"कुइयांजान" / नसिरा शर्मा
मैं उपन्यास कुइयांजान पर अपने विचार रखना चाहता हूँ. मुझे ये उपन्यास अपने प्रवाह के कारण बहुत अच्छा लगा. जल संकट जैसे विषय को जिस सहजता के साथ इस उपन्यास में गूँथा गया है वो जहाँ इस मुद्दे की गंभीरता पर प्रकाश डालता है साथ ही साथ तत्काल प्रभाव से कार्य करने की की ओर प्रेरित करता है. हम लोग अपने घर मे एक एक बूँद पानी बचाने की कोशिश करते हैं. इस उपन्यास ने हमें अपने जल संग्रहण के प्रयासों को और बढ़ाने के लिए प्रेरित किया है.
पर इसका अंत मुझे काफ़ी हद तक व्यथित कर गया. समीना के किरदार को जिस तरह अचानक ख़त्म किया गया वह सदमे की तरह लगता है. मुझे कल से इसे पढ़ने के बाद रात भर नींद नहीं आई तथा मैं अभी तक इसके निराशाजनक अंत से उबर नहीं पा रहा हूँ. मुझे इसका ये अंत अनुचित तथा अतार्किक लगा जिसने अनावश्यक रूप से इस उपन्यास के चरम पर सारा आनंद तिरोहित कर दिया. परिस्थितियों की मजबूरियाँ तो समझ आती हैं पर मजबूरियों को क्यों जबरन लादा गया इस उपन्यास के अंत पर, वो मेरे लिए बहुत बुरा अनुभव रहा. पूरा उपन्यास जहाँ मानवीय स्वाभाव की कई परतों को ढकता उघाड़ता हमें इतना विभोर रखता है पर अंत मे मुझे इस से वितृष्णा ही हुई. नासिरा जी की कई रचनाएँ मैने कई कई बार पढ़ी हैं पर शायद ही इस रचना को दोबारा पढ़ने का साहस जुटा पाऊँ.
इसलिए नहीं कि रचना अच्छी नहीं है, रचना तो बहुत अच्छी है पर इस तरह के हृदय विदारक अंत आपको कई कई दिन तक परेशान करते हैं. इस से पहले 'काग़ज़ की नाव' का अंत भी बहुत मुश्किल था पर वहाँ नफ़रतों और वहशीपन ने कम से कम मजबूरी की पीड़ा से तो मुक्त कर दिया था पर समीना का 'कुइयांजान' मे अचानक चल बसना बहुत बड़ी निराशा को जन्म देता है. ना तो मैं उपन्यास के इस अप्रत्याशित घटनाक्रम से उबर पा रहा हूँ ना ही इसके पीछे लेखिका के अभिप्राय को समझ पा रहा हूँ. पर यदि हम ध्यान दें तो कहीं ना कहीं ये भी नासिरा जी की लेखन कला का चमत्कार ही है और उनकी कलम का जादू, कि पाठक उनके गढ़े हुए चरित्रों से एक सीधा सहज रिश्ता बना लेते हैं और उस घटनाक्रम को चरित्रों के साथ भोगने लगते हैं. इस अप्रत्याशित अंत ने इस उपन्यास की मूल भावना (जल सँचयन तथा संग्रहण) को अंत मे थोड़ा शिथिल कर दिया. किताब रखने के बाद मन समीना के अकालमृत्यु में उलझा रह जाता है, और जल संग्रहण की मूल भावना पीछे रह जाती है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें