गुरुवार, 4 अगस्त 2011

दिल्ली-उतार-चढ़ाव से भरा 99 वर्षों का सफरनामा

  

Home » Miscellaneous » 22 March 2011 »


प्रमोद दत्त
वर्ल्ड कप क्रिकेट के बढ़ते रोमांच और सचिन के ‘शतकों का शतक’ के इंतजार के बीच बिहार अपनी उम्र के 99वें पड़ाव पर पहुंचा है। 22 मार्च 2012 को बिहार का 99वां स्थापना दिवस धूमधाम से मनाया जा रहा है। स्वतंत्र राज्य के रूप में बिहार सौवें साल में प्रवेश करेगा। भारत के गौरवशाली इतिहास के गौरवशाली हिस्सा होने के साथ-साथ राज्य स्थापना के सौ वर्ष का उत्साह व रोमांच इतना कि वर्ल्ड कप क्रिकेट का रोमांच व शतक भी फीका पड़ जाए।
डा. सच्चिदानन्द सिन्हा का योगदान
बिहार के सौ वर्षों का इतिहास सच्चिदानन्द सिन्हा से शुरू होता है। क्योंकि राजनीतिक स्तर पर सबसे पहले उन्होंने ही बिहार की बात उठाई थी। कहते हैं, डा. सिन्हा जब बैरिस्टरी पास कर इंगलैंड से लौट रहे थे तब उनसे एक पंजाबी बैरिस्टर ने पूछा था कि मिस्टर सिन्हा आप किस प्रान्त के रहने वाले हैं। डा. सिन्हा ने जब बिहार का नाम लिया तो वह पंजाबी बैरिस्टर आश्चर्य में पड़ गया। इसलिए क्योंकि तब बिहार नाम का कोई प्रांत था ही नहीं। उसके यह कहने पर कि बिहार नाम का कोई प्रांत तो है ही नहीं, डा. सिन्हा ने कहा था, नहीं है लेकिन जल्दी ही होगा। यह फरवरी 1893 की बात है।
डा. सिन्हा को ऐसी और भी घटनाओं ने झकझोरा, जब बिहारी युवाओं (पुलिस) के कंधे पर ‘बंगाल पुलिस’ का बिल्ला देखते तो गुस्से से भर जाते थे। डा. सिन्हा ने बिहार की आवाज को बुलंद करने के लिए नवजागरण का शंखनाद किया। इस मुहिम में महेश नारायण, नन्दकिशोर लाल, राय बहादुर, कृष्ण सहाय जैसे मुट्ठीभर लोग ही थे। उन दिनों सिर्फ ‘द बिहार हेराल्ड’ अखबार था, जिसके संपादक गुरु प्रसाद सेन थे। तमाम बंगाली अखबार बिहार के पृथककरन का विरोध करते थे। पटना में कई बंगाली पत्रकार थे जो बिहार के हित की बात तो करते थे लेकिन इसके पृथक राज्य बनाने के विरोधी थे।
बिहार अलग राज्य के पक्ष में जनमत तैयार करने या कहें माहौल बनाने के उद्देश्य से 1894 में डा. सिन्हा ने अपने कुछ सहयोगियों के साथ ‘द बिहार टाइम्स’ अंग्रेजी साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया। स्थितियां बदलते देख बाद में ‘बिहार क्रानिकल्स’ भी बिहार अलग प्रांत के आन्दोलन का समर्थन करने लगा। 1907 में महेश नारायण की मृत्यु के बाद डा. सिन्हा अकेले हो गए। इसके बावजूद उन्होंने अपनी मुहिम को जारी रखा। 1911 में अपने मित्र सर अली इमाम से मिलकर केन्द्रीय विधान परिषद में बिहार का मामला रखने के लिए उत्साहित किया। 12 दिसम्बर 1911 को ब्रिटिश सरकार ने बिहार और उड़ीसा के लिए एक लेफ्टिनेंट गवर्नर इन कौंसिल की घोषणा कर दी। यह डा. सिन्हा और उनके समर्थकों की बड़ी जीत थी। डा. सिन्हा का बिहार के नवजागरण में वही स्थान माना जाता है जो बंगाल नवजागरण में राजा राम मोहन राय का। उन्होंने न केवल बिहार में पत्रकारिता की शुरूआत की बल्कि सामाजिक चेतना और सांस्कृतिक विकास के अग्रदूत भी बने।
ब्रिटिश सम्राट की घोषणा
जब बंगाल से बिहार को पृथक करने की योजना बन गई थी तो उसे अति गोपनीय रखा गया। 12 दिसम्बर 1911 को दिल्ली दरबार हुआ और सम्राट ने घोषणा की कि -’हमारे गवर्नर जेनरल इन काउंसिल की राय से हमारे मंत्रिमंडल की सलाह पर हम यह घोषणा करते हैं कि हमने भारत सरकार का केन्द्र कलकत्ता से प्राचीन राजधानी दिल्ली में स्थानान्तरित करने का निर्णय लिया है। साथ ही यह भी निर्णय लिया है कि इस स्थानान्तरण के फलस्वरूप बिहार एवं उड़ीसा क्षेत्र के प्रशासन के लिए यथाशीघ्र एक सपरिषद राज्यपाल का पद और आसाम के लिए एक मुख्य आयुक्त पद बनाए जाए और ऐसे प्रशासनिक परिवर्तन तथा सीमा पुनर्निर्धारण किए जाए जो हमारे गवर्नर जनरल इन काउंसिल, सेक्रेटरी इन इंडिया इन काउंसिल के अनुमोदन से यथासमय तय करें।’
कहते हैं कि यह घोषणा अत्यंत नाटकीय ढंग से हुई। यह बिलकुल अप्रत्याशित और अकल्पित थी। कंपनी भी अवाक रह गई थी। वह इस समय इस बात को नहीं समझ सकी कि जो आश्चर्यजनक परिवर्तन किया गया वह कितना महान और साहसिक था। इस बात को अत्यन्त गुप्त रखा गया था और इससे प्रत्यक्षतः जो संबंधित थे उन्हें भी इसका पता नहीं था। पूरी सभा में शायद एक दर्जन व्यक्ति भी ऐसे नहीं थे जिन्हें इस तत्कालिक घटना की पूरी जानकारी रही हो। इसका काफी सनसनीखेज असर हुआ। इसकी खबर बिजली की गति से फैल गई।
जानकारों का मानना है कि 12 दिसम्बर 1911 बिहार के इतिहास का एक स्मरणीय दिवस है। यह बिहार पर बंगाल के राजनीतिक प्रभुत्व के अंत का सूचक तो है ही, इससे कटुता, दुर्भाव और हताशा का दौर भी समाप्त हो गया। जब एक नए युग का आरम्भ हुआ, जिसमें अपेक्षाकृत मुक्त वातावरण में बिहार का जनता के व्यक्तिगत और क्षमता का विकास हो सकता था।
बिहार-उड़ीसा नया संयुक्त प्रांत
इस प्रकार 1 अप्रैल, 1912 से बिहार-उड़ीसा एक परिषद् उपराज्यपाल के अधीन कर दिये गये। बिहार एवं उड़ीसा नाम के नये प्रांत का गठन 22 मार्च, 1912 को इस उद्धोषणा के तहत हुआ। – ‘गवर्नर जनरल, इंडियन काउंसिल एक्ट 1861 (24 व 25 विक, सी 67) के प्रयोजनार्थ निम्नलिखित राज्य क्षेत्रों को मिलाकर एक प्रांत का गठन करते हैं। इस प्रांत के लिए उक्त एक्ट के विधि वं विनियम निर्माण संबंधी वे उपबंध लागू होंगे जो फोर्ट सेंट जार्ज तथा बम्बई प्रेसीडेंड की शांति एवं सुशासन के लिए लागू है। ये राज्य क्षेत्र अभी बंगाल की पोर्ट विलियम प्रेसीडेंट की सीमा के अधीन और अन्तर्गत निम्न रूप में हैं – भागलपुर डिवीजन :- इसमें भागलपुर, मुंगेर, पूर्णिया और संथालपरगना जिले हैं। पटना डिवीजन :- इसमें पटना, गया और शाहाबाद जिले हैं। तिरहुत डिवीजन :- इसके अन्तर्गत सारण, चम्पारण, मुजफ्फरपुर और दरभंगा जिले हैं। छोटानागपुर डिवीजन :- इसमें रांची, पलामू, हजारीबाग, सिंहभूम और मानभूम जिले हैं।
उड़ीसा डिवीजन :- इसके अन्तगत अंगुल, बालाशोर, कटक, पुरी और सम्बलपुर जिले हैं।
गवर्नर जनरल ने आगे यह निर्दएश दिया कि उक्त प्रांत बिहार एवं उड़ीसा प्रांत कहलाएगा। माननीय सर चार्ल्स स्टुअर्ट बेली, (के.सी.एस.आई.) को प्रांत का प्रथम उपराज्यपाल नियुक्त किया गया। इस प्रकार 1 अप्रैल, 1912 को उपराज्यपाल ने नये प्रांत में कार्यभार संभाला। अपने सौ साल के सफर में बिहार ने कई उतार-चढ़ाव देखें। 1912 में राज्य गठन हुआ और उसी वर्ष बिहार में पहली बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का सम्मेलन हुआ जिसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू शामिल हुए। अप्रैल 1917 में महात्मा गांधी का पहली बार बिहार में आगमन हुआ। चम्पारण की धरती पर पहुंचने के बाद महात्मा गांधी को अंग्रेजों के शोषण की असली तस्वीर नजर आई जहां किसानों पर कृषि और व्यापार ही नहीं बल्कि सामाजिक समारोहों आदि पर भी ‘कर’ वसूले जा रहे थे।
1920 में अंग्रेजों के खिलाफ शुरू हुए असहयोग आन्दोलन में बिहार में लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और बड़ी संख्या में लोग जेल गये। मौलाना मजहरूल हक ने पटना में सदाकत आश्रम (वर्तमान में कांग्रेस कार्यालय) की स्थापना की जो स्वतंत्रता सेनानियों का केन्द्र रहा। 1931 में जब सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ तो उस दौरान समाजवादियों की गतिविधियों का केन्द्र बिहार बना रहा। 1932 , 34 के दौरान जब महात्मा गांधी ने जातीय भेदभाव मिटाने और हुआ छूत के खिलाफ आह्वान किया तो इसका असर बिहार पर व्यापक तरीके से पड़ा और आन्दोलन तेज हुआ। इस दौरान भी महात्मा गांधी ने बिहार के कई जिलों का दौरा किया। पर्दा प्रथा, बाल-विवाह, सती प्रथा स्वदेशी, खादी आन्दोलन आदि जैसे सामाजिक आंदोलन में भी बिहारियों ने जमकर हिस्सा लिया।
1936 में बिहार को तब तक झटका लगा जब उड़ीसा को अलग प्रांत बनाकर इससे अलग कर दिया गया। एक वर्ष बाद मार्च 1937 मे बिहार में पहला लोकतांत्रिक चुनाव हुआ, जिसमें कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनी। बैरिस्टर मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली इंडिपेंडेंट पार्टी दूसरे नंबर की पार्टी बनी। पहले तो यूनुस के नेतृत्व में ही सरकार बनी, लेकिन उसी वर्ष बाद में कांग्रेस के पहले मंत्रीपरिषद् का गठन डा. श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में हुआ।
‘भारत छोड़ो’ आंदोलन
1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई तो बिहार ने देश पर अपनी अमिट छोड़ा। 11 अगस्त को सचिवालय के सामने हुए गोलीकांड में सात छात्र शहीद हो गये। इन छात्रों ने अपनी जान की परवाह किये बिना पहली बार सचिवालय पर तिरंगा फहराया। इन सात शहीदों की याद में सचिवालय के सामने ‘शहीद स्मारक’ बना है। आजादी के संघर्ष में जुटे 23 हजार बिहारियों का इस वर्ष जेल में डाला गया। 1947 में देश आजाद हुआ और छपरा के डा. राजेन्द्र प्रसाद देश के प्रथम राष्ट्रपति हुए। बिहार के लिए विशेष तौर पर वह क्षण गौरव भरा था। इधर प्रदेश में डा. श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में राज्य सरकार का गठन हुआ। 1952 से 1957 के पांच वर्षों के दौरान बिहार का उतार-चढ़ाव तेज रहा। 1952 के प्रथम चुनाव में पुनः डा. श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी। प्रशासनिक मामले में देश के सबसे बेहतर राज्य का दर्जा मिलने से बिहार गौवान्वित भी हुआ। इस दौरान मेसरा (रांची) में बिड़ला इंस्टीच्यूट आफ टेक्नोलाजी की स्थापना हुई। राज्य के विकास के लिए कई बड़े उद्योग आये लेकिन इसी दौरान राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिश पर मानसून और किशनगंज के एक बड़े हिस्से को बिहार से अलग कर बंगाल में मिला दिया गया। बात इतनी भर होती तो कष्ट कम होता। जब बंगाल के मुख्यमंत्री विधानचंद्र राय के दबाव पर बिहार-बंगाल के विलय का प्रस्ताव विधानसभा से पारित कराया गया तो बिहारवासियों को बड़ा झटका लगा।
1967 में पहली बार बिहार में गैरकांग्रेसी सरकार बनी। गैरकांग्रेसवाद के नामपर प्रयोग सफल तो हुआ लेकिन कुर्सी की लड़ाई में सरकार बनने-गिराने का खेल चलता रहा। यह तब तक चलता रहा जब ‘गरीब हटाओ’ के नारे पर और बांग्लादेश आजादी के संघर्ष के माध्यम से इंदिरा गांधी का नेतृत्व मजबूत नहीं हुआ। लेकिन इस मजबूती का विपरीत असर हुआ। इस बीच बिहार में 1974 का छात्र आंदोलन तेज हो चुका था। जेपी के नेतृत्व में संपूर्ण क्रांति के लिये शुरू हुआ आंदोलन देशभर में फैल चुका था। सघन आंदोलन से घबराई केंद्र सरकार ने देश में इमरजेंसी लगा दी। विपक्ष के सारे नेता या तो जेल में बंद कर दि ये गये या भूमिगत हो गये। 1977 में जब लोकसभा चुनाव की घोषणा हुई तो भूमिगत नेता बाहर निकले। एक बार फिर गैरकांग्रेसवाद के नाम पर सभी जुटे और 77 चुनाव में कांग्रेस को करारी मात मिली। इसमें बिहार का बहुत बड़ा योगदान रहा।
झारखंड का अलगाव, 1977 में जपा सरकार में मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने तो कर्पूरी ठाकुर बिहार में मुख्यमंत्री। कर्पूरी ठाकुर ने सरकारी नौकरी में पिछड़ों के लिए आरक्षण लागू किया। इस निर्णय से जपा में मतभेद बढ़ा। कर्पूरी ठाकुर की सरकार चली गयी। लेकिन इसी घटना से बिहार में एक नयी सोशल इंजीनियरिंग की शुरुआत हुई। 1980 में पुन: कांग्रेस की वापसी हुई। 1990 में बिहार में जेपी आंदोलन से निकले लालू प्रसाद के नेतृत्व में जनता दल की सरकारी बनी, जिसे भाजपा सहित वामदलों ने भी गैरकांग्रेसवाद के नामपर समर्थन दिया। राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बीच केंद्र की वी.पी. सिंह सरकार ने मंडल आयोग की अनुषशंसा (आरक्षण से संबंधित) लागू की और इसका असर यह हुआ कि लालू प्रसाद जैसे नेता और मजबूत हो गये। सामाजिक न्याय का नारा देकर लालू प्रसाद इतने मजबूत हो गये कि 1997 में अपनी पत्नी जो गृहिणी थी, उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया। इस प्रकार राबड़ी देवी के रूप में बिहार को पहला मुख्यमंत्री मिला। इधर वर्षों पुराना अलग झारखंड राज्य का आंदोलन परवान चढ़ रहा था तो बिहार में कमजोर होते लालू प्रसाद को कांग्रेस सहारा देने में लगी थी। 1998 में जब बिहार पुनर्गठन विधेयक 1998 भेजा गया तो लालू प्रसाद ने ‘मेरी लाश पर झारखंड बनेगा’ जैसा बयान देकर उसे विधानमंडल से अस्वीकृत कर दिया। लेकिन वर्ष 2000 में परिस्थितियां बदली। अपने खोखले नारे से लालू प्रसाद कमजोर हो चुके थे और उनके विरोध में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए मजबूत होने लगा था। वर्ष 2000 के चुनाव में सबसे बड़ा गठबंधन होने के बावजूद एनडीए को बहुमत नहीं मिला। इसीलिए मुख्यमंत्री बनने के बावजूद नीतीश कुमार, विश्वास मत हासिल नहीं कर सके। लालू प्रसाद किसी प्रकार सत्ता में वापसी चाहते थे इसलिये झारखंड राज्य से संबंधित ‘बिहार पुनर्गठन विधेयक 2000′ को समर्थन देने की कांग्रेसी शर्त को उन्होंने मान लिया। एनडीए सहित झामुमो व कई राजनीतिक दल तो पहले से अलग झारखंड के समर्थक थे। लालू प्रसाद के हृदय परिवर्तन से जुलाई 2000 में पुनर्गठन विधेयक विधानमंडल में स्वीकृत हुआ और 15 नवम्बर 2000 का बिहार से अलग होकर झारखंड राज्य का गठन हो गया।
पांच वर्षों तक राजद-कांग्रेस की सरकार चली और इसी दौरान नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए, जनता के बीच अपना विश्वास बनाने में लगा रहा। नतीजतन फरवरी 2005 के चुनाव में एनडीए बहुमत के करीब और अक्तूबर 2005 के चुनाव में एनडीए को बहुमत हासिल हुआ। नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी। न्याय के साथ विकास का नारा दिया गया। सुशासन का असर लोगों को दिखाया गया। विकास का स्वाद चखाया गया और इसी वजह से 2010 में पुन: जनता ने भारी जनादेश दे दिया।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें