बुधवार, 22 जुलाई 2020

अक्षयवट / नासिरा शर्मा


उपन्यास /

अभी अभी पूरा किया । आज के युवाओं की चुनौतियों पर केंद्रित, इलाहाबाद की पृष्ठभूमि पर लिखा ये उपन्यास, युवाओं के मुद्दों को उठाता तो है पर बिल्कुल ठेठ इलाहाबादी तरीके से। फिर नासिरा जी के उपन्यासों में आपको एक शहर, भरे पूरे किरदार के रूप में मिलता है। यहां पर भी इलाहाबाद शहर पूरी धमक के साथ मौजूद है। कितने चरित्र, कितनी कहानियों को समेटे हुए, इस उपन्यास का असली नायक इलाहाबाद शहर ही है । मोहल्ले, गलियों, घाटों, यूनिवर्सिटी, पुलों, मेलों, सड़कों और गंगा का ऐसा जीवंत वर्णन है कि मैं इलाहाबाद जाने के लिए तड़प उठा हूँ। हमारे सारे ही शहर, गंगा जमुनी तहजीब से सराबोर हैं, पर अपने शहर से प्यार करने वाले लेखक ही तो उसके चित्रण में ऐसे रंग भर सकते हैं। हर चरित्र अपनी पूरी खूबसूरती के साथ खिलता है पर उसमें अपने इलाहाबादी होने की भरपूर तसल्ली भी है। हर किरदार अपने इलाहाबादी होने के फख्र में डूबा हुआ है और ठेठ अंदाज़ में इस अहसास को जीता भी है, और महसूस भी करता है। हर किरदार में इलाहाबाद धड़कता है और ये धड़कन हर पाठक को महसूस होती है। इलाहाबादियों की इस शहर के लिए तड़प, इस उपन्यास में पूरी शिद्दत से देखी की जा सकती है।

जिस तरीके से हर चरित्र को नासिरा जी ने संवारा और सजाया है वह उनकी पैनी दृष्टि और संवेदनशीलता को दर्शाता है। जितने रंगों के किरदार उन्होंने इस उपन्यास में बुने हैं, उतने रंग असल जिंदगी में तो जरूर दिख जाते हैं पर उनको याद रखना और इस उपन्यास के कैनवास पर इस तरह उकेरना।  ये उपन्यास जिदगी की तरह रंगीन, प्रवाहशील और जीवंत हो गया है। हर किरदार अपनी छाप छोड़ता है पर कुछ किरदार कई दिनों तक मेरा पीछा करते रहेगें। सबसे ज्यादा प्रभावित किया तालेवालों की बेटी सिपतुन ने और उसकी सास फिरोज जहां ने। इस उपन्यास में जहां नारी चरित्र मुखर है, वहीं पुरुष दबंग। लगभग सभी चरित्र अपने व्यवहार का औचित्य भी देते हैं। हर चरित्र इस उपन्यास में अपना योगदान करता है और आप खुद को उनसे जुड़ने से रोक नहीं पाते। इन मित्रों का अपने शहर के लिए तड़पना, शहर को जीने के लिए चंद घंटों के लिए भी पहुंचना, जहाँ उनके गहरे जुड़ाव को दर्शाता है वहीं बार बार यह विचार भी आता है कि कितने लोग आज की चूहा दौड़ जिंदगी में अपने शहर को इस तरह जीते हैं या जी पाते हैं।

पुलिस, वकील और विधायक का गंदा गठजोड़, उत्तर प्रदेश ही नहीं कमोबेश सारे देश की सच्चाई है। विधायकों और राजनीतिक दलों का व्यवहार, विचारधाराओं को तिलांजलि देती उनकी कार्य शैली, जातियों में बंटा समाज, आज भारतीय लोकतंत्र की ऐसी मजबूरी बन गई है जिसमें आम नागरिक सिर्फ और सिर्फ छटपटाने के सिवा कुछ नही कर पाते। कोई भी नागरिकों की कुंठाओं, चुनौतियों, समस्याओं पर ध्यान नहीं  दे रहा है और अपने घृणित स्वार्थों के लिए सभी उनका जीना और मरना दूभर किये हुए हैं। आम नागरिक का जिंदगी और मौत, दोनों में शोषण जारी है। राजनीतिक दल, कोई भी हो, सबको सत्ता का सुख चाहिए, जनता की किसी को परवाह नहीं है। इस उपन्यास में ये सच्चाई बार बार, बार बार ना सिर्फ उभरती है बल्कि आप उसको अपनी ओर घूरता महसूस कर सकते हैं। इसकी विवशता दम घोंटती लगती है। कितनी ही बार मैंने इस उपन्यास को रख कर गहरी गहरी सांस ली हैं जैसे मेरा दम घुट रहा हो। कई बार मन किया कि इसे पूरा न करूं। पसन्द आये या न आये, ये जिंदगी की सच्चाई है, कड़वी और जहरीली सच्चाई। इससे मुँह मोड़कर शतुमुर्गी मानसिकता के साथ हम कैसे जी सकते हैं, जबकि ये गंदा गठजोड़ हमारा जीना हराम किये हुए हैं।

इतनी निराशाओं के बाद भी, पूरी विवशताओं के बीच भी, इस उपन्यास में जिंदगी खिलखिलाती और ठहाके लगाती है। आपको कुछ सुखद हवा के झोंके भी लगते हैं। आधी रात को मुरली का पतंग उड़ाना, दिनभर की जद्दोजहद के बाद जिंदगी को जीने की उसकी तड़प को दिखाता है। दोस्तों की ये मंडली, इनका अपनापन, एक दूसरे की चिंताओं में डूबना, डट कर साथ खड़े होना, आपको विभोर भी रखता है। आजकल की सोशल मीडिया की खोखली दोस्तियों के बीच, इनका अपनापन भला सा लगता है। आजकल के अकेलेपन में ऐसे रिश्तों को हम सोशल मीडिया पर हरगिज नहीं पा सकते हैं। लेकिन इन रिश्तों में भी जब दूरियां पनपती हैं, जो कि स्वाभाविक भी है, तो उदासी गहरा जाती है। ये ही आजकल की सच्चाई है। सबको अपने अपने ठिकाने पर लगना ही है, ये ही तो जीवन है।

जहीर का मददगार स्वभाव, उसकी मां सिपतुन को बार बार  असमंजस में डालता है पर वो भी आखिर में इन सबको पूरी तरह अपना लेतीं हैं। उनकी चुप्पी जब आखिर में मुस्कुराहटों में बदलती है तो मन को अंदर तक ठंडक लगती है।

मुरली की हत्या पाठक को झिंझोड़ कर रख देती है। आप पूरी तरह हताश निराश महसूस करते हैं। इस बेचारगी में भी, जहीर सबको अपना आपा नहीं खोने देता। वो ही सबको संभालता है और एक एक करके सबकी मदद करता है उनकी मंज़िलों तक पहुचने में। खुद खड़ा होता है और अपने और दादी के सपने को पूरा करता है। पढ़ाई पूरी करता है और बाकी सबको भी प्रेरित करता है। मुसकान संस्था की स्थापना जहां एक ओर इस उपन्यास का आदर्शवादी सुखान्त है वहीं लावारिसों की समस्या के समाधान की ओर नासिरा जी का इशारा भी है।

इस उपन्यास को पढ़ते समय मुझे त्रिपाठी से जितनी घृणा हुई है वो मैं बयान नहीं कर सकता। इस चरित्र से मुझे सहानुभूति नहीं हो पा रही है। एक लेखक के लिए अपना हर चरित्र प्यारा होता है, चाहे वो भला हो या बुरा। लेकिन त्रिपाठी का दौर, इस शहर के लिए आतंक का दौर  था और आधे से ज्यादा उपन्यास पर त्रिपाठी छाया रहता है। अब जब में दोबारा सोचता हूँ तो लगता है कि त्रिपाठी जैसे प्रतिक्रियावादी लोग भी तो हमारे बीच से ही आतें हैं। मेरा ऐसे पुलिसवालों से कभी वास्ता नही पड़ा, और भगवान न करे कभी पड़े। उसका आतंक मुझे अपनी हड्डियों तक महसूस हुआ है। इसलिए उसके अंत से पहले भी, जब उसके व्यवहार की परतें खुलती हैं तब भी में उसे माफ नहीं कर पाया। किसी किसी किरदार को लेकर मैं अपनी धारणा बदल नहीं पाता हूँ। शायद जब दूसरी, तीसरी बार इस उपन्यास को पढूंगा तो कुछ राहत आये।

इस पुस्तक की भाषा सरल है, कुल जमा 500 पृष्ठ हैं। एक तरफ इलाहाबादी भाषा ही तरलता, कुछ जगहों पर अवधी, और फिरदौस बेगम की साफ जुबान, मन बंधता चला जाता है।  कुछ जगह छपाई की अशुद्धियाँ हैं जो कि भारतीय ज्ञानपीठ से अपेक्षित नहीं थीं। उर्दू के दो चार शब्द समझ नहीं आते लेकिन वो शायद मेरी कमजोरी है। उर्दू भाषी घरों में ये सामान्य शब्द होंगे। मेरा भाषा ज्ञान इस उपन्यास से कुछ और बढ़ा है।

धन्यवाद नासिरा जी। मेरे जीवन की बेहतरीन पुस्तकों में कुछ लिखने के लिए। बहुत बहुत धन्यवाद।
@Nasera Sharma

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