनरल को बुलाया तथा कहा कि राय आ गई है, आप इसे मान लीजिए. जनरल ने कहा कि मैं नहीं मानूंगा. उन्होंने रक्षा मंत्री को एक रिप्रजेंटेशन दिया, जिसमें सारे तथ्य दिए गए तथा अनुरोध किया गया कि विचार करें. रक्षा मंत्री ने उसे एजी को भेज दिया, जिस पर एजी ने पहला जवाब दोहरा दिया. क्या रक्षा मंत्री के इस रु़ख के पीछे आईएएस मिलिट्री सेक्रेट्री की ग़लतियां छुपाने का कारण है या प्रधानमंत्री के कार्यालय का कोई इशारा है. अब हम अपनी तलाश में मिले कुछ और तथ्य बताते हैं. इंदर कुमार, लीगल एडवाइजर (डिफेंस) ने 14 फरवरी, 2011 को एडी. सेक्रेट्री आर एल कोहली की जानकारी में एक नोट लिखा, जिसका नंबर है-मिनिस्ट्री ऑफ लॉ एंड जस्टिस, लीगल एडवाइज़ (डिफेंस)
Dy. No. 0486/XI/LA(DEF)
12918/RTI/MP 6-(A).
इस नोट के कुछ मुख्य अंश हैं:-
  • क्या जब यूपीएससी में फॉर्म भरा था, तब की डेट ऑफ बर्थ 10 मई, 1950 सही है या राजस्थान बोर्ड द्वारा 1966 में जारी Xth बोर्ड सर्टिफिकेट में दी गई डेट ऑफ बर्थ 10 मई, 1951 सही है. (इस नोट को हम पूरा छाप रहे हैं)
इस नोट के प्वाइंट नंबर पांच में लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट ने स्टेट ऑफ एम पी बनाम मोहनलाल शर्मा (2002) 7  SCC 719 के फैसले में कहा है, दैट डेट ऑफ बर्थ रिकॉर्डेड इन मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट, हेल्ड, कैरीज ए ग्रेटर, एविडेंशियल वैल्यू, देन, दैट कंटेंड इन ए सर्टिफिकेट गिवेन बाइ द रिटायर्ड हेडमास्टर ऑफ द स्कूल आर इन द हारोस्कोप. इस नोट के आ़खिरी यानी सातवें नंबर पर लिखा है, इन व्यू ऑफ द फैक्ट्‌स एंड सरकमस्टांसेज मेंशंड एबव वी आर ऑफ द व्यू दैट, द डीओबी रिकॉर्डेड इन हाईस्कूल सर्टिफिकेट इज हैविंग ए ग्रेटर एविडेंसरी वैल्यू. द पीआईओ मे एकार्डिंगली गिव ए रेप्लाई टू द एप्लीकेंट होल्डिंग द डीओबी एज 10.05.1951. इतना ही नहीं, एडजुटेंट जनरल ब्रांच के मेजर जनरल सतीश नायर, एडीजी एमपी ने फरवरी 2011 में एक नोट में लिखा, बिफोर रेप्लाई टू द आरटीआई क्वेरी टू द एप्लीकेंट, इज गिवेन, एडवाइज ऑफ द एल ए (डिफेंस) इज रिक्वेस्टेड आन द एबव फैक्ट्‌स एंड सरकमस्टांसेज आन द इश्यू व्हेदर द डेट ऑफ बर्थ ऑफ द COAS मे बी इनफार्मड्‌ टू द सैड एप्लीकेंट एज 10th मे 1951.
  • एन अर्ली एक्शन इज रिक्वेस्टेड प्लीज.
भूतपूर्व सर्वोच्च न्यायाधीश क्या कहते हैं
ये सारे नोट, सरकार द्वारा दिया गया जवाब बताता है कि सच्चाई क्या है और जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि 10 मई, 1951 है. तब क्यों भारत सरकार (रक्षा मंत्री और उनका मंत्रालय प्रत्यक्ष तौर पर, प्रधानमंत्री और उनका कार्यालय अप्रत्यक्ष तौर पर) सेना के सर्वोच्च अधिकारी को अपमानित करने पर तुली है? क्या इसके पीछे देश का ज़मीन मा़फिया और दुनिया का हथियार माफिया है? जनरल वी के सिंह ईमानदार अ़फसर माने जाते हैं और आज तक उनके ऊपर कोई आरोप नहीं लगा है, सिवाय इस आरोप के कि उनकी जन्मतिथि के रूप में सेना और रक्षा मंत्रालय के रिकॉर्ड में अलग-अलग तिथियां दर्ज हैं. देश के तीन भूतपूर्व सर्वोच्च न्यायाधीशों ने भी इस मामले पर विस्तार से अलग-अलग विचार किया. उन्होंने विस्तार से अपनी राय लिखी. जस्टिस जे एस वर्मा ने अपने नतीजे में लिखा, आई देयर फोर फेल टू एप्रीसिएट हाउ द एमएस ब्रांच ऑर एनी वन एल्स कैन रेज़ ए कंट्रोवर्सी इन दिस बिहाफ ऑर क्वीश्चन द करेक्टनेस ऑफ द डीओबी ऑफ जनरल वी के सिंह रिकॉर्डेड थ्रू आउट बाई द एजी ब्रांच एज 10th मे 1951. दूसरे भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश जी वी पटनायक ने भी विस्तार से अपनी राय लिखते हुए आखिर में कहा है, इट ट्रांसपायर्स दैट द मिनिस्ट्री ऑफ लॉ व्हिच द एप्रोप्रिएट अथॉरिटी फॉर गिविंग लीगल ओपीनियन टू अदर डिपार्टमेंट्‌स, हैज आलरेडी ओपेंड टू दिस इफेक्ट दैट डेट ऑफ बर्थ ऑफ द क्वेरिस्ट कैन ओनली बी 10th मे 1951. आई डू नॉट नो ऑन व्हाट बेसिस द लर्नड एटार्नी जनरल हैज गिवेन कंट्रैरी ओपीनियन. तीसरे जस्टिस वी एन खरे ने कहा है, इन व्यू ऑफ द एबव इट इज माई ओपीनियन दैट एट दिस स्टेज, द करेक्ट कोर्स ऑफ एक्शन वुड बी टू एक्सेप्ट द डीओबी ऑफ द क्वेरिस्ट एज फाउंड इन द रिकॉर्ड‌स ऑफ द एजी ब्रांच टू बी 10th मे 1951 एंड मेक नेसेसरी चेंजेज व्हेयर रिक्वायर्ड. चौथे रिटायर्ड मुख्य न्यायाधीश जस्टिस अहमदी ने मुझसे कहा कि वे तीनों भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीशों की राय से सहमत हैं तथा अ़खबारों में आई एटार्नी जनरल की राय को ग़लत मानते हैं. उन्हें एजी की आधिकारिक राय की प्रति का इंतज़ार है.
समाधान क्या है
अटॉर्नी जनरल वाहनवती टूजी स्पेक्ट्रम मामले में पहले ही संदेह के घेरे में हैं. क़ानून मंत्रालय द्वारा दी गई राय से अलग राय देने के लिए उन पर अवश्य दबाव डाला गया होगा. यह एक षड्‌यंत्र है, जो राजनीतिज्ञ और कुछ आईएएस मिलकर कर रहे हैं. इसका सामना जनरल वी के सिंह करेंगे या नहीं, पता नहीं, पर उन्हें अपने को सच्चा साबित करने के लिए राष्ट्रपति के पास जाना चाहिए, जहां राष्ट्रपति इस मामले में सर्वोच्च न्यायाधीश की राय मांग सकती हैं. मुख्य न्यायाधीश स्वयं भी इस पर कार्रवाई कर सकते हैं, धारा 143 इसकी आज्ञा देती है या आ़खिर में जनरल वी के सिंह खुद सुप्रीम कोर्ट जा सकते हैं, ताकि अपने चरित्र पर लगे दाग़ को धो सकें.
सरकार की गड़बड़ी जैसे हमने खोली है, इससे ज़्यादा भयानक और गंभीर रूप में सुप्रीम कोर्ट में खुलेगी. सरकार को मुख्य न्यायाधीश जस्टिस कपाड़िया से डरना चाहिए, जिनकी निष्पक्षता का डंका सारे देश में बज रहा है. सुप्रीम कोर्ट का फैसला अगर जनरल वी के सिंह के पक्ष में आ गया तो रक्षा मंत्री या प्रधानमंत्री के सामने त्यागपत्र देने के अलावा कोई रास्ता बचेगा क्या? मौजूदा सरकार जानबूझ कर प्याज़ भी खाएगी और जूते भी.

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6 Responses to “थल सेनाध्यक्ष के खिलाफ सरकार की साजिश

  • Kuldeep Sehdev says:
जनरल साहिब को और आप को भी सरकार का धन्यवादी होना चाहिए की इतनी भयंकर गलती पर भी उनका कोट मार्शल नहीं किया या इसकी जांच सी .बी.आई .के हवाले नहीं कर दी अन्यथा ये भी आचार्य बालाक्रिशन जी की तरह सुबह से लेकर शाम तक सी.बी.आई.के सरकारी कुत्तों के आगे अपराधिओं की तरह पेशिआन भुगतते रहते और हमारा बिकाऊ मीडिया प्लांटेड समाचारों द्वारा इनके चरित्र की खूब छीछालेदर करता.
  • rajesh says:
में अवतार सिंह जी से १०० फीसदी सहमत हूँ
  • avatar singh says:
march, 2007
–this unelectable (and three times defeated in democratic elections ) so called prime minieter manmohan singh is a blot on the face of democratic india. he is there aonbly because the anglosaxon powers wanted him there instead of sonia gandhi(who wouldnot have been that maelelable to english speaking world-master race as this stooge manmohan is). this manmohan singh has been very unpopular in democratic election losing even when there was a wave in favour of congress. he has not even let pujab select his d=congress pqarty for assembley election in 2007 so mucn unpol;ular he is. but he is very popular amnost the anglosaxon media and govert. therefore he is popular amonst the english media and all the angloamerican stooges theat you find in any thirld world aka allwi,Ahmed Chalabi(of iraqi traitor fame) mubarak types.
manmohan singh is a yeltsin of india-very pouilar amonst enemies of india exactly because he has sold india cheap to thse amngloamericn interests.
  • Kuldeep Sehdev says:
अफसोस की बात है कि सारा का सारा भ्रश्ट मीडिया लोगो को भ्रमित करने मे जी जान से जुटा है.लोकपाल बिल जनता के सामने आया ही कब था? ये तो सीधे सीधे सत्ता के दलालो की चरागाह (हमारी प्रभुता सम्पन्न महान सन्सद)मे पहुन्च गया है जहा देश के जानेमाने चोर, ठग,बेइमान,मक्कार, झूठे,धोखेबाज़,भ्रश्ट और गद्दार विराजमान है.
  • swatantra says:
कैसे दर्द बयां करें ………जिनको सजा मिलनी चाहिए वो तो खुले घूम रहे हैं ……..हरयाणवी में कहावत है ………..बंदर की बंदरी पर तो पार बसावे नहीं , झाड़ बोझडडा का खोह !हिम्मत है तो जो युवा अपना झूठा सर्तिफिकैते देकर आज भी युवा कांग्रेस में जमे बेठे हैं ,उनका कुछ उखाड़ो तो जाने
  • avatar singh says:
manmoahn singh is NOT a spinessless puppet -he is the REAL EVIL man who has presided over selling of india to americans because he is an american agent ,
indian are fool in thinking that he is innocent and sonia is evil itis the other way round-he is more foreiners agent than sonia-if he could get nuclear deal pssed with bribery and in hurry in parlaiment then what stops him from bringing lokpal bill through presidentail decree?
========================================================================================
Wikileaks show US diplomats effectively united with their local counterparts against a common enemy: the people – whether the people take the form of anti-war activists, jurors or voters in an upcoming election.manmohan singh and monteck ahulawali a are such traitors in India.
sadly bjp is corrupt aswell and traitor, it was bjp and manmoahsn ingh who were isntrumental in removing natwar singh from foreing msintery and keralite msinter aiyayr from oil minstry because they awere acting in Indian interest in foreingn and oil minstry which was not liked by americans so americans ordered manmoahnss ignh and his bjp minions to spread rumour in order to throw those msinters out.. Ayaar and natwar were

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