शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

महुआ औऱ गाँव की लड़कियां / प्रवीण परिमल



      #महुए_बीनती_हुईं_लड़कियाँ

                      ▪प्रवीण परिमल

हर साल की तरह
इस साल भी टपक रहे हैं महुए !

एक अजीब-सी गंध फैली है चारो ओर ।

सुबह-सुबह,
अब दिखाई देंगी
महुए बीनती हुई लड़कियाँ ,
कच्ची उम्र की !

मैं सोचता हूँ
महुए बीनती हुई लड़कियाँ
लड़कियाँ होती हैं
या मजबूरी की कहानियाँ !

याद आते हैं मुझे
महुए बीनती हुई लड़कियों के समूह !

चुन-चुन कर महुए
पूरी लगन के साथ
करती हैं इकट्ठा लड़कियाँ
मानो महुओं की शक्ल में बिखरे पड़े हों उनके सपने !

सचमुच ,
महुए बीनती हुई लड़कियाँ
महज महुए नहीं बीनतीं...
बीनती हैं,
भविष्य के लिए सपने भी ।

टपक रहे हैं महुए,
बीनती जा रही हैं लड़कियाँ !

महुओं का ढेर क्रमशः बड़ा होता जा रहा है।

महुए बीनती हुई लड़कियाँ जानती हैं,
इसी ढेर से निकलेगा
कटोरी भर बासी भात
कुछ सूखी रोटियाँ
चुटकी भर नमक
और पेट भर पानी!
कि ढेर जितना ऊँचा और बड़ा हो
उतना ही अच्छा है इनके लिए ।

कहाँ- कहाँ पहुँचते हैं,
उनके बीने महुए
क्या-क्या होता है महुओं के साथ,
महुए बीनती हुई लड़कियों को
कुछ भी पता नहीं !

महुए बीनती हुई लड़कियाँ जानती हैं
तो सिर्फ इतना
कि महुए से बनती हैं रोटियाँ
जिससे भरते हैं पेट
दुधमुंहें भाई- बहनों के
लाचार माँओं के
वृद्ध पिताओं के !

दिहाड़ी में मिले हुए महुए
बेचती हैं लड़कियाँ ,
बनिए की दुकान पर
लाती हैं, बदले में गुड़ और नमक
थोड़ी चाय की पत्ती भी !

डंडी मारकर इतराता है बनिया
लेने में किलो का तीन पाव
और देने में तीन पाव का सेर !

महुए जाते हैं साहूकार के गोदामों में
करते हैं इंतजार सही वक्त का
और कमाते हैं एक का कितना ...
साहूकार के लिए ,
महुए बीनती हुई लड़कियाँ नहीं जानतीं !

मुनाफ़े की रकम
तिजोरी-बंद करते हुए
एक पल के लिए भी
नहीं याद करता है साहूकार
महुए बीनती हुईं
इन लड़कियों को !

महुए बीनती हुई लड़कियाँ
महुए की ही तरह
किस दिन टपक जाएँगी
बाबूसाहेब के दिमाग में,
लड़कियाँ नहीं जानती !

लड़कियाँ , फिर भी बीनती हैं महुए ।

महुए से चुआयी जाती है दारू
जिसे पीते हुए
नहीं पहचान पाते बाबूसाहेब
या उनका हितैषी दारोगा
या उनका रिश्तेदार मंत्री
कि उसमें महुए का रस कितना है
और लड़कियों के जीवन का रस कितना !?

लड़कियाँ जानती हैं,
जानवर आजकल दोपाये हो गए हैं ।

दारोगा आज फिर शिकार पर आया है !

बाबूसाहेब की हवेली पर ठहरा है दारोगा
दारोगा, अक्सर हवेली पर ही ठहरता है !

पैग- दर- पैग रंगीन होती है रात
भेड़ियों के मुंह से टपकता है लार
मुर्ग-मुसल्लम और 'अंग्रेजी' तो बहुत हुई
अब 'देसी डिश' की बारी है ।

जंगल में छूटते हैं
बाबूसाहेब के पालतू शेर !

कच्ची उम्र की हिरणियाँ
दहशत से दुबकी हैं !

दारोगा हवेली में बैठे- बैठे ही
शिकार करता है
उसके शिकार करने का यही ढंग है ।

दरअसल , दरोगा सियार होता है
और सियार कभी खुद शिकार नहीं करता !

महुए बीनती हुई लड़कियों पर शामत आई है !

बाबूसाहेब का बैठकखाना
जंगल में बदल चुका है ।

दीवारों पर टंगी
लकड़ी की कृत्रिम गर्दन में ठुँकी
बारहसिंघों के सीगों में तनाव व्याप्त है !

दीवारों पर टंगी हुई खाल से निकलकर
बिस्तर पर आ गए हैं चीते
आंखों में विचित्र- सी चमक लिए हुए !

अजगर की देह
कुछ लपेटकर
उसे मरोड़ने को आतुर है ।

जंगली सुअर
दाँत पजा रहे हैं !

महुए बीनने वाली लड़कियाँ भयभीत हैं--
कि किसी भी वक्त
वे बनाई जा सकती हैं
नीचे की जमीन
जिस पर
पेड़ बनकर खड़े हो जाएँगे बाबूसाहेब
या उनका कोई मेहमान
और टपकते रहेंगे महुए--
टप्- टप्  ...
रात भर !

बाबूसाहेब के बैठकखाने से
मुस्कुराते हुए जाते हैं भेड़िए
गुर्राते हुए निकलते हैं सुअर
दहाड़ते हुए भागते हैं चीते
और कराहती हुई जाती हैं हिरणियाँ !

और ऐसे ही एक दिन
महुए बीननेवाली लड़कियाँ
बनती हैं अखबारों की सुर्खियाँ ,
खुश होते हैं पत्रकार और फोटोग्राफर
लहराता रहता है तिरंगा संसद भवन पर
गर्म होती हैं चर्चाएँ !

भुने हुए काजू की तरह
दिनभर कुतरते हैं विपक्ष के लोग
लड़कियों के सवाल को
और महुओं के मौसम की ही तरह
बीत जाता है एक पूरा सत्र !

मुआवज़े की रकम का
एलान करते हैं मुख्यमंत्री
खुश होते हैं बिचौलिये !

महुए बीनती हुई लड़कियाँ परेशान हैं ।

जब महुओं का वक्त बीत जाएगा--
लहलहायेंगे पलाश
खूब-खूब उगलेंगे अंगारे
और पूरा का पूरा जंगल शोलों में नहा जाएगा!

हाँ, देखो---
अब पलाश फूलने लगे हैं !

महुए बीनती हुई लड़कियाँ--
महुओं में छिपाकर
अब पत्थर भी बीनने लगी हैं !
         
                     ******
(पलामू- प्रवास के दौरान लिखी गई कविता/1992)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें