मंगलवार, 9 अगस्त 2011

मदरसों में हिन्दुओं का उर्दू रुझान


बिहार मदरसा
इस साल बिहार राज्य मदरसा शिक्षा बोर्ड से मैट्रिक के 16 और इंटर के 31 हिन्दू परीक्षार्थी पास हुए.
बिहार में मदरसों में पढ़ाई के ज़रिए उर्दू माध्यम से प्राप्त शिक्षा को करियर का आधार बनाने वाले ग़ैर मुस्लिम छात्र-छात्राओं की तादाद बढ़ने लगी है.
राज्य मदरसा शिक्षा बोर्ड से इस वर्ष फौक़ानिया (मैट्रिक) के 16 और मौलवी (इंटर) के 31 हिन्दू परीक्षार्थी पास हुए.
पिछले कुछ सालों में ये आंकड़े लगातार बढ़े हैं और ख़ासकर हिन्दू परिवारों की लड़कियों में ये उत्साह अधिक देखा जा रहा है.
कुछ असामान्य से लग रहे इस रुझान को कई लोग राज्य में भाषाई स्तर पर धर्मनिरपेक्ष सोच का विकास या दूसरी ज़बान सीखने का शौक़ मान रहे हैं.
कई प्रेक्षकों की राय में यह सरकारी प्रोत्साहन से जुड़ा हुआ और अच्छे अंकों से पास करने की सुविधा वाला मामला है.
लेकिन कुछ लोग ये भी मानते हैं कि बिहार के आम सरकारी स्कूलों के मुक़ाबले मदरसों की पढाई चूँकि नियमित, व्यवस्थित और बेहतर मानी जाती है, इसलिए ऐसा रुझान है.

बढ़ता रूझान

बिहार राज्य मदरसा एजुकेशन बोर्ड के चेयरमेन एजाज़ अहमद कहते हैं, ''मदरसों में शिक्षा का स्तर सरकारी स्कूलों के मुक़ाबले ऊंचा होने और रेगुलर पढ़ाई से बेहतर होने के चलते ग़ैर मुस्लिम गार्जियन भी अपने बच्चों का दाख़िला यहाँ करा रहे हैं. ये तादाद दिन-ब-दिन बढ़ रही है.''

सूर्या आनंद,छात्रा

सूर्या आनंद

'' पड़ोस के मुस्लिम-परिवार के संपर्क में आने के बाद और उनके प्रोत्साहन से मैं और मेरी बड़ी बहन उर्दू और मदरसे की तरफ़ आकृष्ट हुए. पहले तो उर्दू लिखने और बोलने में भारी मुश्किलें महसूस करके मैं नर्वस हो जाती थी, लेकिन अभ्यास करते-करते सब आसान हो गया. अब तो मैं उर्दू-टीचर बनना चाहती हूँ.''
उन्होंने दावा किया कि मदरसे की तालीम हासिल करने वाले हिंदी भाषी बच्चों की भाषा अच्छी हो जाती है.
इसी साल पटना सिटी के एक मदरसे से मौलवी यानी इंटर स्तर की परीक्षा उर्दू माध्यम से प्रथम श्रेणी में पास करने वाली सूर्या आनंद से मेरी मुलाक़ात हुई.
उन्होंने पटना विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में बीए ऑनर्स की पढ़ाई के लिए हिन्दी के साथ-साथ उर्दू को भी एक विषय के रूप में चुना है.
उर्दू से अपने लगाव की वजह बताते हुए सूर्या आनंद कहती हैं, ''पड़ोस के मुस्लिम-परिवार से सम्पर्क और प्रोत्साहन पाकर मैं और मेरी बड़ी बहन उर्दू और मदरसे की तरफ़ आकृष्ट हुए. पहले तो उर्दू लिखने और बोलने में भारी मुश्किलें महसूस करके नर्वस हो जाती थी, लेकिन अभ्यास करते-करते सब आसान हो गया. अब तो मैं उर्दू-टीचर बनना चाहती हूँ.''
संस्कृत भाषा और उर्दू ज़बान में सही तलफ्फुज़ या शुद्ध उच्चारण पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है. ख़ासकर ग़ैर सरकारी इस्लामी मदरसे में इस पर अधिक ध्यान दिया जाता है.
इसलिए बहुत-से लोग इस वजह से भी अपने बच्चों को उर्दू या संस्कृत के अच्छे स्कूलों में दाख़िला दिलवाकर उनकी भाषा को शुद्ध और सुंदर बनाना चाहते हैं.

आरोपों भरे सवाल

लेकिन बिहार में सरकारी मदरसों या संस्कृत विद्यालयों के शैक्षणिक हालात पर कई तरह के आरोपों भरे सवाल भी उठते रहे हैं.
यही वजह है कि यहाँ मदरसे की तरफ़ हिन्दू बच्चों के झुकाव के बारे में कुछ लोग अलग राय भी रखते हैं. यहाँ उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार अशरफ़ अस्थान्वी दाल में काला बताते हैं.
उनका आरोप है कि सरकारी मदरसे से फौक़ानिया या मौलवी के इम्तहानों में नक़ल करवा कर फ़र्स्ट डिविज़न का सर्टिफ़िकेट दिलवाने का घपला चल रहा है. उनके मुताबिक़ ऐसा ही हाल संस्कृत स्कूलों का भी है.
मदरसों में शिक्षा का स्तर सरकारी स्कूलों के मुक़ाबले ऊंचा होने और रेगुलर पढ़ाई से बेहतर होने के चलते ग़ैर मुस्लिम गार्जियन भी अपने बच्चों का दाख़िला यहाँ करा रहे हैं. ये तादाद दिन-ब-दिन बढ़ रही है
एजाज़ अहमद, अध्यक्ष राज्य मदरसा एजुकेशन बोर्ड
अशरफ़ कहते हैं, ''जैसे-तैसे चोरी-घूसखोरी के बूते फ़र्स्ट डिविज़न का सर्टिफिकेट दिलाने वालों के पीछे तो हिन्दू-मुसलमान सब की लाइन लगी ही रहेगी और यही सबसे बड़ा आकर्षण है यहाँ मदरसा शिक्षा बोर्ड और संस्कृत शिक्षा बोर्ड का.''
उधर, एक से अधिक भाषा सीखने-सिखाने के पक्षधर लोग बिहार में उर्दू और मदरसे की तरफ़ झुकाव को सामाजिक सद्भाव के लिहाज से शुभ संकेत मानते हैं.
यहाँ के वरिष्ठ गांधीवादी विचारक रज़ी अहमद का कहना है,'' कोई भाषा किसी ख़ास क़ौम की बपौती नहीं होती और हिन्दी-उर्दू को हिन्दू-मुसलमान में बांटकर देखना भी नहीं चाहिए. इसलिए जब मदरसे में हिन्दू बच्चों की तालीम जैसी ख़बर आती है तो इससे सरकारी धंधे वाली गड़बडियों के बावजूद आम लोगों के आपसी भाईचारे को बल मिलता है.''
वैसे ज़्यादातर लोगों का यही मानना है कि मदरसा या अन्य अल्पसंख्यक श्रेणी वाले स्कूल-कॉलेज की ओर हिन्दू छात्र-छात्राओं के हालिया रुझान का कोई एक कारण नहीं, बल्कि कई मिले-जुले कारण हैं.

ऊंचे अंकों की चाहत

कोई भाषा किसी ख़ास क़ौम की बपौती नहीं होती और हिन्दी-उर्दू को हिन्दू-मुसलमान में बांटकर देखना भी नहीं चाहिए. इसलिए जब मदरसे में हिन्दू बच्चों की तालीम जैसी ख़बर आती है तो इससे सरकारी धंधे वाली गड़बडियों के बावजूद आम लोगों के आपसी भाईचारे को बल मिलता है.
रज़ी अहमद , गांधीवादी विचारक
दरअसल बिहार की नीतीश सरकार ने जबसे ये ऐलान कर दिया कि स्कूल शिक्षक पद पर नियुक्ति, 'योग्यता परीक्षा' के आधार पर नहीं, बल्कि परीक्षाओं में प्राप्त अंकों के आधार पर होगी, तबसे ग़लत-सही किसी भी तरीक़े से ऊंचे अंक हासिल करने की होड़-सी मची है.
इसी मौक़े का फ़ायदा उठाने के लिए ऊंचे अंकों के साथ डिग्रियां और प्रशिक्षित शिक्षक होने के प्रमाणपत्र लेने और देने वालों का बाज़ार खुल गया.
ज़ाहिर है कि इस बहती गंगा में हाथ धोने जैसा लाभ लेने के लिए उर्दू माध्यम से पढ़ाई और सर्टिफिकेट हासिल करने की चाहत हिन्दू लड़के-लड़कियों में भी बढी.
साथ ही ये भी माना जाता है कि सरकारी लापरवाही और वोट की राजनीति के कारण संबंधित संस्थानों में भ्रष्टाचार को फलने-फूलने का भरपूर मौक़ा मिलता रहा है.
मदरसा बोर्ड हो या संस्कृत शिक्षा बोर्ड, दोनों के लंद-फंद वाले क़िस्से अक्सर चर्चा में रहते हैं.
इनके दिए प्रमाणपत्र भले ही योग्यता के लिहाज से संदेह के घेरे में रहे हों पर घूस लेकर नौकरी देने वालों की नज़र में वे नक़ली नहीं, असली मान लिए जाते हैं. फिर भी इन तमाम नकारात्मक बिन्दुओं के बीच एक सकारात्मक बिंदु की चमक फीकी नहीं पड़ती.
वो इसलिए कि किसी मुस्लिम लड़के-लडकी का संस्कृत विषय के साथ एमए के इम्तहान में अव्वल आना या किसी हिन्दू लड़के-लड़की को उर्दू भाषा-साहित्य में पीएचडी की डिग्री मिल जाने के एक नहीं कई उदहारण सामने आते रहे हैं

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