बुधवार, 3 अगस्त 2011

नई दिल्‍लीः सौ बरस का सफर




किसी भी भारतीय को यह जानकर हैरानी होगी कि आज की नई दिल्ली किसी परंपरा के अनुसार अथवा स्वतंत्र भारत के राजनीतिक नेताओं की वजह से नहीं, बल्कि एक सौ साल (1911) पहले आयोजित तीसरे दिल्ली दरबार में ब्रिटेन के राजा किंग जॉर्ज पंचम की घोषणा के कारण देश की राजधानी बनी. इस दिल्ली दरबार की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना ब्रिटिश भारत की राजधानी के कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरण की घोषणा थी. 12 दिसंबर, 1911 में ब्रिटेन के राजा की घोषणा से पहले इस ऐतिहासिक तथ्य से अधिक लोग वाक़ि़फ नहीं थे. किंग जॉर्ज पंचम के राज्यारोहण का उत्सव मनाने और उन्हें भारत का सम्राट स्वीकारने के लिए दिल्ली में आयोजित दरबार में ब्रिटिश भारत के शासक, भारतीय राजकुमार, सामंत, सैनिक और अभिजात्य वर्ग के लोग बड़ी संख्या में एकत्र हुए थे. दरबार के अंतिम चरण में एक अचरज भरी घोषणा की गई. तत्कालीन वायसराय लॉर्ड हॉर्डिंग ने राजा के राज्यारोहण के अवसर पर प्रदत्त उपाधियों और भेंटों की घोषणा के बाद एक दस्तावेज़ सौंपा. अंग्रेज राजा ने वक्तव्य पढ़ते हुए राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने, पूर्व और पश्चिम बंगाल को दोबारा एक करने सहित अन्य प्रशासनिक परिवर्तनों की घोषणा की. दिल्ली वालों के लिए यह एक हैरतअंगेज फैसला था, जबकि इस घोषणा ने एक ही झटके में एक सूबे के शहर को एक साम्राज्य की राजधानी में बदल दिया, जबकि 1772 से ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता थी.
एक तरह से नई दिल्ली का अर्थ भारतीय उपमहाद्वीप के लिए एक साम्राज्यवादी राजधानी और एक सदी के लिए अंग्रेज हुक्मरानों के सपनों का साकार होना था, हालांकि इसके पूरा होने में 20 साल का व़क्त लगा. यह भी तब, जबकि राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के साथ ही नई दिल्ली बनाने का फैसला लिया गया. इस तरह नई राजधानी केवल 16 साल के लिए अपनी भूमिका निभा सकी. नई दिल्ली में निर्माण कार्य 1931 में पूरा हुआ, जब सरकार इस नए शहर में स्थानांतरित हो गई. 13 फरवरी, 1931 को तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन ने नई दिल्ली का औपचारिक उद्घाटन किया.
लॉर्ड हॉर्डिंग लिखते हैं कि इस घोषणा से उपस्थित लोगों में आश्चर्यजनक रूप से गहरा मौन पसर गया और चंद सेकंड बाद करतल ध्वनि गूंज उठी. ऐसा होना स्वाभाविक था. अपने समृद्ध प्राचीन इतिहास के बावजूद जिस समय दिल्ली को राजधानी बनने का मौक़ा दिया गया, उस समय वह किसी भी लिहाज़ से एक प्रांतीय शहर से ज़्यादा नहीं थी. लॉर्ड कर्जन के बंगाल विभाजन की घोषणा (1903) के बाद से ही इसका विरोध कर रहे और एकीकरण की मांग को लेकर आंदोलनरत बंगालियों की तरह दिल्ली वालों ने कोई मांग नहीं रखी और न कोई आंदोलन छेड़ा. किंग जॉर्ज पंचम की घोषणा से हर कोई हैरान था, क्योंकि यह पूरी तरह गोपनीय रखी गई थी. उनकी भारत यात्रा के छह महीने पहले ही ब्रिटिश भारत की राजधानी के स्थानांतरण का निर्णय हो चुका था. इंग्लैंड और भारत में दर्जन भर व्यक्ति ही इससे वाक़ि़फ थे. राजा की घोषणा के समानांतर बांटे गए गजट और समाचार पत्रकों को भी पूरी गोपनीयता के साथ छापा गया. दिल्ली में एक प्रेस शिविर लगाया गया, जहां सचिवों, मुद्रकों और उनके नौकरों के लिए रहने की व्यवस्था की गई और वहीं प्रिटिंग मशीनें लगाई गईं. दरबार से पहले इन शिविरों में कर्मचारियों को लगा दिया गया और दरबार की वास्तविक तिथि से पहले इस स्थान की सुरक्षा को चाक चौबंद रखने के लिए सैनिकों-पुलिस की टुकड़ियां तैनात कर दी गई थीं. सात दिसंबर, 1911 को ब्रिटेन के राजा और रानी (जार्ज पंचम और क्वीन मेरी) दिल्ली पहुंचे. शाही दंपत्ति को एक जुलूस की शक्ल में शहर की गलियों से होते हुए विशेष रूप से लगाए गए शिविरों के शहर (किंग्सवे कैंप) में गाजे-बाजे के साथ पहुंचाया गया. उत्तर-पश्चिम दिल्ली में विशेष रूप से निर्मित एक सोपान मंडप में आयोजित दरबार में चार हज़ार ख़ास मेहमानों के बैठने की व्यवस्था की गई और एक वृहद अर्द्ध आकार के टीले से क़रीब 35,000 सैनिक और 70,000 दर्शक दरबार के चश्मदीद गवाह बने. दरबार के दौरान लॉर्ड हॉर्डिंग सहित काउंसिल के सदस्यों, भारतीय राजाओं, राजकुमारों सहित कइयों ने अंग्रेज राजा की कदमबोसी की और हाथ को चूमा. 25 गुणा 30 मील के घेरे में फैले क्षेत्र में 223 तंबू लगाए गए, जहां 60 मील की नई सड़कें बनाई गईं और क़रीब 30 मील लंबी रेलवे लाइन के लिए 24 स्टेशन.
अहमद अली के उपन्यास-टि्‌वलाइट इन दिल्ली (1940) के अनुसार, वायसराय लॉर्ड हार्डिंग ने व्यक्तिगत रूप से दरबार की तैयारियों का जायज़ा लिया. कुल 40 वर्ग किलोमीटर में फैले 16 वर्ग किलोमीटर के घेरे में पूरे भारत से क़रीब 84,000 यूरोपियों और भारतीयों को 233 शिविरों में ठहराया गया. 1911 में बसंत के मौसम के बाद क़रीब 20,000 मज़दूरों ने दिन-रात एक करके इन शिविरों को तैयार किया. इस दौरान 64 किलोमीटर की सड़कों का निर्माण हुआ, शिविरों में पानी की व्यवस्था के लिए 80 किलोमीटर की पानी की मुख्य लाइन और 48 किलोमीटर की पाइप लाइनें डाली गईं. मेहमानों के खानपान के लिए दुधारू पशुओं, सब्जी और मांस का इंतज़ाम किया गया. दिल्ली दरबार का आयोजन एक जनवरी, 1912 को होना था, पर इस दिन मुहर्रम होने की वजह इसे कुछ दिन पहले करने का फैसला किया गया.
1877 में लॉर्ड लिटन ने महारानी विक्टोरिया की कैसरे हिंद के रूप में उद्घोषणा के अवसर पर पहले दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया था. महारानी विक्टोरिया के उत्तराधिकारी के रूप में एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण के अवसर पर 1903 में लॉर्ड कर्जन के समय दूसरे दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया. यह दरबार 29 दिसंबर से अगले साल दस दिनों तक चला था. इसके एक भाग का आयोजन लालकिले के दीवान-ए-आम में किया गया था. दूसरे दिल्ली दरबार पर खर्च हुए 1,80,000 पाउंड की तुलना में तीसरे दिल्ली दरबार पर 6,60,000 पाउंड की राशि ख़र्च हुई. किनेमाकलर ने तीसरे दिल्ली दरबार की फिल्म-विद अवर किंग एंड क्वीन थ्रू इंडिया (1912 में सबसे पहली बार प्रदर्शित) बनाई. यह फिल्म से अधिक एक मल्टी मीडिया शो थी. किंग जॉर्ज पंचम और क्वीन मेरी ने किंग्सवे कैंप में आयोजित दिल्ली दरबार में 15 दिसंबर, 1911 को नई दिल्ली शहर की नींव के पत्थर रखे. बाद में इन पत्थरों को नॉर्थ और साउथ ब्लॉक के पास स्थानांतरित कर दिया गया और 31 जुलाई, 1915 को अलग-अलग कक्षों में रख दिया गया. स्थापना दिवस समारोह में लॉर्ड हार्डिंग ने कहा कि दिल्ली के इर्द-गिर्द अनेक राजधानियों का उद्घाटन हुआ है, पर किसी से भी भविष्य में अधिक स्थायित्व अथवा अधिक ख़ुशहाली की संभावना नहीं दिखती. रॉबर्ट ग्रांट इर्विंगंस की पुस्तक-इंडियन समर में हार्डिंग कहते हैं, हमें मुगल सम्राटों के उत्तराधिकारी के रूप में सत्ता के प्राचीन केंद्र में अपने नए शहर को बसाना चाहिए. वायसराय ने बतौर राजधानी दिल्ली के चयन का ख़ुलासा करते हुए कहा कि यह परिवर्तन भारत की जनता की सोच को प्रभावित करेगा. तत्कालीन भारत सरकार के गृह सदस्य सर जॉन जेनकिंस ने कहा कि यह एक साहसिक राजनयिक क़दम होगा, जिससे चहुंओर संतुष्टि के साथ भारत के इतिहास में एक नए अध्याय की शुरुआत होगी. अंग्रेजों की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के दो प्रमुख कारण थे. पहला, बंगाली अंग्रेजों के लिए काफी समस्याएं पैदा कर रहे थे और अंग्रेजों की नज़र में कलकत्ता राजनीतिक आतंकवाद का केंद्र बन चुका था. वहां लोग रायटर्स बिल्डिंग पर बम फेंक रहे थे, जबकि दिल्ली में ऐसे हालात नहीं थे. लॉर्ड कर्जन के शासनकाल के बाद अंग्रेज बंगालियों को उपद्रवकारी और राजनीतिक रूप से सजग मानने लगे थे. दूसरा, यह एक तरह से मुसलमानों को ख़ुश करने का भी फैसला था. अंग्रेजों की सोच यह थी कि वे एक ही समय में हिंदू और मुसलमानों को नाराज़ नहीं कर सकते. इस सिलसिले में 1911 में आयोजित दिल्ली दरबार की ऐतिहासिक घटनाओं के ब्योरे वाला अहमद अली का उपन्यास दिल्ली में आहत मुस्लिम सभ्यता की पड़ताल करता है. इस किताब के ज़रिए लेखक ने तत्कालीन भारत में अंग्रेजी साम्राज्यवाद की कहानी बयान करते हुए उपनिवेशवादी ताक़त से टक्कर पर मुस्लिम नज़रिए को सामने रखते हुए साम्राज्यवादी साहित्य को चुनौती दी है.
नीरद सी चौधरी ने आजादी मिलने के तुरंत बाद प्रकाशित अपनी आत्मकथा-द ऑटोबायोग्राफी ऑफ अननोन इंडियन में उनकी (बंगालियों) प्रतिक्रिया का स्मरण करते हुए लिखा कि 1911 में मौत का साया, जिससे हम सब अपरिचित थे, पहले ही कलकत्ता पर पसर चुका था. मुझे अभी भी अपने पिता द्वारा उनके मित्रों के साथ राजधानी के दिल्ली स्थानांतरण का समाचार पढ़ने की बात याद है. कलकत्ता का स्टेट्‌समैन गुस्से में था, पर वह भविष्य के बजाय इतिहास के बारे में ज़्यादा सोच रहा था और वह कासनड्रा की तरह भविष्यवाणियां करने का इच्छुक नहीं था. हम बंगाली कासनड्रा की तरह भविष्यवक्ता नहीं थे. हम बातूनी थे. मेरे पिता के एक दोस्त ने रूखेपन से कहा कि वे साम्राज्यों के क़ब्रिस्तान दिल्ली में द़फन होने जा रहे हैं. इस बात पर वहां मौजूद हर कोई हंस पड़ा. हम सभी की तीव्र इच्छा का लक्ष्य अंग्रेजी साम्राज्य का द़फन होना ही था, पर उस दिन हम में से किसी ने भी नहीं सोचा था कि ऐसा होने में केवल छत्तीस साल लगेंगे. अंग्रेज सत्रह सौ सत्तावन से कलकत्ते में राज करते रहे. दिल्ली राजधानी बनाने के छत्तीस साल बाद उनके विश्वव्यापी साम्राज्य का सूरज डूब गया. 1912 में एडविन लैंडसिर लुटियन और उनके पुराने दोस्त हरबर्ट बेकर को बतौर वास्तुकार नए शहर को बसाने की ज़िम्मेदारी दी गई. लुटियन के चुनाव में उनके काम के अनुभव का कम और रिश्ते का जोर ज़्यादा था. सरकारी इमारतें और शहर के वास्तु से उनका दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं था. महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने लॉर्ड लिटन, जिन्होंने 1877 में महारानी विक्टोरिया के समय दिल्ली दरबार की अध्यक्षता की थी, की एकलौती बेटी एमली लिटन से शादी की थी. लुटियन का खास मित्र और सहयोगी गर्टरूड जेकल, जो अच्छा बाग वास्तुशास्त्री भी था, भी एक अच्छे संपर्कों वाला व्यक्ति था. लॉर्ड हॉर्डिंग भी मार्च 1912 के अंत में अपने लाव-लश्कर के साथ दिल्ली पहुंच गए. 1911 में दिल्ली राजधानी स्थानांतरित होने पर दिल्ली विश्वविद्यालय का पुराना वायस रीगल लॉज वायसराय का निवास बना. प्रथम विश्व युद्ध से लेकर क़रीब एक दशक तक वायसराय इस स्थान पर रहे, जब तक रायसीना पहाड़ी पर लुटियन निर्मित उनका नया आवास नहीं बना.
मौजूदा नई दिल्ली शहर दिल्ली का आठवां शहर है. नई दिल्ली के लिए अनेक स्थानों के बारे में सोचा और अस्वीकृत किया गया. दरबार क्षेत्र को अस्वास्थ्यकर और अनिच्छुक घोषित कर दिया गया, जहां बाढ़ का भी ख़तरा था. सब्जी मंडी का इलाक़ा बेहतर था, पर फैक्ट्री क्षेत्र में अधिग्रहण से मिल मालिक नाराज़ हो जाते. सिविल लाइंस में यूरोपीय आबादी को हटाने से उसकी नाराज़गी का ख़तरा था. अत: लुटियन के नेतृत्व में मौजूदा पुराने शहर शाहजहांनाबाद के दक्षिण में नई दिल्ली के निर्माण का कार्य 1913 में शुरू हुआ, जब नई दिल्ली योजना समिति का गठन किया गया. उसने पुराने शहर का तिरस्कार किया और आसपास का इलाक़ा तत्काल ही एक दूसरे दर्जे का शहर यानी पुरानी दिल्ली बन गया. लुटियन के ज़िम्मे नई दिल्ली शहर, गर्वमेंट हाउस और हरबर्ट बेकर के सचिवालय के दो हिस्सों (नॉर्थ एवं साउथ ब्लॉक) और काउंसिल हाउस (संसद भवन) को तैयार करने का भार आया. क़रीब 2,800 हेक्टेयर क्षेत्र में फैली लुटियन दिल्ली का मूल स्वरूप 1911 से 1931 के मध्य में बना, जो साम्राज्यवादी भव्यता का एक खुला उदाहरण था. इसका मुख्य केंद्र ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतिनिधि वायसराय का महलनुमा परिसर (अब राष्ट्रपति भवन) था. अंग्रेज वास्तुकार नई दिल्ली को पुरानी दिल्ली की अराजकता के विपरीत क़ानून-व्यवस्था का प्रतीक बनाना चाहते थे. हरबर्ट बेकर का मानना था कि नई राजधानी अच्छी सरकार और एकता का स्थापत्यकारी स्मारक होनी चाहिए, क्योंकि भारत को इतिहास में पहली बार अंगे्रज शासन के तहत एकता मिली है. भारत में अंगे्रजी शासन केवल सरकार और संस्कृति का प्रतीक नहीं है, यह एक विकसित होती नई सभ्यता है, जिसमें पूर्व और पश्चिम के बेहतर तत्वों का समावेश है. वायसराय पैलेस का मुख्य गुंबद मुगल स्थापत्य कला की तर्ज पर बनाया गया, पर अंग्रेजों ने अपना महत्व बरक़रार रखने के लिए पैलेस की ऊंचाई शाहजहां की जामा मस्जिद से अधिक रखी.
एक तरह से नई दिल्ली का अर्थ भारतीय उपमहाद्वीप के लिए एक साम्राज्यवादी राजधानी और एक सदी के लिए अंग्रेज हुक्मरानों के सपनों का साकार होना था, हालांकि इसके पूरा होने में 20 साल का व़क्त लगा. यह भी तब, जबकि राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के साथ ही नई दिल्ली बनाने का फैसला लिया गया. इस तरह नई राजधानी केवल 16 साल के लिए अपनी भूमिका निभा सकी. नई दिल्ली में निर्माण कार्य 1931 में पूरा हुआ, जब सरकार इस नए शहर में स्थानांतरित हो गई. 13 फरवरी, 1931 को तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन ने नई दिल्ली का औपचारिक उद्घाटन किया. प्रसिद्ध लेखक खुशवंत सिंह के पिता सर शोभा सिंह ने लुटियन और बेकर के साम्राज्यवादी नक्शे के अनुरूप चूना, पत्थर और संगमरमर तराशने का काम किया. खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत में नई दिल्ली पर खासी रोशनी डाली है. उनके शब्दों में, मेरे पिताजी को साउथ ब्लॉक बनाने का ठेका मिला था और उनके सबसे जिगरी दोस्त बसाखा सिंह को नार्थ ब्लॉक बनाने का. हमारे मकान के सामने और दक्षिण दिल्ली से कोई बारह किलोमीटर दूर बदरपुर गांव से दिल्ली के लिए, जिसे आज कनाट सर्कस कहते हैं, छोटी रेलवे लाइन गई थी. बदरपुर से निर्माण स्थल तक पत्थर, रोड़ी और बजरी लाने के लिए यह लाइन बिछाई गई थी. जिस दिन छुट्टी होती, हम छोटी सी इंपीरियल दिल्ली रेल के आने का इंतज़ार करते कि कब वह आकर पत्थर उतारे और हम उसमें सवार होकर मुफ्त में कनाट प्लेस की सैर करके आएं.
दिल्ली दरबार रेलवे
दिल्ली दरबार के मद्देनज़र अंग्रेजों ने अतिरिक्त रेल सुविधाएं बढ़ाने और नई लाइनें बिछाने का फैसला किया. सरकार ने इसके लिए दिल्ली दरबार रेलवे नामक विशेष संगठन का गठन किया. मार्च से अप्रैल, 1911 के बीच यातायात समस्याओं के निदान के लिए छह बैठकें हुईं, जिनमें दिल्ली में विभिन्न दिशाओं से आने वाली रेलगाड़ियों के लिए 11 प्लेटफार्मों वाला एक मुख्य रेलवे स्टेशन, आज़ादपुर जंक्शन तक दिल्ली दरबार क्षेत्र में दो अतिरिक्त डबल रेल लाइनों, बंबई से दिल्ली बारास्ता आगरा एक नई लाइन बिछाने जैसे महत्वपूर्ण फैसले किए गए. सैनिक और नागरिक रसद पहुंचाने के लिए कलकत्ता से दिल्ली तक प्रतिदिन एक मालगाड़ी चलाई गई, जो हावड़ा से चलकर दिल्ली के किंग्सवे स्टेशन पहुंचती थी. इस तरह मालगाड़ी क़रीब 42 घंटे में 900 मील की दूरी तय करती थी. नवंबर, 1911 में मोटर स्पेशल नामक पांच विशेष रेलगाड़ियां हावड़ा और दिल्ली के बीच चलाई गईं. देश भर से 80,000 सैनिकों को दिल्ली लाने के लिए विशेष रेलगाड़ियां चलाई गईं.
इतिहास और अगर-मगर
अगर प्रथम विश्व युद्ध न छिड़ा होता तो नई दिल्ली के निर्माण में अधिक धन ख़र्च किया जाता और यह शहर अधिक भव्य बनता. यमुना नदी पुराने किले के साथ बहतीं और राजपथ से गुजरने वाले इसके गवाह बनते. अगर लॉर्ड कर्जन और उनके मित्रों की चलती तो नई दिल्ली को राजधानी बनाने का फैसला रद्द हो जाता. अगर हरबर्ट बेकर ने प्रिटोरिया का निर्माण न किया होता तो लुटियन को नई दिल्ली परियोजना में अवसर न मिलता और न विजय चौक (इंडिया प्लेस) प्रिटोरिया की तर्ज पर तैयार होता. अगर लुटियन की मर्जी चली होती तो राष्ट्रपति भवन (गर्वमेंट हॉउस) सरदार पटेल मार्ग पर मालचा पैलेस के नज़दीक रिज में बना होता. लॉर्ड हार्डिंग के इस प्रस्ताव को ख़ारिज करने के बाद ही रायसीना पहाड़ी पर वायसराय हाउस बना.
शहर का नाम                स्थापना काल                                    संस्थापक                     कुल क्षेत्रफल
                                                                                                                        (वर्ग किमी)
लाल कोट                         1000                                        अनंगपाल                                3.40
सिरी                               1303                                 अलाउद्दीन खिलजी                        1.70
तुगलकाबाद                     1321                                 गयासुद्दीन तुगलक                         2.20
जहांपनाह                        1327                                मुहम्मद बिन तुगलक                      0.20
फिरोज़ाबाद                      1354                                फिरोज़शाह तुगलक                         0.10
पुराना किला                    1533                                    हुमायूं                                     0.20
शाहजहांनाबाद                 1639                                  शाहजहां                                 4.90
नई दिल्ली                     1911                                      एडवर्ड पंचम                            12.20

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1 टिप्पणी:

  1. बंधु आपने 11-17 जुलाई 2011 को चौथी दुनिया में छपे नलिन चौहान के लेख 'सौ बरस की दिल्ली' को जस का तस उतार दिया है। अच्छी बात है आपने किसी न किसी तरह जानकारी का प्रसार ही किया है, लेकिन सौजन्यतावश कम से कम मूल लेखक का नाम अवश्य देना चाहिए था।

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