प्रस्तुति- मनीषा यादव, प्रतिमा यादव
वर्धा
अगली सरकार की चुनौतियां
भारत की अर्थव्यवस्था हिचकोले खा रही है. रुपया जब तब मूर्छित हो जाता है.
आधारभूत ढांचे का विकास भी ठहर गया है. सांप्रदायिक हिंसा बड़ा मुद्दा है.
कुल मिलाकर अगली सरकार के सामने चुनौतियों का पहाड़ है.
16 मई को नतीजे के बाद सरकार बनाने वाले गठबंधन को जून जुलाई तक बजट पेश
करना होगा. बजट के जरिए नई सरकार को बताना होगा कि वो बीती सरकार से कैसे
अलग है. सर्वेक्षणों के मुताबिक बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार
नरेंद्र मोदी सरकार बनाने की स्थिति में आ सकते हैं.
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के मामले में जनमानस की चिंताएं और उम्मीदें आपस में टकराते हुए आगे बढ़ती हैं. मोदी पर आरोप है कि उन्होंने 2002 में गुजरात दंगों को काबू करने की कोशिश नहीं की. मोदी एक दशक बाद दंगों पर अफसोस जताते हैं और कहते हैं कि पीएम बने तो वो सबको साथ लेकर चलेंगे. लेकिन उन्हें सांप्रदायिक सद्भाव की कसौटी पर खुद को साबित करना होगा.
लाल होती बैलेंस शीट
आगामी सरकार ऐसे वक्त में सत्ता संभालेगी, जब अर्थव्यवस्था बेहद खराब स्थिति में हैं. महंगाई हावी है, रुपये को बार बार डॉलर से लड़ना पड़ता है. नई नौकरियां पैदा नहीं हो रही हैं, विदेशी निवेशक भी घबराने लगे हैं. कारोबार जगत में निराशा का भाव है. युवा उद्यमियों के लिए हालात कठोर हैं. बजट पेश करने वाली अगली सरकार को बताना होगा कि वो वित्तीय घाटे को काबू में रखते हुए इन समस्याओं से कैसे निपटेगी.
बीजेपी ने घोषणापत्र में वित्तीय अनुशासन और बैंकिंग सुधारों का वादा किया है, हालांकि पार्टी ने विस्तार से इसकी जानकारी नहीं दी है. मार्च 2014 को खत्म हुए वित्तीय वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 4.6 फीसदी थी. कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार ने सरकारी खर्च में 13 अरब डॉलर की कटौती की और 16 अरब डॉलर की रियायत दी. ऐसी कटौती को जारी रखना मुश्किल होगा. भारत में सरकारी कंपनियां तेल, गैस, खाद और अनाज बाजार दर से कम दाम में अपने उत्पाद बेचती हैं. इस नुकसान की भरपाई सरकारी खजाने से होती है.
लेकिन दूसरी तरफ टैक्स से होने वाली आय बढ़ने की उम्मीद कम है. 2007-08 में जीडीपी में 12.5 फीसदी हिस्सा टैक्स से आया. बीते साल यह गिर कर 10.2 फीसदी रह गया. नई सरकार के सामने चुनौती होगी कि वह इस हिस्सेदारी को बढ़ाए.
नई सरकार के लिए चालू खाते में हो रहे घाटे को भी काबू में रखने की चुनौती होगी. बीते साल चालू खाते में रिकॉर्ड 4.8 फीसदी घाटा दर्ज किया गया. इसकी वजह से सोने के आयात पर पाबंदी लगानी पड़ी. बीजेपी का वादा है कि वो सोने पर लगने वाले आयात शुल्क की समीक्षा करेगी. आम लोगों के लिए यह भले ही अच्छी बात हो लेकिन निवेशकों के लिहाज से यह चिंताजनक हो सकता है. ऐसा करने से चालू खाते का घाटा और बढ़ सकता है.
रॉकेट युग में कछुआ चाल
सुपर पावर जैसी बातें करने वाले भारत में अब भी खेती मौसम और बारिश पर निर्भर है. बीते कुछ सालों को देखें तो नहरें या खेती के लिए नई परियोजनाएं बहुत ही कम बनीं. डीजल और बिजली महंगी होने से किसानों से लेकर आम लोगों तक की मुश्किलें जरूर बढ़ीं.
दंगों के दाग के साथ मोदी की छवि काम करने वाले एक तेज तर्रार प्रशासक की भी है. वे निवेशकों को आकर्षित करते हैं. उन्होंने गुजरात को भारत के सामने विकास के मॉडल की तरह पेश किया है. वहीं दूसरी तरफ यूपीए सरकार की अलमारी में एक चौथाई परियोजनाएं लंबित हैं. बीजेपी का घोषणापत्र कहता है कि पार्टी लाल फीताशाही काट फटाफट काम करेगी. हालांकि एफडीआई में सीधे विदेशी निवेश का विरोध बीजेपी भी करती है.
एक बड़ी चुनौती सरकारी बैंकों के फंसे हुए कर्ज को निकालने की भी है. भारत के सरकारी बैंकों की 100 अरब डॉलर की रकम डूबा कर्ज है. डूबा कर्ज उस रकम को कहते हैं, जिसकी उगाही की संभावना नहीं के बराबर होती है. डूबे कर्ज के पीछे बड़ी देनदारी उन कंपनियों की है, जो आधारभूत संरचना के लिए काम कर रही हैं. कुछ प्रोजेक्ट बीच में अटके हैं. लिहाजा कर्ज देना बैंकों की मजबूरी बन गई है.
यह वो वित्तीय समस्याएं हैं, जिसे हल कर ही कोई सरकार कर्ज के दलदल में फंसे बिना पर्यावरण, स्वास्थ्य, शिक्षा और विकास जैसे क्षेत्रों में पैसा लगा सकती है. जाहिर है जेब में पैसा होगा तो काम भी होगा, खाली जेब तो सिर्फ गपबाजी ही हो सकती है.
ओएसजे/एजेए (रॉयटर्स)
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के मामले में जनमानस की चिंताएं और उम्मीदें आपस में टकराते हुए आगे बढ़ती हैं. मोदी पर आरोप है कि उन्होंने 2002 में गुजरात दंगों को काबू करने की कोशिश नहीं की. मोदी एक दशक बाद दंगों पर अफसोस जताते हैं और कहते हैं कि पीएम बने तो वो सबको साथ लेकर चलेंगे. लेकिन उन्हें सांप्रदायिक सद्भाव की कसौटी पर खुद को साबित करना होगा.
लाल होती बैलेंस शीट
आगामी सरकार ऐसे वक्त में सत्ता संभालेगी, जब अर्थव्यवस्था बेहद खराब स्थिति में हैं. महंगाई हावी है, रुपये को बार बार डॉलर से लड़ना पड़ता है. नई नौकरियां पैदा नहीं हो रही हैं, विदेशी निवेशक भी घबराने लगे हैं. कारोबार जगत में निराशा का भाव है. युवा उद्यमियों के लिए हालात कठोर हैं. बजट पेश करने वाली अगली सरकार को बताना होगा कि वो वित्तीय घाटे को काबू में रखते हुए इन समस्याओं से कैसे निपटेगी.
बीजेपी ने घोषणापत्र में वित्तीय अनुशासन और बैंकिंग सुधारों का वादा किया है, हालांकि पार्टी ने विस्तार से इसकी जानकारी नहीं दी है. मार्च 2014 को खत्म हुए वित्तीय वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 4.6 फीसदी थी. कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार ने सरकारी खर्च में 13 अरब डॉलर की कटौती की और 16 अरब डॉलर की रियायत दी. ऐसी कटौती को जारी रखना मुश्किल होगा. भारत में सरकारी कंपनियां तेल, गैस, खाद और अनाज बाजार दर से कम दाम में अपने उत्पाद बेचती हैं. इस नुकसान की भरपाई सरकारी खजाने से होती है.
लेकिन दूसरी तरफ टैक्स से होने वाली आय बढ़ने की उम्मीद कम है. 2007-08 में जीडीपी में 12.5 फीसदी हिस्सा टैक्स से आया. बीते साल यह गिर कर 10.2 फीसदी रह गया. नई सरकार के सामने चुनौती होगी कि वह इस हिस्सेदारी को बढ़ाए.
नई सरकार के लिए चालू खाते में हो रहे घाटे को भी काबू में रखने की चुनौती होगी. बीते साल चालू खाते में रिकॉर्ड 4.8 फीसदी घाटा दर्ज किया गया. इसकी वजह से सोने के आयात पर पाबंदी लगानी पड़ी. बीजेपी का वादा है कि वो सोने पर लगने वाले आयात शुल्क की समीक्षा करेगी. आम लोगों के लिए यह भले ही अच्छी बात हो लेकिन निवेशकों के लिहाज से यह चिंताजनक हो सकता है. ऐसा करने से चालू खाते का घाटा और बढ़ सकता है.
रॉकेट युग में कछुआ चाल
सुपर पावर जैसी बातें करने वाले भारत में अब भी खेती मौसम और बारिश पर निर्भर है. बीते कुछ सालों को देखें तो नहरें या खेती के लिए नई परियोजनाएं बहुत ही कम बनीं. डीजल और बिजली महंगी होने से किसानों से लेकर आम लोगों तक की मुश्किलें जरूर बढ़ीं.
दंगों के दाग के साथ मोदी की छवि काम करने वाले एक तेज तर्रार प्रशासक की भी है. वे निवेशकों को आकर्षित करते हैं. उन्होंने गुजरात को भारत के सामने विकास के मॉडल की तरह पेश किया है. वहीं दूसरी तरफ यूपीए सरकार की अलमारी में एक चौथाई परियोजनाएं लंबित हैं. बीजेपी का घोषणापत्र कहता है कि पार्टी लाल फीताशाही काट फटाफट काम करेगी. हालांकि एफडीआई में सीधे विदेशी निवेश का विरोध बीजेपी भी करती है.
एक बड़ी चुनौती सरकारी बैंकों के फंसे हुए कर्ज को निकालने की भी है. भारत के सरकारी बैंकों की 100 अरब डॉलर की रकम डूबा कर्ज है. डूबा कर्ज उस रकम को कहते हैं, जिसकी उगाही की संभावना नहीं के बराबर होती है. डूबे कर्ज के पीछे बड़ी देनदारी उन कंपनियों की है, जो आधारभूत संरचना के लिए काम कर रही हैं. कुछ प्रोजेक्ट बीच में अटके हैं. लिहाजा कर्ज देना बैंकों की मजबूरी बन गई है.
यह वो वित्तीय समस्याएं हैं, जिसे हल कर ही कोई सरकार कर्ज के दलदल में फंसे बिना पर्यावरण, स्वास्थ्य, शिक्षा और विकास जैसे क्षेत्रों में पैसा लगा सकती है. जाहिर है जेब में पैसा होगा तो काम भी होगा, खाली जेब तो सिर्फ गपबाजी ही हो सकती है.
ओएसजे/एजेए (रॉयटर्स)
- तारीख 08.04.2014
- कीवर्ड भारत सरकार, भारतीय अर्थव्यवस्था, मोदी, बजट, विकास, दंगे
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