एमसीडी को टुकड़े-टुकड़े होने से अब कोई नहीं बचा सकता। एमसीडी को बचाने के लिए कोई बड़ा आधार भी नहीं था। आधार होता तो कांग्रेस और बीजेपी अपने चुनाव घोषणा पत्र में एमसीडी को बांटने का लुभावना वादा न करते। वादा पूरा करने का वक्त आया, तो दोनों ही पार्टियां एकमत नहीं हो सकीं। बीजेपी के वरिष्ठ नेता विजय कुमार मल्होत्रा ने पहले इसका समर्थन किया और बाद में पार्टी का रुख देखकर उन्हें विभाजन करने वाली कमिटी से ही इस्तीफा देना पड़ा। कांग्रेस में हर मुद्दे की तरह यह भी शक्ति परीक्षण का सबब बन गया। कौन हारा, कौन जीता - इस सवाल का जवाब दोनों ही पक्षों के पास नहीं है।
शीला दीक्षित चाहती थीं कि एमसीडी के पांच हिस्से हो जाएं और पार्षदों की संख्या वर्तमान 272 से बढ़ाकर 408 कर दी जाए यानी हर विधानसभा क्षेत्र में एमसीडी के 6 वॉर्ड हों। इस समय 4 वॉर्ड हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जयप्रकाश अग्रवाल का ऐतराज इतना भर था कि इस फैसले में पार्टी की कोई सलाह नहीं ली गई, लेकिन एमसीडी में कांग्रेसी नेता चाहते थे कि न विभाजन हो और न ही पार्षदों की संख्या बढ़ाई जाए। हाईकमान के दरबार में तमाम तर्क-वितर्क हुए और फॉर्म्युला बना - एमसीडी तीन हिस्सों में बांट दी जाए लेकिन पार्षदों की संख्या न बढ़े। दोनों गुट इस फॉर्म्युले पर अमल के लिए मजबूर हैं, लेकिन सीएम की पुरानी मंशा पूरी होती दिखाई दे रही है। एमसीडी को दिल्ली सरकार के तहत लाने का उनका सपना अब साकार हो रहा है, क्योंकि अब अफसरशाही पूरी तरह दिल्ली सरकार के प्रति ही जवाबदेह हो जाएगी।
एमसीडी के विभाजन को आधा-अधूरा फैसला कहा जाना चाहिए। हालांकि अभी कई सवालों का जवाब आना बाकी है। तीनों एमसीडी की आमदनी-खर्चे का ब्यौरा बनना बाकी है। यह भी तय होना है कि कर्मचारियों का बंटवारा कैसे होगा और तीनों के बीच तालमेल के सूत्र भी बनेंगे या नहीं। इस फैसले को आधा-अधूरा फैसला इसलिए कहा जा सकता है कि अगर पांच टुकड़े होते तो वह बेहतर फैसला कहा जाता। अब यमुनापार की ईस्ट कार्पोरेशन में तो 64 सदस्य हैं और 26 लाख वोटर लेकिन नॉर्थ और साउथ में 106-106 सदस्य हैं और 41-41 लाख वोटर। अगर भविष्य की तरफ देखें तो यमुनापार के और विस्तार की संभावनाएं नहीं बचीं। इसीलिए तो लोगों को नोएडा, वैशाली, वसुंधरा, इंदिरापुरम और साहिबाबाद का रुख करना पड़ा। अगर हम नॉर्थ और साउथ की तरफ देखें तो वहां अभी भी संभावनाएं बची हुई हैं। नरेला से बवाना और महरौली से नजफगढ़ तक विस्तार की गुंजाइश बाकी है। जाहिर है कि आने वाले सालों में वहां दबाव बढ़ेगा। इससे तीनों कार्पोरेशन में बैलेंस और बिगड़ जाएगा। इसी तरह वॉर्ड न बढ़ाना अगले चुनावों में ही कई पुरुष पार्षदों की पीड़ा का कारण बनेगा। इस समय 272 में से 92 वॉर्ड महिलाओं के लिए रिजर्व हैं।
विभाजन के साथ सरकार ने महिला सीटों की संख्या भी 50 फीसदी कर दी है यानी अगले साल होने वाले चुनावों में 136 वॉर्ड महिलाओं के हिस्से में चले जाएंगे। इस तरह वर्तमान 44 पुरुष पार्षदों की सीटें भी महिलाओं के लिए रिजर्व होंगी। अगर सीटों की संख्या 408 हो जाती तो पुरुषों के लिए भी 204 वॉर्ड खुले होते यानी वर्तमान 180 में 24 और का इजाफा। कांग्रेस हाईकमान वॉर्ड बढ़ाने में इसलिए हिचक गई कि उसे छोटी पाटिर्यों से हार का डर है। पिछले एमसीडी चुनावों में वॉर्डों की संख्या 134 से बढ़ाकार 272 की गई तो फायदा बीएसपी को पहुंचा जिसके 17 पार्षद जीतकर आ गए और कांग्रेस के लिए वह बड़ा खतरा बन गई। छोटे-छोटे वॉर्ड होने पर पार्टी की छवि उम्मीदवार की छवि के सामने छोटी हो जाती है। लोग 'अपने उम्मीदवार' को वोट दे डालते हैं। इस आशंका ने छोटे वॉर्डों के लाभ से जनता को महरूम कर दिया।
बहरहाल, अगर आज का हिसाब लगाया जाए तो तीनों ही कार्पोरेशन में बीजेपी जीती हुई दिखाई दे रही है, जबकि विभाजन के हिमायतियों का दावा है कि अगले साल होने वाले चुनावों में कांग्रेस को इसका फायदा होगा। यह केवल उनका अनुमान है या फिर जमीनी सच्चाई, फैसला तो जनता को ही करना है।
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