शुक्रवार, 9 मई 2014

बाघ और नेता दोनों से डरते हैं वोटर






प्रस्तुति-- प्रमोद अखौरी,

चुनाव 2014

जीवेश मंडल हर साल मौत से खेलते हैं. शहद की तलाश में जंगल के भीतर जाने वाले मंडल को अक्सर रॉयल बंगाल टाइगर से दो-चार होना पड़ता है. नेताओं ने उन्हें इस हाल से बचाने के लिए कुछ नहीं किया है.

मंडल और उनके जैसे सैकड़ों लोग रोजाना यह जानते हुए भी घने जंगल में जाते हैं कि वह शायद जीवित नहीं लौट सकें. लेकिन मजबूरी यह है कि उनके सामने रोजगार का दूसरा कोई विकल्प नहीं है. मंडल सुंदरबन के गोसाबा इलाके के रहने वाले हैं. इस मैनग्रोव जंगल में स्थित 102 द्वीपों में से 54 में मानव आबादी है. मंडल खुद को भाग्यशाली मानते हैं कि वह अब तक जीवित हैं. जंगल विभाग के आंकड़ों के मुताबिक सुंदरबन में हर साल बाघों के हमलों में दर्जनों लोग अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं.
वर्ष 1985 से 2010 के बीच इन हमलों में कोई 410 लोग मारे जा चुके हैं और कई सौ लोग घायल हो चुके हैं. किसी ने इलाके में आजीविका के वैकल्पिक साधन बनाने के लिए कुछ नहीं किया है. विकल्प के अभाव में इलाके के लोग जानबूझ कर रोजाना मौत के मुंह में जाते हैं. यही वजह है कि सुंदरबन के लोग अब रॉयल बंगाल टाइगर और विभिन्न दलों के नेताओं में कोई फर्क नहीं समझते. 12 मई को होने वाले मतदान के प्रति इलाके में ज्यादा दिलचस्पी नहीं है. लोग जानते हैं कि इन चुनावों से उनके जीवन में कुछ भी नहीं बदलेगा.
नोटा का इस्तेमाल
सुंदरबन जन श्रमजीवी मंच के महासचिव पवित्र मंडल कहते हैं, "आजादी के बाद इतना समय बीत जाने के बावजूद सरकार ने इलाके के लोगों की वैकल्पिक आजीविका का कोई इंतजाम नहीं किया है. इलाके में कई गांव ऐसे हैं जहां महज विधवाएं ही रहती हैं." मंडल राजनेताओं से काफी नाराज हैं. इलाके के लोगों ने बीते लोकसभा और विधानसभा चुनावों में बदलाव के लिए वोट डाले थे. लेकिन बरसों से वोट डालने के बावजूद उनके जीवन में कुछ भी नहीं बदला है. इलाके के लोग राजनीति से हताश भले हों, लेकिन वह जानते हैं कि वोट नहीं देना उनके हित में नहीं है.
तमाम दलों के कार्यकर्ता इस बात का हिसाब रखते हैं कि किसने वोट डाला है और किसने नहीं. इलाके के देवराज ढाली कहते हैं, "हमें रॉयल बंगाल टाइगर और राजनीतिक कार्यकर्ताओं की निगाहों में कोई फर्क नहीं नजर आता. यह दोनों हमारा शिकार करने को उतावले नजर आते हैं." इसलिए मंच ने अबकी लोकसभा चुनावों में ऐसे उम्मीदवार को वोट देने का फैसला किया है जो उनकी मांगों का समर्थन करे. मंडल कहते हैं, "हम वैकल्पिक रोजगार चाहते हैं लेकिन अब तक किसी भी पार्टी ने इसका वादा नहीं किया है. इसलिए अबकी हम नोटा बदन दबाने की सोच रहे हैं."
मंडल और उनके सहयोगी इलाके के द्वीपों में घूम कर लोगों को नोटा बटन की अहमियत समझा रहे हैं. मंच के एक कार्यकर्ता अरविंद जोआरदार कहते हैं, "आइला तूफान के पांच साल बीत जाने के बावजूद सुंदरबन की हालत जस की तस है. ज्यादातर तटबंधों की मरम्मत नहीं हुई है. इलाके में पीने के पानी की भारी किल्लत है. लेकिन कोई भी राजनीतिक पार्टी इस ओर ध्यान नहीं दे रही है."
पहले इलाके में लेफ्टफ्रंट की धाक थी. लेकिन वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव और दो साल बाद विधानसभा चुनावों में लोगों ने परिवर्तन के लिए मतदान किया था. अब इलाके के लोगों को समझ में आ रहा है कि बदलाव सिर्फ शीर्ष स्तर पर हुआ है. इलाके की जमीनी हकीकत जस की तस है. फऱजना बीबी कहती हैं, "राजनेताओं और रॉयल बंगाल टाइगर में कोई फर्क नहीं. दोनों समान रूप से खतरनाक हैं. अंतर बस इतना है कि रॉयल बंगाल टाइगर कभी भी जंगल से बाहर आ सकता है, लेकिन हमारे राजनेता पांच साल में एक बार इस इलाके का रुख करते हैं.'
दो सीटें
सुंदरबन इलाके में लोकसभा की दो सीटें है जो पश्चिम बंगाल के दक्षिण 24-परगना जिले के तहत हैं. जयनगर व मथुरापुर सीटों पर उम्मीदवारों की किस्मत का फैसला सुंदरबन के द्वीपों पर रहने वाले 25.5 लाख वोटर करेंगे. लेकिन खुद इन वोटरों का भविष्य ही अनिश्चित और असुरक्षित है. इलाके में हर आधारभूत ढांचा, डूबते द्वीपों को बचाना और रोजगार के वैकल्पिक साधन ही प्रमुख मुद्दे बन कर उभरते रहे हैं.
पिछली बार मथुरापुर सीट पर जीते तृणमूल कांग्रेस उम्मीदवार सी.एम.जटुआ केंद्र में मंत्री भी रहे हैं. वह अबकी भी मैदान में हैं. जटुआ कहते हैं कि तृणमूल कांग्रेस सरकार ने इलाके में कई विकास योजनाओं की पहल की है. वह मानते हैं कि समस्या काफी गंभीर है और उनको दूर करने में समय लगेगा. जयनगर तो एसयूसीआई की पारंपरिक सीट रही है. लेकिन ममता ने अबकी वह सीट उसके कब्जे से छीनने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है.
श्रमजीवी मंच के महासचिव मंडल कहते हैं, "इलाके में कोई भी जीते या हारे, हमारी किस्मत नहीं बदलेगी. हमें जान हथेली पर लेकर हर सुबह जंगल के भीतर जाना ही होगा. नहीं गए तो परिवार का पेट कैसे पालेंगे ?"
रिपोर्ट: प्रभाकर, कोलकाता
संपादन: महेश झा

DW.DE

संबंधित सामग्री



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें