आज शेखर गुप्ता के बारे में लिखने का मन कर रहा है। पिछले दिनों काफी वक्त के बाद उनसे फ़ोन पर बात हुई।इससे पहले कि मैं अपना परिचय दे पाता उनका पहला सवाल था, कैसे हो। अपने आपको कोरोना से अच्छी तरह से बचा कर रखो। क्या आपने मुझे पहचान लिया के उत्तर में बोले, 'सभी कुछ आंखों के सामने आ गया है। होर दस्सो की हो रया है।' हम लोग अक्सर पंजाबी में ही बातें करते हैं। यह पूछे जाने पर कि 'ThePrint' डिजिटल मीडिया की तो खूब धाक है बोले, 'कोशिश कर रहे हैं, सारे साथी भी बहुत मेहनती हैं।' शेखर गुप्ता का नाम भी तो जुड़ा है, जवाब था 'सिर्फ नाम से कुछ नहीं होता आजकल। उसको बनाये रखने के लिए निरंतर परिश्रम करना पड़ता है जिसे हम सभी लोग मिलकर कर रहे हैं। ' आपके फ़ोटो एडिटर प्रवीण जैन और एक रिपोर्टर तो कोरोना का शिकार भी हो गयी थीं? शेखर गुप्ता का कहना था, बावजूद इसके उन्होंने बहुत काम किया। स्वस्थ होने के बाद अब सभी लोग बहुत एतिहाद बरत रहे हैं। प्रवीण से जब उसकी तबियत और 30 जुलाई को उसके जन्मदिन के प्रोग्राम के बारे में पूछा तो उसने बताया, लगता है अहमदाबाद में ही मनेगा। आजकल बहुत चौकस हूं और कभी कभी तीन बार कपड़े बदलने पड़ते हैं।
शेखर गुप्ता से पहली मुलाकात कब हुई ठीक से याद नहीं लेकिन इतना तो दावे के साथ कह सकता हूं कि वह तीस-पैंतीस बरस पहले हुई होगी। यह मोटा मोटी आंकड़ा यों सटीक लगता है कि पंजाब में आतंकवाद हम साथ साथ कवर किया करते थे। शेखर की 'इंडियन एक्सप्रेस' में उनकी पूर्वोतर की रिपोर्टें पढ़ कर मैं उनका कायल हुआ था। अगर मैं भूलता नहीं तो पंजाब में आतंकवाद वह 'इंडिया टुडे ' में रहकर कवर करते थे और मैं 'दिनमान' से। जब ' इंडिया टुडे ' शुरू हुआ था तो कई लोग दैनिक अखबारों को छोड़ इस साप्ताहिक पेपर में शिफ्ट कर गए थे। शेखर ने 1983 में इंडिया टुडे जॉइन किया था और 1995 में पुनः इंडियन एक्सप्रेस में लौट आये। शेखर गुप्ता के अलावा इंडियन एक्सप्रेस, भोपाल के एन. के. सिंह भी इंडिया टुडे में चले गए थे। जब शेखर गुप्ता ने इंडियन एक्सप्रेस में वापसी कर ली, एन. के.सिंह भी अंग्रेज़ी से हिंदी में शिफ्ट कर ' दैनिक भास्कर' का संपादक बन जयपुर चले गये।वहां काफी वक्त गुजारने के बाद वह ' इंडियन एक्सप्रेस', अहमदाबाद संस्करण के स्थानीय संपादक बन गये। एन. के. सिंह से मैं दो बार मिला, पहली बार डाकू मलखान सिंह के आत्मसमर्पण के समय और दूसरी बार अहमदाबाद में शिष्टाचार के नाते। बात शेखर गुप्ता की चल रही थी। इंडियन एक्सप्रेस में वापसी कर उन्होंने खूब तरक्की की और वह Editor- in- chief के पद तक पहुंचे। वह रिपोर्टर से एडिटर इन चीफ के पद पर पहुंचने वाले कुछ विरले पत्रकारों में से थे। उनसे पहले गिरिलाल जैन टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रमुख संपादक बने थे। सुरिंदर निहाल सिंह पहले कभी पाकिस्तान में रिपोर्टर थे बाद में स्टेट्समैन के संपादक हुए।यही बात इंदर मल्होत्रा पर भी लागू होती है। इंडियन एक्सप्रेस में शेखर गुप्ता के आलेखों को खास तौर पर उनका साप्ताहिक कॉलम 'National Interest'बड़े चाव से पढ़ा ही जाता था।उनका टीवी चैनल पर 'वॉक द टॉक' और हिंदी में ' चलते चलते' भी बहुत लोकप्रिय रहे हैं। इसीलिए उन्हें ' हरफनमौला'' पत्रकार भी कहा और माना जाता। अंग्रेज़ी के अलावा उनका हिंदी, पंजाबी और उर्दू पर समान अधिकार है। शेखर की एक और सिफत है। वह बहुत ही सादे लिबास में रहते हैं। उनका अपना एक 'ट्रेड मार्क' है। अमूमन वह अपनी पूरी बाजू की कमीज को आधी बाजू में मोड़ लेते हैं। हल्की सी सर्दी होने पर वही अपनी पूरी बाजू से आधी बाजू की गई शर्ट पर जैकेट पहन लेंगे। कभी मौका मिले तो गौर कीजिएगा। इस का राज़ अभी तक मैं नहीं जान पाया हूं, आप कोशिश कीजिएगा।
रेपोर्टरी उनके रग रग में बसी हुई है। इसे आप शेखर गुप्ता का 'पहला प्यार ' भी कह सकते हैं। पंजाब में आतंकवाद कवर करने के लिए जिस तरह का जोखिम वह उठाया करते थे शायद ही दूसरा कोई पत्रकार उठाता होगा।उन्होंने आपरेशन ब्लूस्टार स्वर्ण मंदिर के भीतर रहकर कवर किया था। जहां तक मुझे याद पड़ता है टाइम्स ऑफ इंडिया के सुभाष किरपेकर भी तब स्वर्ण मंदिर में थे। बावजूद दूसरे पत्रकारों की उपस्थिति के शेखर अपने एक्सक्लूसिव संवाद तलाश कर ही लिया करते थे और इसीलिए उन्हें जोखिमयाफ्ता विशिष्ट पत्रकार कहा जाता था। पंजाब में कई बार हम साथ साथ दीख जाते थे इसमें कोई नई बात नहीं।वह इसलिए कि पंजाब में आतंकवाद कवर करने के लिए देश -विदेश के पत्रकार आया करते थे। बीबीसी के मार्क टल्ली और सतीश जैकब भी मिल जाया करते थे। पंजाब के अलावा शेखर गुप्ता ने 1983 में असम में नेल्ली हत्याकांड जैसी महत्वपूर्ण और बड़ी स्टोरीज़ कवर करके अपनी पत्रकार बिरादरी के साथ साथ देश के सत्ता के गलियारों में भी धाक जमा ली। शेखर गुप्ता राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर उस समय और चमके जब 1991 में बगदाद से उन्होंने खड़ी युद्ध कवर किया था। उस युद्ध को कवर करने वाले शेखर कुछ चुनिंदा भारतीय पत्रकारों में से थे। ऐसी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय महत्वपूर्ण कवरेज के चलते शेखर गुप्ता की अहमियत के साथ लोकप्रियता भी बढ़ गयी।
शेखर गुप्ता अब एक धाकड़ पत्रकार बन चुके थे। उन्हें एक बार फिर से इंडियन एक्सप्रेस के मालिकानों ने याद किया। इस का प्रमुख कारण शायद इंडियन एक्सप्रेस जिस तरह के तेवरों के लिए जाना जाता है उस तरह के धारदार संवादों से मरहरूम होते लगता था। मालिकानों द्वारा अपनी तरफ से पहले अरुण शौरी औऱ बाद में सुमन दुबे को संपादक का दायित्व सौंपा गया। दोनों बेहतरीन पत्रकारों के अतिरिक्त रिश्तेदारी भी थे लेकिन मालिकानों की अपेक्षाएं कुछ ज़्यादा ही थीं। कुछ समय तक प्रभु चावला ने भी इंडियन एक्सप्रेस की संपादकी की। जब ये सभी प्रयोग सार्थक सिद्ध नहीं हुए तो एक बार फिर नज़र टिकी शेखर गुप्ता पर। अब वह देश के नामी पत्रकार बन चुके थे और इंडिया टुडे को एक से एक बढ़कर स्टोरियां दी थीं। लिहाज़ा 1995 में शेखर गुप्ता की इंडियन एक्सप्रेस में बड़े पद पर वापसी हुई , एक बड़ी चुनौती के साथ। शेखर ने दिनरात मेहनत करके इंडियन एक्सप्रेस की पहले जैसी साख वापस दिला दी।इसे आप दिलचस्प संयोग कहेंगे या समझौता कि दोनों संस्थान यानी इंडियन एक्सप्रेस और इंडिया टुडे बिना किसी तरह की रंजिश एक दूसरे के यहां पत्रकारों को आने जाने की खुली छूट देते रहे हैं। सुमन दुबे से मैं एक बार तत्कालीन गृहमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद के यहां जब मिला तब वह इंडिया टुडे में थे , दूसरी बार हैदराबाद में कृष्णा ओबेरॉय होटल में मिला तो वह राजीव गांधी के सलाहकार थे और 21 मई, 1991 में बैंगलोर में मेरी मुलाकात राजीव जी से उन्होंने ही तय करायी थी। प्रभु चावला भी इंडिया टुडे से आये थे और वहीं वापस लौट गये।
शेखर गुप्ता पाकिस्तान की राजनीतिक गतिविधियों पर भी नज़र रखते थे। वहां के बड़े और महत्वपूर्ण नेताओं से उनकी खासी करीबी थी। मेरा भी 1990 और उसके बाद पाकिस्तान में काफी आना जाना रहता था। 'संडे मेल' के मालिक संजय डालमिया चाहते थे कि दोनों देशों के बीच एक गैरराजनीतिक सम्मेलन हो जिसमें दोनों तरफ के संस्कृतिकर्मी, साहित्यकार, पत्रकार, पूर्व न्यायाधीश, पूर्व राजनीतिक-राजनयिक आदि शामिल हों ताकि दोनों ओर मेलजोल की खिड़कियां खुलें। इस मुद्दे को ध्यान में रखते हुए मैंने लाहौर, रावलपिंडी, इस्लामाबाद, पेशावर और कराची का दौरा किया। मेरा मेज़बान मुझे एक दिन के लिए मुजफ्फराबाद भी ले गया। जितने लोगों से भी बातचीत हुई उन्हें यह आईडिया खूब भाया। दिल्ली में आकर हम तैयारियों में जुट गए, एक बार खड़ी युद्ध की वजह से सम्मेलन रद्द करना पड़ा। दूसरी बार नवंबर, 1991 में हुआ जो बहुत कामयाब रहा।इस पर फिर कभी। पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेंबली के चुनाव कवर करने के भी मुझे कई मौके मिले। ऐसे ही एक मौके पर लाहौर में मैं अवारी होटल में
सुबह का नाश्ता करने के लिए रेस्तरां में गया तो अचानक मेरी नज़र एक अलग कमरे में बैठे शेखर गुप्ता पर पड़ी। वह आम लोगों से हट कर बैठते हैं ,यह उनकी स्टाइल है। मैंने जाकर हेलो की तो उठकर गले मिले। तुम कब आये। बताया कल ही आया हूं। शिष्टाचारी बातचीत के बाद अपने अपने प्रोग्राम पर चर्चा भी हुई। पाकिस्तान के सत्ताधारियों में शेखर की खासी पैठ रही है। भूतपूर्व प्रधानमंत्री मियां नवाज़ शरीफ के करीबियों में वह माने जाते रहे हैं। वह शायद पहले भारतीय पत्रकार हैं जिन्हें पाकिस्तान का स्थायी वीज़ा प्राप्त था।शेखर की उस दिन लाहौर में कई मुलाक़ातें तय थीं और मेरी अपनी अलग। साथ साथ नाश्ता करने के बाद इस वादे के साथ अलग हुए कि इंशाल्लाह कराची में भेंट होगी। कराची में भी मैं अवारी होटल में ही ठहरा था। उसके मालिक बैरम अवारी से जब मिला तो पता चला कि शेखर गुप्ता आये तो थे, कहां चले गए कह पाना मुश्किल है। नामुमकिन नहीं वह हैदराबाद चले गये हों।कराची तो हर कोई आता जाता रहता है उसके आगे जाने की हिम्मत सिर्फ शेखर ही कर सकता है। बैरम अवारी कभी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ के संसदीय सचिव हुआ करते थे और पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों में उनकी खासी पैठ है। एक बार तो उन्होंने भारत में भी होटल खोलने का मन बनाया था, लगता है बात बनी नहीं। बहुत ही ज़हीन इंसान हैं बैरम अवारी।एक बार उन्हें कहीं से पता चला कि मैं बीमार हूं और सर गंगाराम अस्पताल में भर्ती हूं । उन्होंने एक बहुत ही खूबसूरत पुष्पगुच्छ भेजा इस इबारत के साथ कि जल्दी सेहतमंद हो जायें, एक बार फिर आपके साथ बैठने की मन में हसरत है। अपनी पाकिस्तान की उस यात्रा में शेखर गुप्ता से कराची में भेंट नहीं हो पायी। दिल्ली में मुलाकात होने पर बोले,' यार अचानक किसे दा फोन आ गया सी, नसना पै गया '।
शेखर गुप्ता का सहयोग जब जब मैंने चाहा मुझे मिला।' संडे मेल' के लोकार्पण समारोह में उन्होंने शिरकत की। बाद में रामकृष्ण जयदयाल सद्भावना पुरस्कार समारोह का विशेष अतिथि बनने का अनुरोध मेरी सहयोगी श्रीमती नफीस खान ने किया उसे स्वीकार कर हमें कृतार्थ किया। नफीस जी के आग्रह पर मैंने अलबत्ता उन्हें एक बार स्मरण करा दिया था। समारोह से पहले के डिनर में वह अपनी बेटी के साथ डालमिया हाउस आये थे। उनकी मुलाकात सम्मानित किए जाने वाले जिन व्यक्तियों से कराई गई उनमें से कुछ से वह पहले से परिचित थे। सम्मान पाने वाले लोगों में प्रमुख थे अंग्रेज़ी के लिए डॉ. मुशीरुल हसन, हिंदी के जय शंकर गुप्ता, उर्दू के परवाना रूदौलवी, पंजाबी के हरभजन सिंह हलवारवी, बंगला के नाबनीत देव सेन, कारगिल कवरेज के लिए विशेष पुरस्कार विजेता बरखा दत्त औऱ गौरव सावंत आदि। शेखर गुप्ता ने हरेक से साथ साथ और अलग अलग बातचीत भी की। संजय डालमिया का आभार जताया और नफीस जी का शुक्रिया अदा करते हुए कहा कि कल मिलते हैं। डिनर पर हम दोनों पंजाबी में गपियाते रहे। कुछ लोगों को शेखर को ठेठ पंजाबी में बोलते हुए अचरज भी हुआ। अगले दिन निश्चित समय पर शेखर गुप्ता पहुंच गये। मुझे एक तरफ ले जाकर कहा कि 'मैंनू की बोलना है। ' मैंने हंसते हुए कहा कि 'आप जैसे बंदे को मुझे बताने की कब से ज़रूरत पड़ गयी। मैं जिस शेखर गुप्ता को जानता हूं वह और उसकी सोच लाजवाब है, बेमिसाल है। ' हंसते हुए शेखर बोले,'ओ रहन दे यार' कह कर वह मंच की तरफ बढ़ गये। दूसरी तरफ मैंने बरखा दत्त1को परेशान देखा तो इसका सबब पूछा। बताया मेरे पिताश्री ने यहां आने का वादा किया था, लगता है हमेशा की तरह भूल गये। बहरहाल, शेखर गुप्ता का भाषण बहुत ही प्रेरक रहा जिसे उपस्थित लोगों और सम्मान प्राप्त लोगों ने भी खूब सराहा। संजय डालमिया के सांस्कृतिक और सामाजिक सरोकारों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि देश के दूसरे उद्योगपतियों को उनसे सीख लेनी चाहिए कि मानवता की सेवा कैसे की जाती है। अपने धन्यवाद भाषण में डॉ. मुशीरुल हसन ने संजय डालमिया के साथ साथ श्रीमती नफीस खान की कर्तव्यनिष्ठा का ज़िक्र करते हुए सम्मानित लोगों की तरफ से आभार व्यक्त किया।
कौटिल्य प्रकाशन ने केपीएस गिल पर एक बहुत ही खूबसूरत पुस्तक प्रकाशित की है। उसके प्रकाशक राजू अरोड़ा और कमल नयन पंकज ने मुझे ,जस्विन जस्सी और कमलेश कुमार कोहली को भी आमंत्रित किया। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में बहुत ही भव्य और गरिमापूर्ण समारोह आयोजित किया गया जिसका उद्घाटन शेखर गुप्ता ने किया। मेरी सहयोगी बनाम मित्र सुनीता सभरवाल से भी मुलाकात हो गयी। जैसे मैंने पहले लिखा है पंजाब में आतंकवाद को जिस शिद्दत के साथ शेखर गुप्ता ने कवर किया था वैसा शायद ही किसी अन्य पत्रकार ने किया होगा। शेखर का नेटवर्क बहुत व्यापक है। उनके केपीएस गिल से करीबी संबंधों और आतंकवाद को समाप्त करने में गिल साहब की महत्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डाला। कई अवसरों पर गिल साहब से मुलाकात और उनसे पंजाबी में होने वाली बातों को जगह जगह उदधृत कर न केवल माहौल को बोझिल होने से बचाया बल्कि उनकी स्पष्टवादिता का ज़िक्र भी किया।उस दिन जितने भी वक्ता बोले सतीश जैकब सहित, उनके विचारों और उदगारों से गिल साहब की बेबाकी और उनकी प्रोफेशनल कामकाज की शैली का पता तो चलता ही था, साथ ही इस बात का आभास भी होता था कि वह मीडिया को कितना महत्व दिया करते थे। शेखर और जैकब दोनों ने ही गिल साहब की याददाश्त का उल्लेख करते हुए बताया था कि किसी वजह से उनका फोन न उठा पाने के कारण जब उनसे बात नहीं हो पाती थी तो गिल साहब खुद वापस फोन करते थे और पूछते थे 'फलां वक़्त ते आ सकना, आ जा खूब गल्लां करांदे '। उन्हें यह पता होता था कि कौन कौन पत्रकार न सिर्फ पंजाबी समझता है पर बोलता भी है।
शेखर गुप्ता ने 2015 में इंडियन एक्सप्रेस से त्यागपत्र दे दिया। वह 19 वर्ष तक इंडियन एक्सप्रेस में एडिटर -इन- चीफ रहे और 13 साल तक सीईओ। एनडीटीवी 'वॉक द टॉक' में 15 साल से अधिक समय तक उन्होंने 600 से ज़्यादा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के अतिविशिष्ट व्यक्तियों सेअंतरंग बातचीत की। हिंदी में 'चलते चलते' में भी बहुत लोगों से चर्चा की। ये दोनों कार्यक्रम बहुत ही लोकप्रिय थे। 25 से अधिक महत्वपूर्ण व्यक्तियों के इंटरव्यू की एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है। अब 'वॉक द टॉक' प्रोग्राम तो नहीं होता लेकिन उसे नया स्वरूप देकर 'Off The Cuff ' एनडीटीवी पर ही प्रसारित किया जाता है लेकिन बदले रूप में आमंत्रित श्रोताओं के सामने अतिथि का इंटरव्यू किया जाता है और श्रोताओं को प्रश्न पूछने की छूट भी होती है। इंडियन एक्सप्रेस से इस्तीफा देने के बाद शेखर गुप्ता कुछ समय तक 'इंडिया टुडे 'के एडिटर- इन -चीफ रहे बाद में उन्होंने अपनी डिजिटल मीडिया न्यूज़ कंपनी स्थापित की जिसके तहत ThePrint की शुरुआत की। आजकल शेखर उसके एडिटर- इन -चीफ हैं। शेखर ने 'The Print' को जिस मुकाम तक पहुंचाया है वह उन जैसा परिश्रमी, जुझारू और दूरदर्शी पत्रकार द्वारा ही मुमकिन है।
26 अगस्त, 1957 को स्वतंत्र भारत के पूर्वी पंजाब के पलवल में जन्मे शेखर गुप्ता की प्राथमिक शिक्षा तो पलवल में हुई जबकि उच्च शिक्षा और कॉलेज की पढ़ाई पंजाब में। इंडियन एक्सप्रेस में पहली नौकरी भी 1977 में शावक (Cub) रिपोर्टर के तौर पर चंडीगढ़ संस्करण से शुरू की। लिहाज़ा पंजाबी और पंजाबियत शेखर गुप्ता में रसबस गयी है। नीलम जॉली से शादी करके अपनी पंजाबी को और निखारा है। अब तो वह पश्चिमी पंजाब के इतने चक्कर लगा आये हैं कि उन्हें अविभाजित पंजाब का माना जाता है। वह कहते हैं 'यार एह पूरा पंजाब तंआ बहुत सोहणा है' इसपर मेरा जवाब था, 'ओए पूरा हनूर ही बहुत सोहणा है।' ' एह हनूर की हुँदा ए'। मैं बताता हूं कि 1947 से पहले पश्चिमी पंजाब की पीढ़ियों के लोग हिंदुस्तान को 'हनूर 'कहा करते थे। शेखर बहुत ही जिज्ञासु और अध्ययनशील व्यक्ति हैं।जब वह किसी विषय पर लिखते हैं तो सभी आंकड़ों और विषय से जुड़े पक्षों से पूरी तरह से लैस होकर। जिन लोगों ने भी उनके वॉक द टॉक प्रोग्राम देखे हैं उन्हें यह भलीभांति पता होगा कि उनका अतिथि चाहे अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र का हो या उसका संबंध आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक अथवा सामाजिक या साहित्यिक क्षेत्रों से हो शेखर किसी को अपने पर हावी नहीं होने देते थे। अपने अतिथि को वह अच्छी तरह से परिचित करा देते हैं कि वह उनसे उन्नीस नहीं। कुछ उनके विरोधी उनके प्रति 'जुनूनी', कुछ'सनकी' तो कुछ 'झक्की 'जैसी संज्ञाओं और विशेषणों का इस्तेमाल करते हैं, उसका उत्तर न देकर शेखर महज़ हाथ झटक देते हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि अगर ऐसे लोगों की वह परवाह करते तो एक शावक रिपोर्टर से प्रधान संपादक नहीं बनते। ऐसे विरोधियों के लिए इतना जान लेना ही शायद काफी होगा कि 20 साल की उम्र में जो व्यक्ति एक अदना सा रिपोर्टर था वह 37-38 साल की उम्र में उस 'इंडियन एक्सप्रेस 'का एडिटर -इन -चीफ कैसे बन गया जिसके संपादक कभी '
फ्रैंक मोरैस जैसे दिग्गज और legendary रह चुके हैं और वह भी 19 साल तक।और साथ ही संस्था के सीईओ सो अलग। बड़ी बेफिक्री से वह कहते हैं,' कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना'। मैं किसी का बुरा नहीं मानता, अपना काम करता रहता हूं। इंडियन एक्सप्रेस से इस्तीफा भी मैंने अपनी मर्ज़ी से दिया, बाद में इंडिया टुडे से भी मैंने खुद रुख्सत ली, मुझ पर किसी का कोई दबाव नहीं था। शेखर गुप्ता को बहुत से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों औऱ सम्मानों से भी नवाजा गया जैसे 1984 में टफ्ट्स यूनिवर्सिटी और द न्यू यॉर्क टाइम्स में अमेरिकन सोसाइटी ऑफ न्यूज़पेपर एडिटर्स फ़ेलोशिप, 1997 में पत्रकारिता के लिए जीके रेड्डी पुरस्कार, 2006 में राष्ट्रीय एकीकरण के लिए द फखरुद्दीन अली अहमद मेमोरियल अवार्ड आदि शामिल हैं। पत्रकारिता में उनके योगदान के लिए 2009 में शेखर गुप्ता को पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। शेखर की किट्टी में इतने प्रोफेशनल अवार्ड्स भरे पड़े हैं जिनका उल्लेख कर पाना संभव नहीं।
जिस तरह शेखर गुप्ता मेहनतकश हैं वैसी ही टीम का वह चयन करते हैं। इस सिलसिले में मैं उनके फ़ोटो एडिटर प्रवीण जैन का उल्लेख करना चाहूंगा। इंडियन एक्सप्रेस में भी प्रवीण जैन उनके साथ थे और अब 'ThePrint' में भी। कोरोना महामारी से पीड़ित देश के विभिन्न भागों को जिस तरह से अपनी एक रिपोर्टर के साथ दौरा कर रहे हैं वह बेशक़ अपने काम के प्रति समर्पण का प्रतीक माना जायेगा। एक बार तो वह, उनकी रिपोर्टर और शायद गाड़ी ड्राइवर भी कोरोना की चपेट में आ गए और उन्हें 15 दिनों तक अहमदाबाद एकांतवास में रहना पड़ा था। बावजूद इसके प्रवीण आजकल फिर से अहमदाबाद में हैं। इस बार ज़्यादा एतिहाद बरत रहे हैं। कहते हैं कि यहां कोरोना के मामले ज़्यादा हैं। उनके साथ एक रिपोर्टर भी है। इसमें संदेह नहीं कि प्रवीण जैन बेखौफ और बहादुर फ़ोटो एडिटर हैं। मेरे साथ वह' संडे मेल' में थे। दो बार हम दोनों पाकिस्तान के चुनाव कवर करने के लिये गये थे। हमारे साथ अंग्रेज़ी 'संडे मेल' के गुरहरकीरत सिंह यानी जी.के. सिंह भी थे। कराची में एमक्यूएम के नेता हमारी पकड़ में नहीं आ रहे थे। किसी स्थानीय पत्रकार ने सलाह दी कि बेहतर है कि उनके चुनावी जलसे में पहुंच कर उनके मंच पर चढ़ जायें। वहां से आपको कोई नीचे नहीं उतार पायेगा। हमने वही किया। प्रवीण सब से पहले मंच पर चढ़ गये, मैं और जी.के. सिंह झिझक रहे थे। प्रवीण ने हम दोनों को हाथों से पकड़ कर मंच पर खींच लिया।मुहाजिर क़ौमी मूवमेंट यानी एमक्यूएम का चुनावी चिन्ह है 'पतंग'।अब हम लोग मंच पर जम गये। वहां भारतीय फिल्म का गाना चल रहा था'चली चली रे पतंग मेरी चली रे'। कहीं कहीं नारे लग रहे थे 'मज़लूमों के मसीहा हैं अल्ताफ हुसैन। 'पहले पहल अज़ीम तारिक आये उनका जलवा प्रधानमंत्री जैसा था। हम लोगों को वहां देखकर सकपकाए ज़रूर लेकिन कुछ कह नहीं पाये। मुझ से बातचीत में उन्होंने यह स्वीकार किया कि हमारी पार्टी के लोग जानबूझ कर आप लोगों से मिलने से इसलिए कतराते हैं कि आपके चले जाने के बाद हुकूमत के लोग हम पर इंडिया का एजेंट कह कर तोहमत लगाते हैं।मंच पर और भी नेता आते गये। अल्ताफ हुसैन के आने पर लोग बेकाबू हुए जा रहे थे। यह जलसा सुबह चार बजे तक चला। प्रवीण ने खूब फ़ोटो लीं तथा मैंने और जीके सिंह ने कुछ लोगों के इंटरव्यू। यह मुश्किल नहीं, बल्कि नामुमकिन समझा जाने वाला काम प्रवीण के चलते सहज हो गया। अगले दिन भारतीय उच्चायोग के मणि त्रिपाठी ने कहा, 'तुम लोगों की किस्मत अच्छी थी सहीसलामत लौट आये। कभी कभी ये लोग खासे उग्र हो जाते हैं।' हमारी 'बहादुरी' की यह खबर उच्चायुक्त मणि दीक्षित तक भी पहुंच गई जो प्रवीण जैन की इस तरह की दिलेरी औऱ निडरता से वाकिफ थे। बेशक़ शेखर गुप्ता की संपादकीय टीम में भी प्रवीण जैसे दिलेर और समर्पित लोग होंगे। जिस तरह से शेखर गुप्ता ने एक बेहतरीन, साफसुथरी, तटस्थ, सयंत और संतुलित तथा धारदार पत्रकारिता की है और अभी तक उसमें सफतला पायी है उसके लिये बेशक़ वह साधुवाद के हकदार हैं। हो सकता है कुछ लोग मुझ से इत्तिफ़ाक़ न रखते हों लेकिन हरेक का अपना अपना नज़रिया होता है। यह मेरा नज़रिया है शेखर। आमीन।
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