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महात्मा रामचन्द्र वीर महाराज(जन्म १९०९ - मृत्यु २००९) एक यशस्वी लेखक, कवि तथा ओजस्वी वक्ता थे। उन्होंने देश तथा धर्म के लिए बलिदान देने वाले हिन्दु हुतात्माओं का इतिहास लिखा। 'हमारी गोमाता', 'वीर रामायण' (महाकाव्य), 'हमारा स्वास्थ्य' जैसी दर्जनों पुस्तकें लिखकर उन्होंने साहित्य सेवा में योगदान दिया। वीर जी महाराज ने देश की स्वाधीनता, मूक-प्राणियों व गोमाता की रक्षा तथा हिन्दू हितों के लिए 28 बार जेल यातनाएँ सहन की। वीर जी राष्ट्रभाषा हिन्दीकी रक्षा के लिए भी संघर्षरत रहे। एक राज्य ने जब हिन्दी की जगह उर्दूको भाषा घोषित किया, तो महात्मा वीर जी ने उसके विरुद्ध अभियान चलाया व अनशन किया। वीर विनायक दामोदर सावरकरने उनका समर्थन किया था। पावन धामविराट नगर के पंच्खंड पिठाधिस्वर एवं विश्व हिंदू परिषदके केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल में शामिल संत आचार्य धर्मेन्द्रउनके सुपुत्र हैं।
[संपादित करें] जन्म
औरंगजेब के दरबार में अपना प्राणोत्सर्ग करने वाले हुतात्मा गोपाल दास जी की ११ वी पीढ़ी में आशिवन शुक्ल प्रतिपदा संवत १९६६ वि. (सन १९०९)को गोमाता की रक्षा के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले झुझारू धर्माचार्य महात्मा रामचन्द्र वीर का जन्म श्रीमद स्वामी भूरामल जी व श्रीमती विरधी देवी के घर पुरातन तीर्थ विराटनगर (राजस्थान) में हुआ।[संपादित करें] वंश परिचय और स्वामी कुल परम्परा
जयपुर राज्य के पूर्वोत्तर में एतिहासिक तीर्थ विराट नगर के पाश्र्व में पवित्र वाणगंगा के तट पर मैड नमक छोटे से ग्राम में एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण संत, लश्करी संप्रदाय के अनुयायी थे. गृहस्थ होते हुए भी अपने सम्प्रदाय के साधू और जनता द्वारा उन्हें साधू संतो के सामान आदर और सम्मान प्राप्त था. राजा और सामंत उनको शीश नवाते थे और ब्राह्मण समुदाय उन्हें अपना शिरोमणि मानता था. भगवान नरसिंह देव के उपासक इन महात्मा का नाम स्वामी गोपालदास था. गोतम गौड़ ब्राह्मणों के इस परिवार को 'स्वामी' का सम्मानीय संबोधन जो भारत में संतो और साधुओ को ही प्राप्त है, लश्करी संप्रदाय के द्वारा ही प्राप्त हुआ था, क्योंकि कठोर सांप्रदायिक अनुशासन के उस युग में चाहे जो उपाधि धारण कर लेना सरल नहीं था. मुग़ल बादशाह औरंगजेब द्वारा हिन्दुओ पर लगाये गए शमशान कर के विरोध में अपना बलिदान देने वाले महात्मा गोपाल दास जी इनके पूर्वज थे. जजिया कर की अपमान जनक वसूली और विधर्मी सैनिको के अत्याचारों से क्षुब्ध स्वामी गोपालदास धरम के लिए प्राणोत्सर्ग के संकल्प से प्रेरित होकर दिल्ली जा पहुंचे. उन तेजस्वी संत ने मुग़ल बादशाह के दरबार में किसी प्रकार से प्रवेश पा लिया और आततायी औरंगजेब को हिन्दुओ पर अत्याचार न करने की चेतावनी देते हुए, म्लेछो द्वारा शारीर का स्पर्श करके बंदी बनाये जाने से पूर्व ही, कृपाण से अपना पेट चीर कर देखते - देखते दरबार में ही पाने प्राण विसर्जित कर दिए. महाराज जी का रोम-रोम राष्ट्रभक्ति, हिन्दुत्व व संस्कृति से ओत-प्रोत्र था. वीर जी ऐसे प्रणिवत्सल संत थे जिनकी दहाड़ से, ओजश्वी वाणी से, पैनी लेखनी के वर से राष्ट्रद्रोही व धर्मद्रोही कांप उठते थे. वीर जी ऐसे संत थे जिनका हृदय धरम के नाम पर दी जाने वाली निरीह प्राणियों की बलि देख कर दर्वित हो उठता था.[संपादित करें] जीवन संघर्ष और कठोर तपश्चर्या
महात्मा रामचन्द्र वीर ने ज्ञान की खोज में घर का त्याग तब किया जब वे न महात्मा थे न वीर. १४ वर्ष का बालक रामचन्द्र आत्मा की शांति को ढूंढता हुआ अमर हुतात्मा स्वामी श्रधानंद के पास जा पहुंचा. वहां उसे ठांव मिलता उसके पूर्व ही ममतामय पिता उसे मनाकर वापस ले आये, किन्तु तभी हत्यारे अब्दुल रशीद की गोलियों से बींधे गए स्वामी श्रधानंद के उत्सर्ग के समाचार ने रामचन्द्र के रोम - रोम में स्वधर्म के आहत स्वाभिमान की जवालायें सुलगा दी और रामचन्द्र फिर निकल पड़ा. मानो अमर हुतात्मा स्वामी गोपालदास की अतृप्त बलिदानी आत्मा उनके अंत: करन में आ विराजी थी. १८ वर्ष की अल्पायु में भारत भूमि स्वंत्रता, अखंडता और गोहत्या के पाप मूलोच्छेद के उद्देश्य से महात्मा वीर जी ने अन्न और लवण का सर्वथा त्याग कर दिया. महात्मा वीर का भोजन अस्वाद व्रत का अद्वितीय उदाहरण है. अपने जीवन के अखंड फलाहार व्रत के बीच देश, जाति और धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने १०० से अधिक अनशन किये उनमे सबसे छोटा ३ दिन और सबसे बड़ा १६६ दिन का अनशन भी सम्मिलित है.१३ वर्ष की अल्पायु में ही इनके पिता ने वीर जी का विवाह कर दिया था, किन्तु अपनी शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक और स्वाभावगत अनमेलता के कारण यह विवाह, विवाह नहीं बन पाया, वर की आयु से २ वर्ष बड़ी और नितांत विपरीत मन मस्तिष्क स्वाभाव और आचरण वाली पत्नी के साथ दांपत्य प्रारंभ होने के पूर्व ही टूट गया और तुरंत किशोर रामचन्द्र की जीवन धर हिन्दू संगठन, स्वतंत्रता संग्राम, अहिंसा, गोरक्षा और मानवता के कल्याण की कठोर कर्मभूमि पर बह चली और पुन: विवाह की कल्पना बहुत पीछे रह गयी. भुरामल्ल जी अपने पुत्र की कीर्ति से प्रसन्न तो थे परन्तु वंश परम्परा के अच्छिनन होने का संताप उन्हें सालता रहता था. अपने पिताश्री और अनुयायियों घेरे जाने पर वीर जी ने ३२ वर्ष की आयु में पुन विवाह किया. जब विवाह की बात चली तो वीर जी छपरा जेल में थे. विवाह हुआ तो पिताश्री भुरामल्ल जी जेल में थे और स्वयं वीर जी पर जयपुर राज्य की पुलिस का गिरफ़्तारी वारंट था. विवाह शिष्यों के द्वारा जन्मभूमि विराट नगर से सैंकड़ो मील दूर संपन्न हुआ. पत्नी अल्पकालीन सामीप्य के पश्चात् पिता के घर लौटी एवं वहीँ उन्होंने अमर हुतात्मा गोपालदास जी के १२ वे वंशधर तथा परम तेजश्वी संत, महात्मा रामचन्द्र वीर के एकमात्र आत्मज आचार्य धर्मेन्द्र को जन्म दिया. स्वामी रामचन्द्र वीर सामाजिक क्रांति के पुरोधा रहे हैं उनके द्वारा स्थापित पावन धाम स्थित वज्रांग मंदिर पुरे राजस्थान और विराट नगर कस्बे की शोभा बढा रहा है. वीर जी ने अपना सारा जीवन पावन धाम में रह कर पूरा किया. विराट नगर वह स्थान है जहाँ महाभारत काळ मे पांड्वो ने अपना अग्यात्वास पूरा किया था वे हनुमान जी के परम भक्त थे पर उनके हनुमान पूंछ वाले नहीं वरन वानर वंश के वेदों के विद्वान, बलशाली, चतुर, परम रामभक्त महापुरुष थे।
उन्होंने जगह जगह जा कर मंदिर और देवालयों में दी जाने वाली अमानवीय पशु बलि को बंद कराया. बल्कि अपने अनशनो और जन जागरण के माध्यम से भारत के लोगो को जाग्रत किया. इस महान गोभक्त के के जनजागरण द्वारा भारतवर्ष के विभिन्न राज्यों में गोहत्या बंदित कानून बनाये गए. सन १९६६ - ६७ के विराट गोरक्षा आन्दोलन के दोरान वीर महाराज ने गोरक्षा कानून बनाये जाने की मांग को लेकर १६६ दिन का अनशन करके पुरे संसार का ध्यान आकर्षित करने मैं सफलता प्राप्त की थी.
हिन्दुओ के अधिकारों के अधिकारों की रक्षा के लिए इन्होने अखिल भारतीय हिन्दू महासभा से जुड़े और वीर सावरकर के साथ हमेशा हिन्दू हितो के लिए संघर्षशील रहे. जब कांग्रेस जैसे दल ने आज़ादी से पहले मुसलमानों के लिए आरक्षित वोटिंग व्यवस्था की तो हिन्दू महासभा ने इसका डटकर विरोध किया. मुस्लिम तुष्टिकरण और वोट बैंक की निति को पहले से ही भांपते हुए वीर जी ने मुस्लिमो को वोटिंग के अधिकार से वंचित रखने की सलाह दी थी. हिन्दू समाज के मान बिन्दुओ की रक्षा और हिन्दू संगठन के लिए उनका सतत संघर्ष हिन्दू जागरण के इतिहास मैं एक प्रचंड प्रकाश सतम्भ के रूप में संसार भर के हिन्दुओ को प्रेरणा देता रहेगा.
[संपादित करें] स्वाधीनता संग्राम में जेल
युवावस्था में महाराज जी पंडित रामचन्द्र शर्मा वीर जी के नाम से पूरे देश में विख्यात थे. इन्होने कोलकाता और लाहौर के कांग्रेस अधिवेशनो में भाग लेकर स्वाधीनता का संकल्प लिया. सन 1932 में इन्होने अजमेर के चीएफ़ कमिश्नर गिवाह्सों की उपस्थिति में ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध ओजश्वी भाषण देकर अपनी निर्भीकता का परिचय दिया. परिणामस्वरुप इन्हें ६ माह के लिए जेल भेज दिया गया. रतलाम और महू में इनके ओजपूर्ण भाषणों के कारण ब्रिटिश प्रशासन कांप उठा था।[संपादित करें] गोभक्ति की प्रेरणा
वीर जी को गोभक्ति पिताश्री से विरासत में मिली थी. वीर जी ने जब देखा देश के विभिन राज्यों में कसाई-खाने बनाकर गोवंश को नष्ट किया जा रहा है तो इन्होने गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगने तक अन्न और नमक न ग्रहण करने की महान प्रतिज्ञा की जिसको इन्होने अंतिम साँस तक निभाया.काठियावाड़ के नवाबी राज्य मांगरोल के शासक मुहम्मद जहाँगीर ने राज्य में गोवंश हत्या को प्रोत्साहन दिया. वीर जी को गोभाक्तो से जब पता चला तो वे सन १९३५ में मांगरोल जा पहुंचे. और गोहत्या पर प्रतिबन्ध की मांग को लेकर अनशन शुरू कर दिया परिणामस्वरुप राज्य सरकार को झुकना पड़ा और गोहत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया.
[संपादित करें] पशुबलि का विरोध और रुकवाना
वीर जी १९३५ में कल्याण (मुंबई) के निकटवर्ती गाँव तीस के दुर्गा मंदिर में दी जाने वाली निरीह पशुओ की बलि के विरुद्ध संघर्षरत हुए. जनजागरण व् अनशन के कारण मंदिर के ट्रस्टियो ने पशुबलि रोकने की घोषणा कर दी. उन्होंने भुसावल, जबलपुर तथा अन्य अनेक नगरो में पहुँच कर कुछ देवालयों में दी जाने वाली पशुबलि को घोर व् अमानवीय करार देकर इस कलंक से मुक्ति दिलाई. स्वामी रामचन्द्र वीर ने 1000 से अधिक मंदिरों में धर्म के नाम पर होने वाली पशु बलि को बंद कराया था। कोलकत्ता के काली मंदिर पर होने वाली पशुबलि का विरोध करने पर आप पर प्राणघातक हमला भी हुआ। तब स्वयं महामना पंडित मदन मोहन मालवीय ने आकर आपका अनशन तुडवाया।[संपादित करें] गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा प्रशंसा
उनके पशुबलि विरोधी अभियान ने विश्वकवि गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर के हृदय को दर्वित कर दिया. विश्व कवी वीर जी के इस मानवीय भावनाओ से परीपूर्ण अभियान के समर्थन में कविता लिख कर उनकी पर्शंसा की.महात्मा रामचंद्र वीर
प्रन्घत्खेर खड्गे करिते धिक्कार
हे महात्मा, प्राण दिते चाऊ अपनार
तोमर जनाई नमस्कार '
हिन्दी अनुवाद- श्रीयुत रामचन्द्र शर्मा, हे महात्मा हत्यारों के निष्ठुर खड्गों को धिक्कारते हुए हिंसा के विरुद्ध तुमने अपने प्राणों की भेंट चढा देने का निश्चय किया। तुम्हें प्रणाम !
महात्मा वीर जी ने सन १९३२ से ही गोहत्या के विरुद्ध जनजागरण छेड़ दिया था. इन्होने अनेक राज्यों में गोहत्या बंदी से सम्बन्धी कानून बनाये जाने को लेकर अनेक अनशन किये. सन १९६६ में सर्वदलीय गोरक्षा अभियान समिति ने दिल्ली में व्यापक जन आन्दोलन चलाया. संसद के सामने लाखो गोभाक्तो की भीड़ पर तत्कालीन कोंग्रेस सरकार ने गोलिया चलवाकर लाखो गोभाक्तो का खून बहाया.
[संपादित करें] गोरक्षा अभियान में विश्वविख्यात अनशन
गोहत्या तथा गोभाक्तो के नरसंहार के विरुद्ध पूरी के शंकराचार्य स्वामी निरंजन देव तीर्थ, संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी व् वीर जी ने अनशन किये. तब वीर जी ने पुरे १६६ दिन का अनशन करके पुरे संसार तक गोरक्षा की मांग पहुचने में सफलता प्राप्त की थी.[संपादित करें] हिंदी साहित्य में योगदान
महात्मा वीर एक यशश्वी लेखक, कवी तथा ओजश्वी वक्ता थे. इन्होने देश तथा धरम के लिए बलिदान देने वाले हिन्दू हुतात्माओ का इतिहास लिखा. हमारी गोमाता, श्री रामकथामृत (महाकाव्य), हमारा सवास्थ्य, वज्रांग वंदना समेत दर्जनों पुस्तके लिख कर साहित्य सेवा में योगदान दिया और लेखनी के माध्यम से जनजागरण किया. ‘वीर रामायण महाकाव्य’ हिन्दी साहित्य को वीरजी की अदभुत देन है। रामचंद्र वीर ने गद्य और पद्य दोनों में बहुत अच्छा लिखा, उनकी अमर कृति ‘विजय पताका’ तो मुर्दों में जान फूंक देने में सक्षम है। अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने बाल्यकाल में इसी पुस्तक को पढकर अपना जीवन देश सेवा हेतु समर्पित किया। इसमें लेखक ने पिछले एक हजार वर्ष के भारत के इतिहास को पराजय और गुलामी के इतिहास के बजाय संघर्ष और विजय का इतिहास निरूपित किया है। अपनी अधूरी आत्मकथा "विकट यात्रा" को महात्मा वीर जी ने संक्षेप में 650 पृष्ठों में समेटा है। वह भी केवल 1953 तक की कथा है। उनके पूरे जीवन वृत्तांत के लिये तो कोई महाग्रन्थ चाहिये। ऐसे एक महान् लेखक और कवि का साहित्य जगत् अब तक ठीक से मूल्यांकन नहीं कर पाया है। महात्मा रामचन्द्र वीर की अन्य प्रकाशित रचनाएँ हैं - वीर का विराट् आन्दोलन, वीर रत्न मंजूषा,हिन्दू नारी, हमारी गौ माता, अमर हुतात्मा, विनाश के मार्ग (1945 में रचित), ज्वलंत ज्योति, भोजन और स्वास्थ्य वीर जी राष्ट्र भाषा हिंदी के लिए भी संघर्षरत रहे. एक राज्य ने जब हिंदी की जगह उर्दू को राजभाषा घोषित किया तो वीर जी ने उनके विरुद्ध अभियान चलाया व अनशन किया. तब वीर विनायक दामोदर सावरकर ने भी उनका समर्थन किया था. जहाँ मध्यकाल में वाल्मीकि रामायण से प्ररेणा लेकर गोस्वामी तुलसीदास जी ने जन सामान्य के लिए अवधी भाषा में रामचरित मानस की रचना की, वहीं आधुनिक काल में वाल्मीकि रामायण से ही प्रेरित होकर महात्मा रामचन्द्र वीर ने हिन्दी भाषा में श्री रामकथामृत लिखकर एक नया अध्याय जोडा है। राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति उनकी अनन्य भक्ति अनुपम है - नहिं हो सकती कोई भाषा मेरे तुल्य अतुल अभिराम। करता हूँ मैं अति ममतामय हिन्दी माता तुझे प्रणाम।।वीर जी को उनकी साहित्य, संस्कृति व धरम की सेवा के उपलक्ष्य में १३ दिसंबर १९९८ को कोलकत्ता के बड़ा बाज़ार लाईब्ररी की और से "भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार राष्ट्र सेवा" पुरुस्कार से सम्मानित किया गया. गोरक्षा पीठाधीश्वर सांसद अवदेश नाथ जी महाराज ने उन्हें शाल व एक लाख रुपया देकर सम्मानित किया था. आचार्य विष्णुकांत शास्त्री ने उन्हें जीवित हुतात्मा बताकर उनके पार्टी सम्मान परकत किया था.
[संपादित करें] हिन्दू हितो के लिए "आदर्श हिन्दू संघ" की स्थापना
पशुबली और गोहत्या की बंदी के लिए महात्मा जी ने "पशुबलि निरोध समिति" नामक संगठन का निर्माण किया किन्तु शीघ्र ही उन्होंने अनुभव किया कि हिन्दू समाज का अन्धविश्वास केवल पशुबली तक ही सीमिति नहीं है. हिन्दू समाज के सम्पूर्ण कायाकल्प की आवश्यकता है और उन्होंने "पशुबलि निरोध समिति" को "अ.भा. आदर्श हिन्दू संघ" में संगठित किया. इस संगठन को विश्व कवि रविन्द्रनाथ ठाकुर, विज्ञानाचार्य सर प्रफुल्ल चन्द्र राय, प. रामानंद चटोपाध्याय और महामना पंडित मदन मोहन मालवीय और डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार प्रभुति महापुरुषों का आशीर्वाद प्राप्त था. पुरे देश में आदर्श हिन्दू संघ को संगठित किया गया. जिलेवार शाखाएं खोली गयी. आदर्श हिन्दू संघ निश्चय ही हिन्दू जाति के लिए संजीवनी शक्ति का काम कर सकता था किन्तु देश की परिसिथ्तिया गुरुदेव के प्रयत्नों को दूसरी दिशा में ले गयी. स्वराज्य के पूर्व भी वे पशुबलि और सामाजिक कुरूतियों के उन्मूलन के साथ - साथ हिन्दू हितो की रक्षा और गोहत्या निषेध के लिए अपनी शक्ति लगाते रहे थे. उनके अनशन और सत्यग्रहों से गोवंश और हिन्दू हितो की दिशा में उल्लेखनीय सफलता भी प्राप्त हुई, किन्तु स्वराज्य और देश विभाजन के पश्चात् उनकी सारी शक्ति गोहत्या निषेद और हिन्दू हितो के संघर्ष की और उन्मुख हो गयी. परिणामस्वरूप आदर्श हिन्दू संघ के संगठन को जो ध्यान और समय मिलना चाहिए था वो नहीं मिला. उनके एकमात्र उत्तराधिकारी के रूप में आचार्य धर्मेन्द्र भी उनके हर आन्दोलन में साथ रहे और आदर्श हिन्दू संघ का रचनात्मक कायाकल्प भी दोनों संतो के मन - मश्तिषक में समाया रहा. इसलिए जब १९७८ ई० में आचार्य श्री ने गुरुदेव का आसन ग्रहण कियो तो अपने पीठाभिशेक के साथ ही उन्होंने गुरुदेव के हिन्दू समाज के पुनरुतुथान और परिष्कार के पवित्र संकल्प की पूर्ति के लिए आदर्श हिन्दू संघ को "धर्म समाज" के नाम में प्रवर्तित कर दिया. पीठाभिशेक के समारोह में विराटनगर में देश के कोने - कोने से एत्रत साधू संतो और सद्गृहस्थ अनुयायियों के बीच "धर्म समाज" की प्रथम बार ध्वज पताका फहरायी और आचार्य श्री ने धर्म समाज का घोषणा पत्र प्रसारित किया. विराटनगर के प्रथम सम्मलेन के पश्चात् मध्य प्रदेश के नागदा और उज्जयिनी में धर्म समाज के द्वित्य और त्रितय सम्मेलन हुए. तत्पश्चात विराटनगर में चतुर्थ सम्मेलन भी आयोजित किया गया. सभी सम्मेलनों में पुरे देश से प्रतिनिधि उत्साहपूर्वक सम्मिलित हुए. परन्तु कुछ लोगो ने धर्म समाज नाम पर अपना अधिकार जताया और इस नाम से पहले से एक संगठन के अस्तित्व का दावा प्रस्तुत किया. उस समय आचार्य श्री ने अपना पूरा समय विश्व हिन्दू परिषद् के "श्री राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन" को समर्पित कर रखा था. परिणामसवरूप धर्म समाज की प्रगति पूरी तरह अवरुद्ध हो गयी. अपनी आयु के ६५ वर्ष पूर्ण होने पर पुणे में १० जनवरी को सस्त्रादी पर्वत की उपत्यका में श्रीस्मर्थ रामदास महाराज की पवित्र पादुकाओ का पूजन करके आचार्य धर्मेन्द्र महाराज ने "पावन - परिवार" के शुभारम्भ का संकल्प किया और विधिवत इस संगठन की स्थापना की. पवन के पुत्र परम पवन श्री वज्रांगदेव हनुमान भगवान की करुना, सेवा, संकल्प और शील का अनुसरण करने वाले सद्भाक्तो का संगठन ही "पावन - परिवार" है.[संपादित करें] सतत संघर्ष
वीर जी महाराज ने देश की स्वाधीनता, मूक प्राणियों व गोमाता की रक्षा व हिन्दू हितो के लिए २८ बार जेल यातनाये सहन की।वीर जी स्वामी श्रद्धानन्द, पंडित मदन मोहन मालवीय, वीर सावरकर, भाई परमानन्द जी, केशव बलिराम हेडगवार जी के प्रति श्रद्धा भाव रखते थे। संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवालकर उपाख्य श्री गुरुजी, भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार, लाला हरदेव सहाय, संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, स्वामी करपात्री जैसे लोग वीर जी के तयागमय, तपस्यामय, गाय और हिन्दुओ की रक्षा के लिए किये गए संघर्ष के कारण उनके प्रर्ति आदर भाव रखते थे।
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