सोमवार, 26 मई 2014

नेहरू गांधी के बाद मोदी युग शुरू





प्रस्तुति- अखौरी प्रमोद, अमित कुमार

भारत के पहले प्रधानमंत्री की 50वीं पुण्यतिथि देश के 14वें प्रधानमंत्री के पद संभालने के जश्न के साए में हो रही है. आजादी के बाद नेहरू ने देश को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश की लेकिन इस बीच उनके विचारों की क्षति होती गई है.
जवाहरलाल नेहरू की पुण्यतिथि के मौके पर दो संयोग हुए हैं. एक दिन पहले देश के प्रधानमंत्री के रूप में बीजेपी नेता नरेंद्र मोदी का शपथ ग्रहण समारोह और तीन दिन पहले कांग्रेस की कमान फिर से गांधी परिवार के हवाले करने का 44 सांसदों वाली पार्टी का संकल्प. कांग्रेस परिवार के मोह और वंश की राजनीति में घिरी रहकर ही लगता है सुख में है और उधर पहली बार ऐसी सरकार सत्ता में आई है जो नेहरू के मूल्यों को चिढ़ाती हुई सी लगती है.
इसे प्रतीकात्मक तौर पर यूं भी देख सकते हैं कि नेहरू खानदान के वारिसों ने 50वीं पुण्यतिथि के मौके पर क्या नजराना पेश किया है. जीवनपर्यंत संघ की विचारधारा का तीखा विरोध करते रहे नेहरू की पुण्यतिथि से पहले ही संघ के ही एक स्वयंसेवक के पास देश की कमान आ गई है. प्रतीक के तौर पर ही गौर करें कि नेहरू की आत्मा आखिर अपने नाती की बहू और उनके बेटे से क्या पूछती होगी कि ये क्या कर डाला. ऐसी भयानक फजीहत. 1947 में देश की कमान संभालते हुए नेहरू ने अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था, "अन्तत: समय ने निर्णायक करवट ले ली है और हमारे लिए इतिहास का नया अध्याय शुरू हो रहा है." कैसा संयोग है कि नेहरू के उस कथन से उतरकर वक्त ने फिर करवट ले ली है और यही बात अब अलग मुंह से सुनी जा रही है.
नेहरू के वारिसों के पास एक सीधा सा जवाब है कि कांग्रेस कोई पहली बार थोड़े ही हारी है. लेकिन कांग्रेस की दुर्गति का इतिहास देखें तो असल में ये शुरुआत नेहरू की बेटी और देश की तीसरी प्रधानमंत्री रहीं इंदिरा गांधी से होती है, आपातकाल जिनके करियर पर एक अमिट दाग है. कांग्रेस के भीतर सत्ता लोलुपता और वर्चस्व की लड़ाइयों के बीच से अपना रास्ता इंदिरा ने बेशक बनाया लेकिन ये रास्ता नेहरू के विचार और सपने से अलग निकलता था. नेहरू नए रास्तों में गुम हो गए. कांग्रेस में इंदिरा की जय जयकार का युग आ गया. और फिर ये जय-जय राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी तक जारी रही. जब जब ये जय जयकार धीमी हुई, गांधी परिवार के भक्तों ने उसका वॉल्यूम बढ़ा दिया और कैसी हैरानी है कि 2014 की ऐतिहासिक पराजय में भी गांधी परिवार महानता के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाया है.
परिवार की पार्टी बनीं कांग्रेस
नेहरू ने कभी भी वंशवाद के प्रति अपना मोह नहीं दिखाया. इंदिरा गांधी का सत्ता में आना भी उस दौर की राजनैतिक हलचलों के बीच एक संयोग ही था. लेकिन इंदिरा बनाम अन्य की लड़ाई कांग्रेस के भीतर इतनी तीखी और कड़वी होती गई कि इंदिरा ने एक आक्रामक रणनीति बनाकर विरोधियों को किनारे किया, अपना प्रताप बढ़ाया अपने गलियारे बनाये और नेहरू की कांग्रेस इन गलियारों में विलीन होकर कांग्रेस आई हो गई. जो नहीं गए वे इधर उधर छिटक कर अन्य पार्टियां बन गये. आजाद भारत के निर्माण और परिष्कार के नेहरू के सपनों की जगह सत्ता की राजनीति में राजनैतिक और आर्थिक भ्रष्टाचार, नौकरशाही का बोलबाला होता चला गया. दक्षिणपंथी ताकतों को बल मिला. संघ ने दायरा फैलाया. विपक्ष इंदिरा विरोध तक सीमित रह गया. जन-आकांक्षा की स्पेस खाली होती गईं. वाम दल भी उन्हें भर नहीं पाए. इंदिरा गांधी ने बहस और संवाद की अपने पिता की लीगेसी से पीछा छुड़ाया तो उनके बेटे राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री के रूप में अपनी बारी आने पर नेहरू के धर्मनिरपेक्ष विचार को ही ठेंगा दिखा दिया. शाहबानो केस और अयोध्या में ताला खुलवाने का आदेश ऐसी दो ऐतिहासिक घटनाएं हैं जिन्होंने इस देश के सामाजिक तानेबाने में निर्णायक लकीर खींच दी.
आज अगर संघ एक विराट कामयाबी के साथ देश की सत्ता की बागडोर अपने हाथ में लेने पर सफल हुआ है तो इसका एक बड़ा क्रेडिट इंदिरा और राजीव को भी जाता है. बाकी काम उनके बाद सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने किया. कांग्रेस की सत्ता का मनमोहन सिंह काल तो शिथिलता और धीरे धीरे ढेर हो जाने की "कला" के नाम रहा. 2014 ने पार्टी सरकार और देश के नेहरूवियन मॉडल की रही सही उम्मीद भी ध्वस्त कर दी. इसका असर सिर्फ कांग्रेस तक ही सीमित नहीं था. समूची हिंदी पट्टी की राजनैतिक ताकतें अपना सा मुंह लेकर रह गईं. नेहरू की 50वीं पुण्यतिथि उस वाम भटकाव की गहरी चिंता करने का भी समय है जिस वाम के इतने तहे दिल से मुरीद नेहरू थे. उन्होंने बेशक एक मिलीजुली अर्थव्यवस्था देश के लिए चुनी लेकिन उनका वाम झुकाव स्पष्ट था. कैसी विडंबना है कि इस पुण्यतिथि पर हमें लेफ्ट के परिदृश्य से गायब हो जाने की दुर्घटना भी देखनी थी.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी
संपादन: ओंकार सिंह जनौटी

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