गुरुवार, 30 जुलाई 2020

मर्द की नाक / सुभाष चंदर

( प्रतिष्ठित पत्रिका 'इंद्रप्रस्थ भारती' के व्यंग्य विशेषांक में नई व्यंग्य कथा ' मर्द की नाक '( टाइप प्रति संलग्न) 


मर्द की नाक

सुभाष चंदर

छंगा को इलाके में दबंग मर्द का रुतबा अगर हासिल है तो उसके पीछे कई ठोस कारण हैं। पहला कारण तो उसकी झब्बा झब्बा  मूंछें  है जो हर समय तनी रहती हैं और उसकी दबंगई का विज्ञापन करती हैं। मूंछों के ठीक नीचे मोटे-मोटे होठ हैं, इन दोनों के बीच में एक छेद है। उस छेद के भीतर एक जुबान है और  इस जुबान में एक  दुनाली फिट है। इस दुनाली में गालियों के अनगिनत  कारतूस भरे हैं जिन्हें वह अक्सर दागता रहता है। इनसे काम न चले तो वह हाथ छोड़ने में भी नहीं हिचकता। अलबत्ता ऐसे मौको पर वह जरूर ध्यान रखता है कि सामने वाला बंदा उससे ताकत और हैसियत में कमजोर भर हो। रही बात गुप्त रोगों वाले इश्तिहारी मर्द की तो बंदा वहाँ भी सौ फी सदी टंच है। इसका पक्का सबूत ये है कि उसने पिछले पंद्रह  सालों में तीन शादियां कीं और उन बीवियों को इतनी... इतनी मर्दानगी दिखाई कि पहली  पूरे दो  साल टिकी। उसने इन दो सालों में लगभग एक दर्जन बार माथे की पट्टी कराई। तीन बार पूरे बदन की सिंकाई कराई  और हड्डी तुड़वाने का मौका तो उसे सिर्फ़ एक ही बार मिला। दूसरा मौका मिलने ही वाला था कि उसके अंदर पी टी ऊषा की आत्मा प्रवेश कर गयी। वह भागी... ऐसी भागी कि सीधी अपने बाप के घर आकर रुकी। उसके बाद उसने ससुराल जाने का नाम नहीं लिया। 
 छंगा ने पूरे तेरह महीने  और बीस दिन उसका, इंतज़ार किया l फिर वह सत्तर कोस दूर के एक गाँव से एक  औरत को ब्याह लाया। इस औरत ने पूरे चार साल छंगा की मर्दानगी को चुनौती दी। वह नाश्ते में बेनागा चार डंडे, दोपहर को चार-छह घूंसे का भोजन और रात को दस बारह थप्पड़ों का डिनर करती रही। उसके अलावा दारू के साथ चढ़ने वाली छंगा की दुर्दांत टाइप की मर्दानगी भी झेलती रही। उसके बाद भी, वह अपनी हिम्मत के बलबूते पर छंगा की बीवी बनी रही। एक दिन दारू के नशे में छंगा ने उसका हाथ तोड़ दिया, इसी के साथ ही उस औरत की हिम्मत ने भी उसका साथ छोड़ दिया। वह एक बार गयी तो ऐसी गयी कि बीती जवानी की तरह फिर नहीं लौटी। 
 इस घटना से छंगा की मर्दानगी को इतनी ठेस लगी कि वह पूरे तीन साल  तक पत्नी रहित रहा। इन तीन सालों में उसने बहुत काम किया l दरज़नो कोठे आबाद किये l खेतों में/ घर में  काम करनेवाली नौकरानियों की मज़बूरी खरीदी । दो चार बार फंसने की नौबत आई तो अपने ख़ास गोबरधन की मदद ले ली l किस्सा कोताह ये कि इस अवधि में छंगा चुप नहीं बैठा , नए नए शिगूफे खिलाता रहा,  साथ ही बीवी नंबर दो के पास वापस आ जाने के पैगाम भी  भिजवाता रहा। वहाँ से ‘ना’ की पक्की चिट्ठी आ जाने के बाद, उसने फिर एक ब्याह रचा डाला। 
 बीवी नं. 3 उसकी मर्दानगी के आगे शुरू से ही कमजोर रही। फिर भी उसने अपनी हिम्मत, मेहनत और बर्दाश्त करने की ताकत के बल पर पूरे तीन  साल  और सात  महीने छंगा की मर्दानगी को झेला। उसके बाद वह भी टिल्ली-लिल्ली झा हो गयी। 
 छंगा ने इसके बाद फिर से अपने हाथ पीले कराने का अभियान शुरू कर दिया। पर आसपास के इलाकों में उसकी प्रसिद्धि इतनी अधिक फैल चुकी थी कि लड़की तो दूर, कोई विधवा, परित्यक्ता भी उससे ब्याह करने की हिम्मत नहीं जुटा पायी। 
और कोई होता तो हारकर चुपचाप बैठ जाता या पुरानी बीवियों से ही घर वापसी की जुहार लगाता। पर छंगा तो  मर्द था, वो भी दबंग मर्द। वह भला कैसे हार मान  जाता ? वह अगले साल ही  ब्याह के नाम पर एक गांव से बीस हजार में एक सत्तह बरस की लड़की खरीद लाया। लड़की के घर में उसके बाप और पांच बहनों के साथ भुखमरी नाम की  एक मोहतरमा और रहती थी जो लड़की के जवान होते ही, बाप को उसकी बिक्री करने को उकसा देती थी l  सो वह बाप बेटी के जवान होते ही वह उसे सालाना बाज़ार में बेच आता था। अलबत्ता पंडितजी की मेहरबानी से उस पर ठप्पा ब्याह का जरूर लगवा लेता था। इस बिक्री से उसके घर का साल भर का खर्चा चल जाता था और बेटी के जीवन भर के दाना-पानी का जुगाड़ हो जाता था। 
 छंगा की चौथी बीवी छबीली , दुबली पतली रास की मरियल सी छोकरी थी। सांवला रंग, लम्बोतरा चेहरा, मोटी-मोटी आँखें और जगह-जगह से झांकती हड्डियाँ। कुल जमा यही हुलिया था उसका। चलते-फिरते कंकाल जैसी लगती थी। सच बात तो ये थी कि अन्न  भर पेट मिले तब बदन पर  मांस आता है। छबीली के घर में तो हफ्ते में चार-छह बार से ज्यादा पेट भर खाना ऐय्याशी था सो ऐसे में बदन पर मांस भी उसी अनुपात में आया था । 
 पर छंगा के घर आकर छबीली को और कुछ मिला ना मिला पर दोनों जून का खाना जरूर मिला। बस इस दो जून के खाने के लिए उसे कीमत जो है, वो अच्छी खासी चुकानी पड़ी। सुबह-शाम लात-घूंसे और रात को छंगा की दारूनोशी के बाद की । रोज़ छंगा नशे में टल्ली होकर आता और उस पर हमला कर देता। रात-रात भर वह गर्भिणी गाय सी डकराती, हाथ पैर-जोड़ती। बदन के दर्द की शिकायत का हवाला देती, हड्डियों की जकड़न से उपजी मज़बूरी बताती। पर दबंग मर्द के आगे उसकी कहाँ चलती। वह ज्यादा ना-नुकुर करती। रोना-चिल्लाना करती। छंगा पर उतनी ही मर्दानगी चढ़ती जाती। वह मारते-मारते उसका बदन सुजा देता। कई बार तो वह बेहोश तक हो गयी पर दबंग मर्द ने उसे अपनी मर्दानगी दिखाए बगैर फिर भी नहीं छोड़ा l
 इसी तरह सात-आठ साल गुज़र गये। इन सात-आठ सालों में बहुत कुछ बदल गया। दोनों जून के अच्छे खाने से छबीली की मरियल काया पर मांस चढ़ आया। तीन टाइम की बेनागी पिटाई ने उसके बदन को मज़बूत बना दिया। हर वक्त की गाली-गलौच ने उसकी जुबान की बंद नसें भी खोल दीं। किस्सा कोताह ये कि अब छबीली सात-आठ बरस पहले की मरियल, सहमी-सिमटी सी छबीली ना रहीं। उसकी जगह एक 24-25 बरस की सांवली सलोनी, मज़बूत छबीली ने ले ली थी। छबीली की जवानी का ग्राफ ऊपर को जा रहा था पर अपने दबंग मर्द उर्फ चौधरी छंगा सिंह के मामले में ये उल्टा चल रहा था। वह अब पचास के ऊपर  पहुंच चुका था। यानी उसकी उम्र की दुकान में माल कम बचा था। बची-खुची कसर कोठे बाज़ी, दारू और हरामखोरी के चूहो ने पूरी कर रखी थी। सयाने शुरू से कहते हैं कि ऐसे हालात बन जायें तो एक टैम पे, मर्दानगी के फूल भी मुरझाने लगते हैं। छंगा के मर्द को भी अहसास तो होने लगा था पर दारू की गमक, मूंछों की छनक और दबंग होने  की रमक में  इस अहसास को वह खुद से छुपाता रहा था। बाद में हारकर उसे गुप्त रोग विशेषज्ञो की शरण लेनी पड़ी। उन्होंने मर्दानगी के फूलो को तरोताज़ा बनाय रखने के लिए, उसके शरीर के गमले में शिलाजीत,सफ़ेद मूसली  और जाने-जाने कौन सी औषधियों की खाद डाली। जाने माने वैद्यों  की भस्मों और आसवों ने उसमें पानी डाला। कुछ दिनों तक मर्दानगी की क्यारी में बहार आई जरूर पर कुछ ही दिनों में ये बहार फिर रूठ गयीं। 
 अब छंगा का बाहर जाना लगभग बंद हो लिया। खेतों-क्यारियों में भी घसियारनें, निश्चिंत होकर जानवरों के लिए चारा  काटने लगीं। कोठो की आवाज़ाही में विध्न पहले ही पड़ लिया था। अब मर्दानगी के परिक्षण का आखिरी अखाड़ा जो बचा था- उसका नाम था 'घर'। घर जिसे छबीली नाम की मोहतरमा संभालती थी जो छंगा की चौथी बीवी की पोस्ट पर तैनात थी। छंगा को यकीन था कि चाहे उसकी मर्दानगी का डंका कहीं और बजे ना बजे पर घर में तो उसका राज है । इस साम्राज्य को बनाए रखने के लिए वह मेहनत भी पूरी करता था। साम्राज्य पर चूंकि खतरा मंडरा रहा था, सो उसे ऐहतियातन मुस्तैदी बरतनी शुरू कर दी थी l अब उसने बिना गालियों के छबीली से बात करना बंद कर दिया था । थप्पड़-घूंसों वाली पिटाई की हफ्ते में  तीन बार की तय मात्रा बढ़ाकर छह बार कर दी थी। पर चाहकर लाठी का प्रयोग नहीं बढ़ा पाया था क्योंकि लाठी चलाने के बाद सुबह हाथों की नसें दुखती थीं। कई दिन मालिश करानी पड़ती थी। पर मज़बूरी थी, बीवी संभालनी भी तो जरूरी थी। अब उसने रात को छबीली के कमरे में जाना भी कम कर दिया था। अगर दारू के नशे में चला भी जाता तो थोड़ी देर बाद ही छबीली के उलाहने में सारा नशा उतर जाता। नशा दुबारा चढ़ाने के लिए उसे लाठी का इस्तेमाल करना पड़ता। इससे दो फायदे हो जाते, नशा दुबारा जम जाता और छबीली की जुबान, उसकी मर्दानगी के कसीदे पढ़ने से भी रुक जाती। 
 पर एक दिन इस लाठी का इस्तेमाल भी बंद हो गया। उस रात जब वह दारू पानी के बाद, छबीली के कमरे में घुसा। कुछ नोचा-नाची सी की तो छबीली के मुंह से निकल ही गया-,‘’ रहने दो,अब  तुम ये नोचा-घसीटी ही कर सकते हो।बाकी तुम्हारे बस का कुछ ना है।‘’ सुनते ही छंगा के खून का टैम्परेचर बढ़ गया। उसने पहले राऊन्ड में दर्जन भर गालियां दी, गिनकर छह थप्पड़  रसीद  किए, जबकि लात का बस एक ही बार इस्तेमाल कर पाया।  चीख के रूप में उनकी पावती भी ले ली। पर उससे छबीली की आँखों की हिकारत कम ना हुई। इस हिकारत की बीमारी के इलाज के लिए उसे लट्ठ नामक यंत्र का उपयोग ही बेहतर लगा। उसने जैसे ही मारने के लिए लट्ठ ऊपर उठाया। लंबी-तगड़ी छबीली ने ऊपर से ही लट्ठ को पकड़ कर छीन लिया। छंगा ने अपने बाजुओं और दारू की सारी ताकत लगा दी पर लट्ठ नहीं छीन पाया। अलबत्ता इस धक्का-मुक्की में वह ज़मीन और सूंघ  गया। थोड़ी देर बाद हिम्मत करके उठा। और मज़बूरी में, अपनी मर्दानगी की क्यारियों में, गालियों का पानी छोड़ते हुए बाहर आ गया। अलबत्ता लाठी छबीली ने अपने पास ही रख ली l
 उस रात  पूरी बोतल चढ़ा लेने के बाद भी उसे नींद नहीं आई।
 इस घटना के बाद छंगा के मर्द में कई गुणात्मक परिवर्तन हुए। उसका गांधी जी के अंहिसा के सिद्धांत में विश्वास बढ़ने लगा।ब्रह्मचर्य के प्रयोगों के प्रति रुचि बढ़ने लगी। लाठी का प्रयोग पहले ही वर्जित हो चुका था। धीरे-धीरे थप्पड़-चालन क्रिया भी मंदी पड़ने लगी। मर्दानगी की मेंटीनेंस का सारा दारोमदार गालियों तक सीमित होकर रह गया। छबीली के कमरे में एक-दो बार गया भी तो वहाँ अपनी लाठी पड़ी देखकर चुप-चुपाने बाहर आ गया। 
 अब छंगा का मर्द दिन भर मूंछों पर ताव देकर गाँव-जवार में घूमता। नौकरों को गलियाता। रात को लालपरी की बोतल खोलता, हर पैग के साथ गालियों की मात्रा बढ़ाता जाता। छबीली, उसके बाप, अपनी पुरानी बीवियो, पड़ौसियों सभी की माँ-बहनों से जुबानी रिश्ता बनाता, कुछ देर बहकता, अंत में थक-हारकर सो जाता। 
 उस रात भी वह सारे शराबोचित काम निपटाकर सो रहा था। रात के लगभग तीन बजे होंगे। एकाएक खटके से उसकी आँखें खुली। वह हड़बड़ा सा गया। उसे लगा जैसे बरामदे से होकर दबे-कदमों कोई अंदर के कमरे की ओर जा रहा है। जरूर चोर होगा। इतना सोचते ही उसने सरहाने रखा कट्टा उठाया। और बिना आवाज़ किये बाहर आ गया। उसने देखा कि वह चोर सीधे छबीली के कमरे में घुस गया। घुसते ही उसने अंदर की सांकल लगा ली। बस उसका माथा ठनक गया। हे राम ! मर्द के घर मुठमर्दी। नहीं....ऐसा नहीं हो सकता। उस जैसे दबंग मर्द की बीवी ऐसी नहीं हो सकती। नहीं... उसे स्वीकार करने में वक्त लगा। फिर क्रोध में भुनभुनाते हुए उसने सोचा, फिर उसने दरवाज़ा खटखटा दिया। अंदर से आ रही। खुसर-पुसर की आवाजें बंद हो गयीं। छंगा ने दरवाज़ा फिर जोर से खटखटाया- और चिल्लाया-,‘’ बाहर निकल हरामी, छंगा की इज्ज़त से खेलता है। आज तुझे जिंदा नहीं छ़ोडूगा।‘’ उसका इतना कहना था कि तेज़ी से दरवाज़ा खुला। एक आदमी तेजी से उसे धक्का देता हुआ बाहर की ओर भागा। उसके धक्के से वह कट्टे समेत ज़मीन पर जा गिरा। उठते-उठते उसने देखा कि वो चोर और कोई नहीं उसका नौकर मन्नू पासी था। उसने अपना माथा ठोक लिया। मन किया कि कट्टे से गोली दाग दे उस पर l कट्टा उठाया भी ,निशाना भी लगाया पर जाने क्या दिमाग में आया कि ट्रिगर नहीं  दबाया l इस सारे नकारेपन का बदला  उसने मन्नू पासी के घर की औरतों से अपने जुबानी रिश्ते बनाकर लिया  l मन्नू के हिस्से की गालियां हवा के सुपुर्द करने के बाद उसे छबीली रानी की याद आयी।बस  उसने धर लिया छबीली को। उसके इश्क की ऐसी खबर ली कि मारते-मारते डंडा भी टूट गया। थक-हारकर वह अपने कमरे में आ गया। कमरे में आते ही उसने बोतल खोल ली और नीट ही डकार गया। नींद आने से ऐन पहले उसने प्रण कर लिया कि इस मन्नू पासी के बच्चे की पहले सुताई करेगा,उसके हाथ पैरों को शरीर से अलग करेगा , फिर उसे काम से निकाल देगा। उसी ने उसकी भोली छबीली को बरगलाया है।
 किन्तु  उसे अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने का मौका नहीं मिला क्योंकि सुबह जब वह सोकर उठा तो उसने देखा कि मन्नू अपने साजो सामान के साथ घर से रफू-चक्कर हो चुका था। उसके सामान में छबीली और उसके गहने रुपये भी थे। छबीली के कमरे और उसकी तिज़ोरी की हालत सारी कहानी बयान कर रही थी। यह दृश्य देखकर वह बेहोश होने की अवस्था को प्राप्त हुआ। क़ाफ़ी देर तक उसी अवस्था में पड़ा रहा। होश आने पर उसने पहला काम अपने खास आदमी गोबरधन के पास जाने को किया। उसके कान में सारा वाक्या फुसफुसाकर बयान  किया। इस किस्से ने गोबरधन की बटन जैसी आँखें बजरबट्टू जैसी बना दी। पहले तो उसने मन ही मन मन्नू पासी की किस्मत से रश्क किया जो छबीली को के उड़ा था। उसने अपनी किस्मत को कोसा कि मन्नू की जगह वह क्यों नहीं था।कोसकोसी कोसी का सेशन पूरा करने के  बाद उसने जो पहला वाक्य उचारा – वह ये था। 
‘’मालिक, मालकिन ने तो आपको कहीं का नहीं छोड़ा। लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे। मालकिन वापस नहीं आईं तो आपकी नाक ही कट जाएगी।‘’ उसके ऐसा कहते ही छंगा ने घबराकर अपनी नाक पर हाथ रख लिया। और वे दोनों मिलकर छबीली को खोजने और उसे वापस घर लाने की योजनाएं बनाने लगे। आखिर इलाके में नाक भी तो बचानी थी। वैसे भी नाक के अलावा छंगा के पास बचा ही क्या था। 
 अगले दिन से गोबरधन ने छबीली-खोज अभियान शुरू कर दिया। चार दिन बाद खबर आ गयी कि मन्नू और छबीली पास के शहर में किराये के मकान में रह रहे हैं। 
छंगा को इस खबर से काफ़ी शान्ति मिली। नाक की प्लास्टिक सर्जरी की संभावनाएं पनपने लगीं। उसने ऐहतियातन कट्टा कमर में ठूंस लिया कि छबीली राजी से आये तो ठीक  नहीं तो  गैर-राजी कट्टे के बल पर ले आयेगा। पर गोबरधन ने रोक दिया-,‘’ मालिक वह हमारा गाँव नहीं शहर है, किसी को हवा लग गयी कि आपके पास हथियार है तो मालकिन के पास जाने की जगह जेल चले जाओगे। नाक दो-दो बार कट जायेगी।‘’ 
 छंगा ने इसके बाद भी फेंटे से कट्टा नहीं निकाला तो गोबरधन ने एक और तीर छोड़ दिया। बोला-,‘’ मालिक, मान लो, छिप-छिपाकर हम कट्टा ले भी गये तो आपसे कौन सा गोली चलेगी। जानते हो ना कित्ता  जोर लगता है, घोड़ा दबाने में। बची है इत्ती जान अंगुलियों में ?‘’ कहकर वह व्यंग्य से मुस्करा दिया। उसकी मुस्कान से छंगा की हिम्मत पस्त हो गयी। कट्टा फिर से मेज की दराज़ में ही पहुंच गया।
 शाम को ठीक पांच बजे वे दोनों छबीली-मन्नू के ठिकाने पर पहुंच गये। छंगा ने गोबरधन को घर के बाहर ही खड़ा कर दिया और कमरे में घुस गया। उस समय छबीली और मन्नू बिस्तर पर लेटे-लेटे एक-दूसरों के नैनों की झील में तैराकी कर रहे थे। तभी उस झील में पत्थर सा फेंकने की आवाज़ आई। दोनों ने चौंककर देखा तो पत्थर के रूप में साक्षात छंगा खड़ा था। छंगा को देखते ही मन्नू पासी ने दरवाज़े की ओर छलांग लगानी चाही पर छबीली ने उसे रोक लिया। छंगा को यह देखकर कट्टा साथ न लाने का अफसोस हुआ। वरना इस दृश्य को देखकर वह दोनों हाथों से पकड़कर ही सही गोली जरूर चला देता। उसकी आँखों से आग की लपटें निकल रहीं थीं। पर उनसे मन्नू जरूर तप रहा था, पर छबीली नहीं l वह चारपाई से उठी और ऐन छंगा के सामने खड़ी हो गई और उतने ही तनाव से बोली – 
 -,‘’ क्यों चौधरी, अब यहाँ क्या लेने आया है ?‘’
 - “तुझे, अपनी बीवी को।“ छंगा ने खुद पर जब्त करते हुए जवाब दिया।
 - “किसकी बीवी ? तीन बीवियों को बिना तलाक दिये शादी की है। ऐसा ब्याह कोरट में कोई नहीं मानता l ज्यादा करेगा तो बिना तलाक दिये,दूसरा  ब्याह रचाने में जेल जाना पड़ेगा। समझा कुछ... आया बड़ा मुझे ले जाने वाला।“ 
 - “ये तू क्या कह रही है। लगता है शहर आते ही कोरट-कचहरी की हवा लग गयी है।“ छंगा ने शब्दों के तीरों को ज़हर में बुझाते हुए कहा। 
 - “हाँ लग गयी है तो...। वकील साब से मिल ली हूँ। उन्होंने कहा है पाँच सात दिन में ब्याह करा देंगे।“ 
 - “पर तू... तू तो मेरी बीवी है।“ छंगा शादी की बात सुनते हड़बड़ा गया।
 -“ किसकी बीवी, कैसी बीवी... तुझ बुड्ढे के पास धरा क्या है ? मार-पीट, गाली गलौच बस यही ना.? .. ना... मुझे ना जाना उस नरक में वापस...” छबीली धमक के बोली lसुनते ही छंगा की वह गुम हो गई जिसे शुद्ध हिंदी में  सिट्टी पिट्टी कहते हैं।
 कहाँ तो वह सोचता था कि उसे देखते ही छबीली डर जायेगी , उससे रो रोकर माफी मांगेगा। वह चार हाथ मारेगा और उसे बाल पकड़कर घसीटते हुए  वापस ले आएगा पर यहाँ तो मामला बिलकुल उल्लू की लटकन की गति को प्राप्त हो चुका था l उसने समझदारी पर ज़ोर डाला तो संकेत मिला कि अगर गाँव में छबीली वापस नहीं गयी तो बेइज्जती बहुत होगी l वैसे भी घर बाहर सब उसने ही सम्हाल रखा था l वह ना रही तो रोटियाँ भी मुश्किल से मिलेंगी l उसकी आँखों के आगे भविष्य घूमने लगा l बुढापे ने मर्दानगी को  झुकने पर मज़बूर कर दिया l वह फूट पड़ा - 
 - “ना... ना... रामजी की सौं... अब कुछ ना कहूंगा। ना गाली-गलौच, ना मार-पीट। भरोसा कर.... देख मेरे घर की इज्जत तेरे हाथ में है। तू घर ना लौटी तो मेरी नाक कट जाएगी। लोग कहेंगे छंगा की लुगाई भाग गयी। मान जा... वापिस चल....” कहते-कहते छंगा की आँखों में पहले भरी आग, नीर भरी बदली में बदल गयी और उसमें से थोड़ी देर में पानी बरसने लगा।
 - अब छबीली और मन्नू दोनों ही हतप्रभ से खड़े थे। छबीली ने तो उसे गुर्राते, हाथ उठाते, जबरदस्ती करते ही देखा था। यहाँ तो वो अपनी मर्दानगी समेत रो रहा था। उसने कुछ सोचा। फिर छंगा को वहीं बैठा छोड़कर मन्नू को बाहर ले गयी। दोनों में फुसफुसाहट की भाषा में बात हुई। तय ये हुआ कि गहने-पैसे बहुत दिन ना चलेंगे। वहां इतनी बड़ी हवेली छोड़कर एक-एक कमरे के किराये के कमरो में भटकना पड़ेगा। फिर हारकर मेहनत-मज़ूरी ही करनी पड़ेगी। इन सारे मुद्दो पर फुसफुस विमर्श हुआ। फिर छबीली ने मन्नू के कान में कुछ ख़ास कहा। उसे सुनते ही उसकी आँखें फैलकर कानों को गयीं। शब्दों में कहें तो मन्नू ने सिर्फ़ इतना कहा क्या ऐसा हो सकै हैं ? छबीली उवाची – देखते हैं।
 उसके बाद छबीली मन्नू का हाथ पकड़कर फिर छंगा के सामने आ डटी। दोनों को साथ देखकर छंगा को लगा जैसे उसने नीट शराब का घूंट मार लिया हो, पर इज्जत का सवाल था, सो वह जी कड़ा कर के घूंट पी गया। उसने छबीली से पूछा – बोलो क्या कहती हो। चलोगी, मेरे साथ ? 
“हाँ चलूंगी, पर मन्नू भी मेरे साथ चलेगा ?” छबीली ने सौदेबाजी का पहला पत्ता फेंका।
छंगा बिलबिला गया। ये  तो बेइज्जती की इंतिहा हो गयी। उसने चौधरियों की आन-बान शान की दुहाई दी। खानदान की इज्जत के फटते कपड़े दिखाये। बदनामी की बाढ़ में डूबता घर दिखाया। पर छबीली इन सारे दृश्यों से कतई प्रभावित नहीं हुई। उसने मन्नू के बिना जाने से इंकार कर दिया। छंगा ने क़ाफ़ी देर सोचा। बहसबाज़ी भी की। अंत में बात का तोड़ इस बात पर छूटा कि मन्नू साथ चलेगा। पर हवेली में छबीली के साथ नहीं रहेगा। अलबत्ता छबीली को उसके कमरे में जाने की छूट होगी। वो भी सिर्फ़ रात को। 
छबीली और मन्नू ने इस प्रस्ताव को खुशी-खुशी अनुमोदन दे दिया। 
पर मामला अभी खत्म कहाँ हुआ था। छबीली ने एक और डिमांड रख दी कि मैं तब चलूगी जब गाँव की हवेली मेरे नाम करोगे ? इस बात पर छंगा के साथ मन्नू भी चौंक गया। क्योकि मन्नू के साथ फुसफुस विमर्श में ये मुद्दा था ही नहीं। यह छबीली की उपजाऊ खोपड़ी में उगा बीज था। 
 
 हवेली वाले मुद्दे पर छंगा बुरी तरह गर्म हो गया। उठकर बाहर चल दिया। पर फिर दरवाज़े से  ही लौटकर आ गया। सौदेबाजी इस बात पर चली कि हवेली का आधा हिस्सा छंगा छबीली के नाम करेगा। बाकी आधे हिस्से के बदले पाँच बीघे खेत देगा। क़ाफ़ी किल्ला-किल्ली के बाद सौदे पर मुहर लग गयी। इस सौदेबाज़ी में छंगा को आधी हवेली और पाँच बीघे खेतों की चपत लगी। पर यह चपत छंगा को झेलनी ही थी। वरना खानदान की इज्ज़त डूबने का, छंगा की मर्दानगी की नाक वगैरहा कटने का खतरा था। इन सारी अहम चीज़ों के आगे थोड़ी सी प्रॉपर्टी क्या थी ?
 अगले दिन सुबह ही छबीली हवेली में नमूदार हो गयी। उसके पीछे-पीछे मन्नू भी अपने कमरे में पधार गया। छंगा ने वादे के मताबिक हवेली का आधा हिस्सा और पाँच बीघे खेत छबीली के नाम कर दिये। प्रॉपर्टी नाम होने तक छबीली ने मन्नू के कमरे में आवाजाही रखी। रात वाले भी नियम का भी पालन किया। रजिस्ट्री के कागज़ आते ही, मन्नू भी अपना कमरा छोड़कर छबीली के कमरे में शिफ्ट कर गया।
 छंगा ने उस दिन पूरी बोतल शराब पी और रोते हुए छबीली के बंद कमरे की तरफ निहारता रहा। रोता रहा और रोते-रोते भी अपनी नाक पर हाथ फेरकर देखता रहा कि बाहर वालों के लिए तो सलामत है ना। 
 कहानी का बस थोड़ा सा हिस्सा बचा है। कालांतर में छबीली रानी ने मन्नू पासी के सहयोग से पूरे नौ महीने बाद एक बच्चा पैदा किया जिनका बाप कहलाने का सौभाग्य चौधरी छंगा सिंह को प्राप्त हुआ। उसका सीना और उसकी नाक दोनों तन गये। उसकी मर्दानगी के किस्से फिज़ाओं में तैर गये। उसने  बेटे के नामकरण  पर एक शानदार दावत भी की। आगे चलकर उसे  चार बार ऐसी दावतें और देने का अवसर मिला। चौथे बच्चे की दावत के बाद उसने हवेली की बाहर की बैठक में शिफ्ट हो गया। मन्नू और छबीली अंदर के कमरों में बने रहे और जनसंख्या वृद्धि के उपायों पर काम करते रहे। 
 एक दिन जब छबीली सुबह बैठक में छंगा को चाय देने गई तो उसके बिस्तर पर उसकी जगह एक फाइल और कागज़ पड़ा मिला। गोबरधन को बुलाकर वह कागज़ पढ़वाया गया, उसमें लिखा था –
छबीली, मैं तेरा बहुत अहसान मंद हूँ कि तूने मुझे चार बच्चों का बाप बनने का  सुख   दिया। मेरे खानदान की लाज बचाई। अब इस दुनियां जहान से मेरा मोह खत्म हो गया है। सो मैं घर छोड़कर साधु बनने जा रहा हूँ। अब बाकी की ज़िन्दगी  भगवान की सेवा में गुज़ारूंगा। हवेली और ज़मीन तेरे नाम कर रहा हूँ। कागज़ साथ में रखे हैं। मेरे बच्चों को खूब शानो-शौकत से पालियो । उन्हें बताईयो कि जैसे मैंने अपने घर की नाक बचाये रखी, वैसे ही वे भी बचाए रखें। कुछ भी चला चाए तो वापस आ जाता है। पर नाक एक बार कट जाए तो फिर पहले जैसी नहीं रहती। मुझे ख़ुशी है कि मैं अपनी साबुत नाक के साथ जा रहा हूँ l
बस थोड़ी को बहुत समझियो .. 
  राम... राम... बच्चों को प्यार 

तेरा पति
छंगा सिंह
 छबीली पत्र की इबारत सुनकर बहुत रोई।  रोने से फारिग होकर उसने भगवान का शुक्रिया अदा किया कि उसने  आख़िरी समय में ही सही उसके पति को सद्बुद्धि दे दी। 
 भगवान जैसी सद्बुद्धि तूने छंगा को दी, वैसी उसके जैसी नाक वाले सारे मर्दों को दीजो ।

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