प्रस्तुति -- निम्मी नर्गिस, अमित मिश्रा
भारत के उच्चतम न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसले में किन्नरों को तीसरे लिंग
के तौर पर मान्यता दी है. इस पर मानवाधिकार कार्यकर्ता मोहसिन सईद ने
डीडब्ल्यू से बातचीत में इसे पूरे दक्षिण एशिया के लिए एक बड़ा कदम बताया.
15 अप्रैल को भारत के सबसे बड़े न्यायालय, सुप्रीम कोर्ट ने किन्नरों को
पुरूष या महिला के बजाए एक तीसरे लिंग का दर्जा दिया. कोर्ट ने केंद्र और
राज्य सरकारों को आदेश दिया कि किन्नरों को सामाजिक और आर्थिक रूप से
पिछड़ा समुदाय माना जाए और उन्हें नौकरी और शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण
दिया जाए. इससे भारत के करीब तीस लाख किन्नरों को फायदा होगा और उन्हें भी
आम नागरिकों की तरह हर अधिकार प्राप्त होगा.
आम बोलचाल की हिन्दी में किन्नरों को 'हिजड़ा' कहा जाता है. इसमें प्राकृतिक रूप से उभयलिंगी, नपुंसक, प्रतिजातीय वेश से काम सुख पाने वाले और दूसरे लिंग की तरह कपड़े पहनने और रहन सहन रखने वाले लोग भी शामिल हैं. दुबई में रहने वाले पाकिस्तानी मानवाधिकार कार्यकर्ता मोहसिन सईद कई सालों से किन्नरों, समलैंगिकों और उभयलिंगी लोगों को समाज में बराबरी के अधिकार दिलाए जाने के लिए काम कर रहे हैं. सईद कोर्ट के इस फैसले का स्वागत करते हैं लेकिन साथ ही मानते हैं कि दक्षिण एशिया के तमाम किन्नरों की स्थिति सुधारने के लिए सिर्फ इतना काफी नहीं है.
डीडब्ल्यू: भारत ने अब आधिकारिक रूप से किन्नरों को एक तीसरे लिंग के तौर पर मान्यता दे दी है. क्या कोर्ट के इस फैसले से देश के लोगों की किन्नरों के प्रति सोच बदलने में मदद मिलेगी?
मोहसिन सईद: यह अपने आप में एक क्रांतिकारी फैसला है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत का संविधान बहुत ही प्रगतिशील है, जिसमें सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और हर धर्म के लोगों को समान अधिकार मिले हुए हैं. मगर हम यह भी जानते हैं कि जो कुछ भी भारत के संविधान में है वह सब असल में होता नहीं. यह वही कोर्ट है जिसने ब्रिटिश काल के समलैंगिक संबंधों पर रोक लगाने वाले कानून को 2009 में निरस्त कर दिया था लेकिन पिछले साल फिर से बहाल कर दिया. यह तो एक कदम आगे और दो कदम पीछे लेने जैसी बात हुई.
डीडब्ल्यू: कानूनी अड़चनों के अलावा, दक्षिण एशियाई देशों में किन्नर किस तरह की परेशानियां झेलते हैं?
मोहसिन सईद: कोर्ट के एक आदेश से रातों रात किन्नरों के प्रति लोगों की सोच नहीं बदलने वाली. इसमें बहुत समय लगेगा. पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र में किन्नरों के साथ भेदभाव की भावना लोगों के दिमाग में घर कर चुकी है. यह लोग आर्थिक और सामाजिक रूप से हाशिए पर रहते हैं और इनके साथ इंसानों जैसा बर्ताव भी नहीं किया जाता.
डीडब्ल्यू: इस भेदभाव के लिए कौन जिम्मेदार है?
मोहसिन सईद: हर कोई. समाज का हर तबका इनको तुच्छ समझता है. लोगों को लगता है कि समलैंगिक होना किसी बीमारी के जैसा है. लोग किन्नरों को भी बीमारी समझते हैं.
डीडब्ल्यू: भारत और पाकिस्तान में समलैंगिक समुदाय के लोगों के साथ कैसा बर्ताव किया जाता है? क्या उनकी दुर्दशा किन्नरों से अलग है?
मोहसिन सईद: दोनों की ही स्थिति बुरी है लेकिन यह एक अलग मुद्दा है. असल समस्या तो यह है कि दक्षिण एशियाई देशों में लोग समलैंगिक लोगों और किन्नरों में फर्क नहीं कर पाते. मान लिया जाता है कि किन्नर समलैंगिक होते हैं और सभी समलैंगिक किन्नर. इसी से समाज में फैले हुए भ्रम और इनके प्रति नफरत का अंदाजा लगता है. उन्हें 'दूसरा' कहा जाता है यानि वे लोग जो ज्यादातर लोगों से अलग हों और समाज की मुख्यधारा का हिस्सा न हों.
इंटरव्यू: शामिल शम्स/आरआर
संपादन: आभा मोंढे
आम बोलचाल की हिन्दी में किन्नरों को 'हिजड़ा' कहा जाता है. इसमें प्राकृतिक रूप से उभयलिंगी, नपुंसक, प्रतिजातीय वेश से काम सुख पाने वाले और दूसरे लिंग की तरह कपड़े पहनने और रहन सहन रखने वाले लोग भी शामिल हैं. दुबई में रहने वाले पाकिस्तानी मानवाधिकार कार्यकर्ता मोहसिन सईद कई सालों से किन्नरों, समलैंगिकों और उभयलिंगी लोगों को समाज में बराबरी के अधिकार दिलाए जाने के लिए काम कर रहे हैं. सईद कोर्ट के इस फैसले का स्वागत करते हैं लेकिन साथ ही मानते हैं कि दक्षिण एशिया के तमाम किन्नरों की स्थिति सुधारने के लिए सिर्फ इतना काफी नहीं है.
डीडब्ल्यू: भारत ने अब आधिकारिक रूप से किन्नरों को एक तीसरे लिंग के तौर पर मान्यता दे दी है. क्या कोर्ट के इस फैसले से देश के लोगों की किन्नरों के प्रति सोच बदलने में मदद मिलेगी?
मोहसिन सईद: यह अपने आप में एक क्रांतिकारी फैसला है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत का संविधान बहुत ही प्रगतिशील है, जिसमें सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और हर धर्म के लोगों को समान अधिकार मिले हुए हैं. मगर हम यह भी जानते हैं कि जो कुछ भी भारत के संविधान में है वह सब असल में होता नहीं. यह वही कोर्ट है जिसने ब्रिटिश काल के समलैंगिक संबंधों पर रोक लगाने वाले कानून को 2009 में निरस्त कर दिया था लेकिन पिछले साल फिर से बहाल कर दिया. यह तो एक कदम आगे और दो कदम पीछे लेने जैसी बात हुई.
डीडब्ल्यू: कानूनी अड़चनों के अलावा, दक्षिण एशियाई देशों में किन्नर किस तरह की परेशानियां झेलते हैं?
मोहसिन सईद: कोर्ट के एक आदेश से रातों रात किन्नरों के प्रति लोगों की सोच नहीं बदलने वाली. इसमें बहुत समय लगेगा. पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र में किन्नरों के साथ भेदभाव की भावना लोगों के दिमाग में घर कर चुकी है. यह लोग आर्थिक और सामाजिक रूप से हाशिए पर रहते हैं और इनके साथ इंसानों जैसा बर्ताव भी नहीं किया जाता.
डीडब्ल्यू: इस भेदभाव के लिए कौन जिम्मेदार है?
मोहसिन सईद: हर कोई. समाज का हर तबका इनको तुच्छ समझता है. लोगों को लगता है कि समलैंगिक होना किसी बीमारी के जैसा है. लोग किन्नरों को भी बीमारी समझते हैं.
मोहसिन सईद: दोनों की ही स्थिति बुरी है लेकिन यह एक अलग मुद्दा है. असल समस्या तो यह है कि दक्षिण एशियाई देशों में लोग समलैंगिक लोगों और किन्नरों में फर्क नहीं कर पाते. मान लिया जाता है कि किन्नर समलैंगिक होते हैं और सभी समलैंगिक किन्नर. इसी से समाज में फैले हुए भ्रम और इनके प्रति नफरत का अंदाजा लगता है. उन्हें 'दूसरा' कहा जाता है यानि वे लोग जो ज्यादातर लोगों से अलग हों और समाज की मुख्यधारा का हिस्सा न हों.
इंटरव्यू: शामिल शम्स/आरआर
संपादन: आभा मोंढे
- तारीख 16.04.2014
- कीवर्ड तीसरा सेक्स, हिजड़े, भारत, सुप्रीम कोर्ट. समलैंगिक, पाकिस्तान, दक्षिण एशिया, कानून, अधिकार, मानव अधिकार
- शेयर करें भेजें फेसबुक ट्विटर गूगल+ और जानकारी
- फीडबैक: हमें लिखें
- प्रिंट करें यह पेज प्रिंट करें
- पर्मालिंक http://dw.de/p/1Bjf1
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें