शुक्रवार, 2 मई, 2014 को 10:46 IST तक के समाचार
प्रस्तुति -राज सोनकर विवेकानंद
भारत में पहले आम चुनाव 1952 में
हुए थे जिन्हें सफलतापूर्वक सम्पन्न कराने में चुनाव आयोग ने आधिकारिक रूप
से क़रीब साढ़े दस करोड़ रुपए ख़र्च किए थे जबकि 2014 में जारी लोक सभा
चुनावों के लिए चुनाव आयोग लगभग 5,000 करोड़ रुपए ख़र्च कर रहा है.
हालांकि जानकारों के मुताबिक़ 1952 में हुए पहले आम चुनाव में तक़रीबन 350-400 करोड़ रुपए ख़र्च हुए थे.हैरानी की बात ये है कि चुनाव सम्बन्धी ख़र्चों पर नज़र बनाए रखनी वाली दो प्रमुख संस्थाओं के अनुसार इस बार चुनाव आयोग और सभी राजनीतिक दलों का मिलाजुला ख़र्च 30,000 करोड़ रुपए के आंकड़े को पार कर जाएगा.
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स का मानना है कि इस हिसाब से मौजूदा लोक सभा चुनाव अब तक के सबसे ख़र्चीले चुनाव हो जाएंगे.
इस ख़र्चे के बीच भारत में हो रहे इन चुनावों ने एक और रिकॉर्ड बना डाला है क्योंकि अब अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव के बाद ये दुनिया के दूसरे सबसे महंगे चुनाव कहलाए जाएंगे.
आख़िर किन चीज़ों और ख़र्चों के चलते ये आंकड़े आसमान छूते जा रहे हैं?
पांच बातें
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सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ के चेयरमैन एन भास्कर राव के अनुसार, "इस बार ये ख़र्च 5,000 से लेकर 7,000 करोड़ रुपए तक हो जाएगा क्योंकि कई इलाक़ों में अतिरिक्त सुरक्षा और तैनाती की ज़रुरत पड़ रही है. ये सिर्फ़ लोक सभा चुनाव कराने का ख़र्च है, विधान सभा चुनावों का नहीं."
चुनावों में दूसरा सबसे बड़ा ख़र्च होता है विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा विज्ञापन, प्रचार और उम्मीदवारों पर किया जाने वाला ख़र्च.
तीसरी पायदान पर उम्मीदवारों द्वारा किया जाने वाला ख़र्च होता है जो वे अपने चुनाव क्षेत्र में करते हैं.
एन भास्कर राव के मुताबिक़ ये वही ख़र्च होता है जिस पर चुनाव आयोग ने लगाम लगाने की कोशिश भी की है और फिलहाल कोई भी उम्मीदवार 70 लाख रुपए से ज़्यादा का ख़र्च एक चुनाव में नहीं कर सकता.
उन्होंने बताया, "भारत में मुश्किल यही है कि अभी भी वोट फॉर नोट का चलन है यानी मतदाताओं को पैसा पहुंचाना या फिर उनके लिए ज़रुरत की चीज़ें मुहैया करवाना आम बात है. ख़ास बात ये है कि इसमें काले धन का प्रयोग अभी भी प्रचलन में है."
मीडिया पब्लिसिटी
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एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के प्रमुख अनिल वर्मा का मत है कि मीडिया में अपनी पब्लिसिटी करवाने के लिए राजनीतिक दल और उम्मीदवार कितना पैसा लुटाते हैं इसका हिसाब शायद ही किसी के पास हो.
उन्होंने बताया, "कौन लोग किसके प्रचार के लिए मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर कितने करोड़ ख़र्च कर रहे हैं इसका कोई हिसाब नहीं. मिसाल के तौर पर चुनाव घोषित होने के दो महीने पहले से ही दलों ने अख़बारों में पूरे पेज के इश्तिहार निकालने शुरू कर दिए. इसी से अंदाजा लगा लीजिए की एक विज्ञापन की क़ीमत 20 लाख रुपए तक हो सकती है."
एन भास्कर राव ने भी बताया कि उनकी संस्था के चुनाव सम्बन्धी शोध में पता चला कि महज़ 125 करोड़ रुपए तो सिर्फ़ ओपिनियन पोल कराने में ही ख़र्च कर दिए गए.
उन्होंने पांचवां और अहम बन चुका ख़र्च भी बताया, "कॉरपोरेट या बड़े व्यापार समूहों द्वारा चुनाव में ख़र्च किया जा रहा रुपया अब बेहिसाब होता जा रहा है. सभी के अपने मक़सद होते हैं, जैसे सीमेंट कम्पनियाँ किसी एक पार्टी को करती हैं और खनन कम्पनियाँ अपने क्षेत्रों में करतीं हैं. इस वर्ष आचार संहिता लागू होने के पहले ही कॉरपोरेट जगत 1,000 करोड़ रुपए ख़र्च कर चुका था."
धुआंधार कैम्पेन
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इसके लिए क़रीब 400 निजी हेलीकाप्टरों की सेवाएं ली जा रही है और दर्जनों निजी विमान एक हवाई पट्टी से दूसरी तक की दूरी महज़ चंद घंटों में ही पूरी कर लेते हैं.
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ द्वारा जमा किए गए आंकड़ों के अनुसार अब तक क़रीब 400 करोड़ रुपए तो सिर्फ़ हेलीकॉप्टरों पर ही ख़र्च किया जा चुका है.
वरिष्ठ पत्रकार परंजोय गुहा ठाकुरता तो इस बात पर भी हैरान लगे कि हर मिनट आने वाले विज्ञापनों और प्रसारणों में अगर मोदी और राहुल गांधी ही नज़र आए तो आख़िर इतना पैसा कहाँ से आया और किसने लगाया.
उन्होंने कहा, "निर्वाचन आयोग ने उम्मीदवारों पर तो पाबंदी लगा दी लेकिन राजनीतिक दलों पर पाबंदी लगाने की कोई बात ही नहीं हुई. पार्टियों पर 20,000 रुपए से ज़्यादा मिलने वाला चंदा ही उजागर करना अनिवार्य है. तब अगर कोई व्यक्ति या समूह 20 बार किसी राजनीतिक दल को 19,990 रुपये चंदा देता रहे, किसे पता चलेगा."
कॉरपोरेट चंदा
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एन भास्कर राव के अनुसार, "हमें भी अचरज हुआ था, लेकिन सच यही है कि उजागर किए गए चंदे में बड़े बिज़नेस समूहों ने कांग्रेस और भाजपा को बराबर के पैसे दिए थे. यानी उनका दांव दोनों पर ही रहता है."
अब जब बात दसियों हज़ार करोड़ रुपए की हो रही है तो ज़ाहिर है राजनीतिक दलों की उम्मीदें और उम्मीदवारों के हौसले आसमान छू रहे हैं.
चुनावी ख़र्चों पर नज़र रखने और उनका हिसाब किताब रखने वाले निर्वाचन आयोग के महकमे के महानिदेशक पीके दाश कहते हैं, "ये बात सही है कि राजनीतिक दलों पर ख़र्चे की कोई पाबंदी नहीं है और ये होनी चाहिए. चुनाव आयोग भी इस ओर क़दम बढ़ाने की कोशिश में है."
हालांकि इस समस्या के कई और पहलू भी हैं जिसके बारे में दाश का कहना है, "इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और इंटरनेट पर उम्मीदवारों के ख़र्च पर चुनाव आयोग निगरानी रख रहा है. चूंकि राजनीतिक दलों पर ऐसी कोई रोक नहीं है, इसलिए उनका पूरा लेखा जोखा रखना एक चुनौती है."
भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसका असर कैसा पड़ता है ये भी नतीजों के और नई सरकार के गठन के बाद साफ़ हो जाएगा.
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