रविवार, 28 अगस्त 2011

अन्ना क्रांति द्वार पर आई है



उठो जवानो तुम्‍हें जगाने क्रांति द्वार पर आई है

एक कहावत है, प्याज़ भी खाया और जूते भी खाए. ज़्यादातर लोग इस कहावत को जानते तो हैं, लेकिन बहुत कम लोगों को ही पता है कि इसके पीछे की कहानी क्या है. एक बार किसी अपराधी को बादशाह के सामने पेश किया गया. बादशाह ने सज़ा सुनाई कि ग़लती करने वाला या तो सौ प्याज़ खाए या सौ जूते. सज़ा चुनने का अवसर उसने ग़लती करने वाले को दिया. ग़लती करने वाले शख्स ने सोचा कि प्याज़ खाना ज़्यादा आसान है, इसलिए उसने सौ प्याज़ खाने की सज़ा चुनी. उसने जैसे ही दस प्याज़ खाए, वैसे ही उसे लगा कि जूते खाना आसान है तो उसने कहा कि उसे जूते मारे जाएं. दस जूते खाते ही उसे लगा कि प्याज़ खाना आसान है, उसने फिर प्याज़ खाने की सजा चुनी. दस प्याज़ खाने के बाद उसने फिर कहा कि उसे जूते मारे जाएं. फैसला न कर पाने की वजह से उसने सौ प्याज़ भी खाए और सौ जूते भी. यहीं से इस कहावत का प्रचलन प्रारंभ हुआ. आज कांग्रेस पार्टी के लिए यह कहा जा सकता है कि अन्ना के मामले में उसने सौ जूते भी खाए और सौ प्याज़ भी.
अन्ना हज़ारे का आंदोलन आज़ाद भारत का सबसे बड़ा आंदोलन बन गया है. अन्ना को देश के कोने-कोने से जनता का समर्थन मिल रहा है. आज सरकार के साथ-साथ देश के सभी राजनीतिक दलों के सामने यह आंदोलन सबसे बड़ी चुनौती है. समस्या यह है कि हर राजनीतिक दल अन्ना के आंदोलन को समझने में भूल कर रहा है. यह आंदोलन स़िर्फ जन लोकपाल का आंदोलन नहीं है. यह आंदोलन पिछले 20 सालों से चल रही नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के खिला़फ है. यह 20 सालों की सरकारी योजनाओं और नीतियों के खिला़फ जनता का फैसला है. सरकार विकास के आंकड़े दिखाकर भ्रम फैलाने को सुशासन कहना पसंद करती है. हक़ीक़त यह है कि शहर रहने के लायक नहीं रहे. कुछ मेट्रो शहरों को छोड़कर देश में कहीं पर 24 घंटे बिजली नहीं है. दिल्ली जैसे शहर में सा़फ पानी नहीं है. छोटे शहरों में ढंग की चिकित्सा सुविधाएं नहीं हैं. नौजवानों का भविष्य अंधकारमय है. आम आदमी का जीवन नारकीय हो गया है. किसी भी अस्पताल में जाइए, वहां डॉक्टर गिद्धों की तरह मरीज़ों से पैसे लूटते मिल जाएंगे. सरकारी दफ्तरों में बिना रिश्वत के कोई काम नहीं होता है. सरकार ने पूरे देश को एक ऐसे भंवर में डाल दिया है, जहां जीवित रहना ही एक अभिशाप बन गया है. लोग पूरी व्यवस्था से तंग आ चुके हैं. लोगों में नाराज़गी है कि सरकार उनकी परेशानी और दु:ख-दर्द को खत्म करना तो दूर, उसे समझने का भी प्रयास नहीं कर रही है. यही अन्ना के आंदोलन के समर्थन का आधार है. इस आंदोलन में शहरी मध्य वर्ग बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहा है. इसलिए कुछ लोगों को लगता है कि अन्ना का आंदोलन इंटरनेट के  ज़रिए फैला हुआ आंदोलन है. देश चलाने वालों, सभी राजनीतिक दलों और उद्योगपतियों को सचेत हो जाना चाहिए, क्योंकि अगर इस आंदोलन में ग्रामीण और आदिवासी शामिल हो गए तो यह मान लीजिए कि इस देश का प्रजातंत्र खतरे में आ जाएगा. जो लोग यह समझ रहे हैं कि यह आंदोलन स़िर्फ जन लोकपाल के लिए है तो यह उनकी एक बड़ी भूल होगी. जन लोकपाल इस जनांदोलन का स़िर्फ तात्कालिक कारण है. और वह भी इसलिए, क्योंकि कांग्रेस पार्टी के नेताओं और मंत्रियों ने लोकपाल के मामले में राजनीतिक फैसले न करके प्रशासनिक फैसले लेने का जुर्म किया है.
जे पी आंदोलन के दौरान चंद्रशेखर ने इंदिरा गांधी से कहा था कि जे पी के खिला़फ तीखे बयान देने से पार्टी को बचना चाहिए. फक़ीर और राजा के बीच जब भी जंग होती है तो जीत हमेशा फक़ीर की होती है. इसलिए फक़ीरों और संतों से नज़रें झुका कर बात करनी चाहिए. यह सुनकर इंदिरा गांधी तिलमिला उठी थीं. आज देश में वैसा ही माहौल है. दु:ख इस बात का है कि कांग्रेस पार्टी में आज कोई चंद्रशेखर नहीं है.
कांग्रेस पार्टी की सबसे बड़ी ग़लती यह है कि लोकपाल क़ानून बनाने के मामले में उसने टीम अन्ना के साथ धोखा किया, देश की जनता के सामने झूठ बोला. जब जंतर-मंतर पर अन्ना का आंदोलन हुआ और एक संयुक्त समिति बनाई गई तो सरकार ने यह वायदा किया कि दोनों पक्ष मिलकर लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करेंगे. दोनों पक्षों के बीच कई बार बातचीत हुई, लेकिन जब सरकार ने लोकपाल बिल तैयार किया तो उसने टीम अन्ना के सुझावों को दरकिनार कर दिया. इसका हल निकल सकता था, अगर प्रधानमंत्री ने इसमें मध्यस्थता की होती. सिविल सोसायटी के सुझावों को लोकपाल में शामिल करके संसद में उन पर अलग वोटिंग कराई जा सकती थी. अगर ऐसा होता तो अन्ना भूख हड़ताल पर नहीं जाते, लेकिन सरकार ने कड़ा रु़ख अपनाया. सरकार की तऱफ से अन्ना की टीम को सा़फ-सा़फ यह कह दिया गया कि आपको जो भी सुझाव देना है, स्टैंडिंग कमेटी के सामने दे सकते हैं. सत्ता का नशा कहिए या फिर क़ानून के ज्ञाता होने का अहंकार, कपिल सिब्बल ने जब भी अपनी ज़ुबान खोली, वह एक तानाशाह नज़र आए. डॉ. मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी, कपिल सिब्बल, चिदंबरम और मनीष तिवारी बोलते चले गए, अन्ना हजारे को जनता का समर्थन बढ़ता चला गया. सर्वोच्च कोटि का वकील होने और जनता का प्रतिनिधि होने में एक अंतर होता है. प्रजातंत्र में राजनीतिक सवालों का जवाब संविधान और सीआरपीसी की धाराओं से नहीं दिया जाता है. इससे टीवी चैनलों पर होने वाली बहस को तो जीता जा सकता है, लेकिन यह जनता के दिलों पर राज करने का रास्ता बिल्कुल नहीं बन सकता. मौजूदा सरकार में वकील से मंत्री बने लोगों को यही बात समझ में नहीं आई. कांग्रेस के प्रवक्ता और मंत्री बहस करते गए और लोगों की नाराज़गी बढ़ती चली गई.
टीम अन्ना के पास अनशन करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा. वैसे भी अन्ना पहले ही यह कह चुके थे कि अगर सरकार ने जन लोकपाल बिल को संसद में पेश नहीं किया तो वह अनशन करेंगे. यहां सरकार से एक और चूक हुई. सरकार ने लोकपाल का सारा श्रेय खुद लेने के चक्कर में विपक्ष को इस मामले से दूर ही रखा. यही वजह है कि इस मुद्दे पर कोई एक मत नहीं बन सका. जब अन्ना ने अनशन का ऐलान किया, तब लोकपाल के मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी की बैठक हुई. कई बड़े नेता इसमें शामिल थे. इस बैठक में रक्षा मंत्री ए के एंटोनी, सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी और ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने जनता की भावनाओं को महत्व देने की बात कही थी, लेकिन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी, गृह मंत्री चिदंबरम ने इसे नकार दिया. कपिल सिब्बल ने क़ानूनी पक्ष रखा था. इस बैठक में शामिल हुए कांग्रेस पार्टी के नेता जनता के मूड को नहीं समझ सके. सरकार ने अन्ना का विरोध करने का फैसला ले लिया. किसी भी नज़रिए से इसे राजनीतिक फैसला नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि जनमत अन्ना के साथ था. कांग्रेस ने खुद अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली.
इस आंदोलन में जो लोग शामिल हो रहे हैं, वे धन्य हैं. जो लोग अब तक शामिल नहीं हुए हैं, उनके पास मौक़ा है. अन्ना का आंदोलन लोकपाल तक ही सीमित नहीं रहने वाला है. आने वाले दिनों में न्यायिक व्यवस्था में सुधार के लिए आंदोलन होगा, चुनाव सुधार के लिए आंदोलन होगा. घर में बैठने का व़क्त खत्म हो गया है. हमें व्यवस्था परिवर्तन के लिए सड़कों पर उतरना होगा.
कांग्रेस पार्टी के एक प्रवक्ता हैं मनीष तिवारी. पहले उनके इस बयान को देखिए. कांग्रेस की एक स्पेशल प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने कहा, हम किशन बाबूराव उ़र्फ अन्ना हज़ारे से पूछना चाहते हैं कि तुम किस मुंह से भ्रष्टाचार के खिला़फ अनशन की बात करते हो. ऊपर से नीचे तक तुम भ्रष्टाचार में खुद लिप्त हो. इसके अलावा मनीष तिवारी ने अन्ना को एक दिमाग़ी तौर पर बीमार प्राणी बताया. मनीष तिवारी के इसी बयान ने उन्हें विलेन बना दिया. देश की जनता के साथ-साथ कांग्रेस पार्टी के कई सांसद मनीष तिवारी से नाराज़ हैं. मनीष तिवारी जनता की नज़रों से तो गिरे ही, अब पार्टी भी उनका साथ नहीं दे रही है. उन्हें मीडिया से दूर रहने की हिदायत दी गई है. वह उदास हैं, क्योंकि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने उनका साथ छोड़ दिया. जबकि हक़ीक़त यह है कि अन्ना हज़ारे पर हमला करने का फैसला मनीष तिवारी ने नहीं, बल्कि पार्टी के नेताओं ने लिया था. अन्ना ने जब जय प्रकाश पार्क में धारा 144 लागू होने के बावजूद अनशन करने का अपना फैसला सुनाया तो पत्रकारों ने कांग्रेस के प्रवक्ताओं से इस पर प्रतिक्रिया मांगी. पार्टी की ओर से जवाब यह मिला कि सारे सवालों का जवाब रविवार को स्पेशल प्रेस कांफ्रेंस में दिया जाएगा. आम तौर पर कांग्रेस पार्टी रविवार को प्रेस कांफ्रेंस नहीं करती है. मनीष तिवारी ने अन्ना को एक ही सांस में फासीवादी, माओवादी और अराजकतावादी क़रार दिया. मनीष तिवारी ने जिस लहज़े में अन्ना पर हमला बोला, जैसी उनकी बॉडी लैंग्वेज थी, उससे कांग्रेस पार्टी की छवि सत्ता के नशे में चूर एक अहंकारी पार्टी की बन गई. 14 अगस्त यानी रविवार की स्पेशल प्रेस कांफ्रेंस कांग्रेस पार्टी के गले की फांस बन गई.
इस ग़लती के बावजूद कांग्रेस संभल सकती थी, लेकिन वह अपने ग़लत फैसले को सही साबित करने के चक्कर में एक के बाद एक ग़लतियां करती चली गई. पहले अन्ना पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया गया. कांग्रेस को लगा कि जिस तरह उसने बाबा रामदेव पर आरोप लगाकर उनके आंदोलन की हवा निकाल दी थी, वही हाल अन्ना का होगा, लेकिन यह रणनीति नाकाम हो गई. कांग्रेस पार्टी यह नहीं समझ सकी कि अन्ना बाबा रामदेव नहीं हैं. बाबा रामदेव की तरह उनके पास हज़ारों करोड़ का साम्राज्य नहीं है. अन्ना सचमुच में फकीर हैं, एक संत हैं. इस प्रेस कांफ्रेंस के बाद कांग्रेस को संभलने का दूसरा मौक़ा 15 अगस्त को मिला, जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने लाल किले से देश को संबोधित किया. पूरे देश की नज़रें मनमोहन सिंह पर टिकी हुई थीं कि वह अपने भाषण में अन्ना के बारे में क्या कहने वाले हैं. भ्रष्टाचार और महंगाई पर प्रधानमंत्री से जो उम्मीद थी, वह उससे ठीक उलटा बोले. सरकार ने संभलने के बजाय एक और ग़लती कर दी. मनमोहन सिंह ने लाल किले से अन्ना पर हमला कर दिया. उन्होंने कहा कि उनके पास जादू की छड़ी नहीं है कि वह एक झटके में भ्रष्टाचार और महंगाई को खत्म कर देंगे. ऐसे बयान देकर सरकार जनता में ग़लत संदेश देती है. प्रधानमंत्री के पास अगर जादू की छड़ी नहीं है तो क्या आंखें भी नहीं हैं? उनकी कैबिनेट का एक साथी एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ रुपये का घोटाला कर देता है और उन्हें मालूम नहीं पड़ता है. जबकि अब पता चल रहा है कि इस घोटाले के दौरान ए राजा की तऱफ से हर फैसले के बारे में प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिखकर बताया जा रहा था. क्या प्रधानमंत्री यह दलील दे सकते हैं कि उन्हें मालूम नहीं है. अगर प्रधानमंत्री को यह मालूम न हो कि किस मंत्रालय में क्या चल रहा है तो इसका मतलब यह हुआ कि दिल्ली में सरकारी तंत्र नष्ट हो चुका है. क्या हर मंत्रालय के संयुक्त सचिव का प्रधानमंत्री कार्यालय से रिश्ता खत्म हो गया है? मनमोहन सिंह को देश की जनता को यह बताना चाहिए कि आ़खिर प्रधानमंत्री कार्यालय का काम क्या है. यही वजह है कि देश की जनता ने मनमोहन सिंह के भाषण को नकार दिया. लोगों की नाराज़गी बढ़ गई. अन्ना ने जनता के मूड को समझा और उन्होंने पहला मास्टर स्ट्रोक 15 अगस्त की शाम को खेला, जब वह अचानक राजघाट पहुंच गए. पूरा देश अन्ना को देख रहा था. छुट्टी का दिन था, लोग टीवी के सामने बैठे रहे. थोड़ी ही देर में वहां भीड़ जुटने लगी. अन्ना को कुछ कहने की भी ज़रूरत नहीं पड़ी. बस उठने से पहले उनकी आंखों से कुछ आंसू गिरे और पूरे देश में अन्ना की लहर दौड़ गई.
15 अगस्त की रात शांतिपूर्वक बीत गई. 16 अगस्त की सुबह अन्ना हजारे को राजधानी दिल्ली के मयूर विहार में हिरासत में ले लिया गया. यहां धारा 144 नहीं लगी थी. पुलिस ने अन्ना और उनके साथियों से यह कहा कि आपको वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के पास जाना है. जब वे वहां पहुंचे तो उनसे मोबाइल फोन और बाकी सामान निकाल कर बाहर रखने को कहा गया और फिर उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश कर दिया गया. पुलिस ने गिरफ्तारी की वजह यह बताई कि अन्ना और उनके साथियों से दिल्ली में क़ानून व्यवस्था बिगड़ने का खतरा है. सरकार ने अन्ना की गिरफ्तारी को दिल्ली पुलिस की कार्रवाई बताकर अपनी गर्दन बचाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन सरकार की इस दलील पर किसी ने विश्वास नहीं किया. लोगों को लगा कि अन्ना के साथ अन्याय हुआ है. देश भर में लोग सड़कों पर आने लगे. कई कंपनियों ने अपने दफ्तर बंद कर दिए. एक के बाद एक कई संगठन इस आंदोलन से जुड़ते चले गए. बड़ी संख्या में बच्चे-बूढ़े, छात्र-नौजवान और महिलाएं राजधानी दिल्ली की सड़कों पर निकल पड़े.
यहां अन्ना ने फिर एक मास्टर स्ट्रोक खेला. उन्होंने प्रशासनिक कार्रवाई का जवाब एक राजनीतिक चाल से दिया और जेल के अंदर ही अनशन शुरू कर दिया. एक तऱफ संसद में सरकार को विपक्ष की मार पड़ रही थी, दूसरी तरफ देश की जनता सड़क पर खड़ी थी. संसद में विपक्ष प्रधानमंत्री का बयान चाह रहा था, लेकिन सरकार ने उसकी मांग को ठुकरा दिया. चारों तऱफ से घिरने के बावजूद सरकार का रवैया नरम नहीं हुआ. संसद नहीं चली, लेकिन अगले दिन तक सरकार पर इतना दबाव पड़ गया कि कांग्रेस के कोर ग्रुप ने यह फैसला लिया कि प्रधानमंत्री बयान देंगे, लेकिन प्रधानमंत्री से एक भयंकर भूल हो गई. संसद में उन्होंने यह कह दिया कि अन्ना ने जो रास्ता चुना है, वह लोकतंत्र के  लिए नुक़सानदेह है. प्रधानमंत्री के बयान ने आग में घी का काम किया. जनता का सरकार से विश्वास ही उठ गया. आंदोलन और तेज़ हो गया. कांग्रेस के नेता अलग-अलग जगहों पर ग़ैर ज़िम्मेदाराना बयान देते नज़र आए. राशिद अलवी ने यह कहकर चौंका दिया कि अन्ना के आंदोलन के पीछे विदेशी ताक़तों का हाथ है. पूरी घटना देखने के बाद ऐसा लगता है कि कांग्रेस पार्टी में कोई राजनीतिक फैसले लेने वाला है भी या नहीं.
जन समर्थन देखकर केंद्र सरकार सहम गई. आंदोलन के तेवर को देखते हुए अन्ना की रिहाई का आदेश दे दिया गया. इसके बाद अन्ना ने सबसे बड़ा फैसला तब लिया, जब उन्होंने कहा कि वह अपनी शर्तों पर जेल से बाहर जाएंगे. वह जेल के अंदर अनशन करते रहे. जेल के बाहर जनता उनके समर्थन में सड़कों पर उतरती रही. अन्ना का आंदोलन जंगल की आग की तरह देश के हर छोटे-बड़े शहरों में फैल गया. अन्ना लोकपाल बिल के संसद में पास होने के लिए आंदोलन कर रहे हैं. सरकार और टीम अन्ना के बीच बातचीत होती रही. पहले दिल्ली पुलिस ने उन्हें अनशन के लिए तीन दिनों का व़क्त दिया था, बाद में पुलिस ने अन्ना को अनशन के लिए रामलीला मैदान और 15 दिनों का व़क्त दे दिया. अन्ना जब जेल से बाहर निकले तो जनसैलाब उमड़ पड़ा. पांच-पांच किलोमीटर तक पैर रखने की जगह नहीं थी. अन्ना की एक झलक पाने के लिए लोग बारिश में भीग कर इंतजार करते रहे. रामलीला मैदान पहुंचते ही उन्होंने ऐलान कर दिया कि जब तक सरकार जन लोकपाल बिल को संसद में पास नहीं कराती है, तब तक यह आंदोलन चलता रहेगा, अनशन जारी रहेगा.
1950 में ब्रिटेन के डब्ल्यू एच मोरिस-जोंस ने आधुनिकता, पारंपरिकता और संतों या सेंटली इडियम को भारतीय राजनीति के तीन महत्वपूर्ण आधार बताए थे. भारत के संविधान, संसद एवं न्यायालय को आधुनिक और राजनीति में जाति एवं संप्रदाय को पारंपरिकता से जोड़ा था, लेकिन मोरिस-जोंस ने संतों की भूमिका को अनोखा बताया. उन्होंने भारत में त्याग करने वाले संतों की विशेष भूमिका बताई थी. इस श्रेणी में महात्मा गांधी, विनोबा भावे, राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण को गिना जा सकता है, जिनका जीवन त्याग और संघर्ष की कहानी है. ये नेता लोगों के दिलों में इसलिए बसे, क्योंकि लोगों को लगता था कि ये तो संत हैं. अन्ना हजारे की सादगी और उदारता लोगों के दिलों में बस गई. लोगों को अन्ना में गांधी दिखते हैं, विनोबा दिखते हैं, जेपी दिखाई देते हैं. कांग्रेस पार्टी के नेताओं और सरकार के मंत्रियों को अन्ना में एक भ्रष्टाचारी, फासीवादी, माओवादी और अराजकतावादी नज़र आया.
राजनेताओं और देश की जनता के नज़रिए में अगर इतना बड़ा फर्क़ जहां होगा, वहां तो आंदोलन होना निश्चित है. इसके बावजूद अगर सत्ता का अहंकार राजनेताओं के सिर पर चढ़कर बोलेगा तो क्रांति होने से कोई नहीं रोक सकता है.
यह बात कहनी पड़ेगी कि संसद के बाहर पूरे देश में जो नज़ारा था, उससे संसद का औचित्य ही खत्म हो गया, क्योंकि प्रजातंत्र में तो सांसद जनता के प्रतिनिधि मात्र हैं. जब जनता खुद ही सड़क पर उतर कर जन लोकपाल की मांग करने लगे तो उसे प्रतिनिधियों की ज़रूरत नहीं पड़ती है. कई लोग यह मानते हैं कि इतिहास खुद को दोहराता है. जब सत्तर के दशक में जयप्रकाश नारायण का आंदोलन शुरू हुआ, तब भी हालात यही थे. जयप्रकाश नारायण पर भी कांग्रेस पार्टी विदेशी एजेंट और अराजकतावादी होने का आरोप लगा रही थी. पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर उस व़क्त कांग्रेस में थे. वह इंदिरा गांधी से मिले और कहा कि जयप्रकाश नारायण के खिला़फ इस तरह के बयान से कांग्रेस को बचना चाहिए. इंदिरा गांधी तिलमिला उठीं, लेकिन चंद्रशेखर ने दो टूक कहा कि फकीर और राजा के बीच जब भी जंग होती है तो जीत हमेशा फकीर की होती है. इसलिए फकीर और संतों से नज़रें झुका कर बात करनी चाहिए. आज देश में वैसा ही माहौल है. दु:ख इस बात का है कि कांग्रेस पार्टी में आज कोई चंद्रशेखर नहीं है. देश की जनता को अन्ना को धन्यवाद देना चाहिए, क्योंकि उन्होंने परेशानी से जूझ रहे देश को जगाने का काम किया है. इस आंदोलन में जो लोग शामिल हो रहे हैं, वे धन्य हैं. जो लोग अब तक शामिल नहीं हुए हैं, उनके पास मौक़ा है. अन्ना का आंदोलन लोकपाल तक ही सीमित नहीं रहने वाला है. आने वाले दिनों में न्यायिक व्यवस्था में सुधार के लिए आंदोलन होगा, चुनाव सुधार के लिए आंदोलन होगा. घर में बैठने का व़क्त खत्म हो गया है. हमें व्यवस्था परिवर्तन के लिए सड़कों पर उतरना होगा. आज राम गोपाल दीक्षित की एक कविता याद आती है:-
कौन चलेगा आज देश से भ्रष्टाचार मिटाने को,
बर्बरता से लोहा लेने, सत्ता से टकराने को,
आज देख लें कौन रचाता मौत के संग सगाई है,
उठो जवानो, तुम्हें जगाने क्रांति द्वार पर आई है.

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