मंगलवार, 9 अगस्त 2011

दवाओं के परीक्षण में सैकड़ों की मौत


 सोमवार, 8 अगस्त, 2011 को 18:23 IST तक के समाचार



स्वास्थ्य मंत्री ने बताया कि क्लीनीकल ट्रायल्स रेजिस्ट्री संस्थान के पास अब देश में किए जा रहे हर परीक्षण की जानकारी है.
भारत में पिछले चार सालों में दवाओं के असर की जांच करने के लिए किए जा रहे परीक्षणों में सैकड़ों लोगों की मौत हुई है.
स्वास्थ्य मंत्री ग़ुलाम नबी आज़ाद ने संसद को जानकारी दी है कि पिछले चार वर्षों में ऐसे परीक्षणों के दौरान क़रीब 1500 मरीज़ों की मौत हुई है.
स्वास्थ्य मंत्री ने बताया कि पिछले साल इन परीक्षणों में भाग ले रहे लोगों में से क़रीब 500 की मौत हुई और इनमें से केवल 22 मामलों में दवा कंपनियों ने मृतकों के परिजनों को मुआवज़ा दिया.
भारत में फिलहाल क़रीब 1500 दवाओं के परीक्षण किए जा रहे हैं.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दवाओं के परीक्षण के लिए दवा कंपनियां भारत की ओर आकर्षित हैं क्योंकि यहां चिकित्सा क्षेत्र में प्रशिक्षित लोग और परीक्षण करवाने के इच्छुक मरीज़ कम ख़र्च पर मिल जाते हैं और साथ ही परीक्षण प्रणाली पर सरकारी नियंत्रण कम है.
ग़ैर-सरकारी संस्थाएं लगातार दवाओं के लिए किए जा रहे परीक्षणों में भाग लेने वाले मरीज़ों को इससे जुड़े ख़तरों की पूरी जानकारी देने और उनकी सहमति लेने पर बल देती रही हैं.

सरकारी नीति

भारत में दवाओं का परीक्षण वर्ष 2005 में शुरू हुआ और इसके लिए क़ानूनी स्वीकृति लेना वर्ष 2009 में अनिवार्य किया गया.
अब कंपनियों को परीक्षण के लिए सेंट्रल ड्रग्स स्टैन्डर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइज़ेशन (केंद्रीय दवा मानक नियंत्रण संस्थान) से अनुमति लेनी होती है.
इसके लिए हर दरख़्वास्त पर ग़ौर करने के लिए एक आचार समिति बनाई जाती है. ये समिति दवा कंपनी से परीक्षण के मक़सद, दायरे, अवधि और तरीक़े के बारे में पूरी जानकारी लेती है.
इसके बावजूद स्वास्थ्य क्षेत्र में काम कर रहे लोगों का दावा है कि कई परीक्षणों को नियमों की अनदेखी कर स्वीकृति दे दी जाती है.
इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स की प्रबंध संपादक संध्या श्रीनिवासन भारत में दवाओं के परीक्षण में आचार से जुड़े सरोकार पर शोध कर चुकीं हैं.
वो कहती हैं, “भारत की मौजूदा व्यवस्था में जवाबदेही का अभाव है, मसलन, दवा कंपनियां अगर मरीज़ों को पूरी जानकारी दिए बग़ैर उन पर परीक्षण कर रही हैं या किसी भी और नियम का उल्लंघन कर रही हैं, तो उन्हें स्वीकृति देने वाली आचार समितियों से सवाल नहीं पूछे जा सकते.”
श्रीनिवासन बताती हैं कि ख़र्चीले इलाज वाली गंभीर बीमारियों के लिए जब दवा कंपनियां किसी स्थानीय डॉक्टर के ज़रिए मरीज़ों को नई दवा के बारे में बताती हैं तो मरीज़ अक्सर इससे जुड़े जोख़िम को नहीं समझ पाते और इसे मुफ़्त इलाज मान कर हामी भर देते हैं.

एचपीवी टीका

“भारत की मौजूदा व्यवस्था में जवाबदेही का अभाव है, मसलन, दवा कंपनियां अगर नियम का उल्लंघन कर रही हैं तो उन्हें स्वीकृति देने वाली आचार समितियों से सवाल नहीं पूछे जा सकते.”
इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स की प्रबंध संपादक संध्या श्रीनिवासन
वर्ष 2008 में एक अमरीकी ग़ैर-सरकारी संस्था ‘पाथ’ ने आंध्र प्रदेश में सर्विकल कैंसर से बचाव के लिए बनाए गए एचपीवी टीके का परीक्षण करने की अनुमति ले ली.
लेकिन स्वयंसेवी संस्थाओं के इसके ख़िलाफ विरोध व्यक्त किया और आरोप लगाया कि जिन बच्चियों को ये टीका दिया जा रहा है उन्हें उस बारे में जानकारी नहीं है और उनसे परीक्षण का हिस्सा बनने की अनुमति भी नहीं ली गई है.
इस परीक्षण के दौरान सात लड़कियों की मौत हो गई. दबाव पड़ने पर आखिरकार ये मुद्दा संसद में उठा और एक जांच समिति का गठन किया.
समिति ने पाया कि इन बच्चियों से नहीं बल्कि इनके हॉस्टल के वॉर्डन से बच्चियों पर परीक्षण की अनुमति ली गई थी.
इस परीक्षण को फौरन रोकने का आदेश दिया गया और इससे जुड़े सभी कार्यों के रोककर उनकी समीक्षा करने का आदेश दिया गया.
भारतीय वाणिज्यिक उद्योग संघ यानी एसोचैम के मुताबिक़ भारत में दवाओं के परीक्षण का उद्योग आठ हज़ार करोड़ रुपए तक अनुमानित है.
एसोचैम के आकलन के मुताबिक़ अगले पांच सालों में इस उद्योग में 50,000 लोगों को व्यवसाय मिलेगा.

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