प्रस्तुति-- निम्मी, प्रतिमा, मनीषा, हिमानी
वर्धा
विश्व
पटल पर भारत की छवि अनेकता में एकता प्रधान राष्ट्र की है. ऐसा माना जाता
है कि यहां भिन्न-भिन्न धर्म और जातियों से संबंधित लोगों का आवास होने के
बावजूद आज भी भारत में सौहार्द और आपसी सहयोग जैसी भावनाओं में कोई कमी
नहीं आई है.
लेकिन
क्या आज का भारतीय समाज उपरोक्त सराहनाओं के योग्य है? क्या वास्तव में हम
एक-दूसरे के प्रति समान भावनाएं और सौहार्द रखते हैं?
ऐसा माना
जाता है कि किसी भी देश का सामाजिक और आर्थिक भविष्य उस देश की राजनीति के
हाथों में होती है. अगर राजनीति स्वच्छ और परिष्कृत हो तो नागरिकों का जीवन
स्तर तो सुधरता ही है साथ ही उनमें एक-दूसरे के साथ सहयोग भाव और समान
हितों के प्रति जागरुकता में प्रभावी वृद्धि होती है.
लेकिन दुर्भाग्यवश भारतीय राजनीति उपरोक्त कसौटियों पर कभी भी खरी नहीं उतरी. क्योंकि जिन-जिन सरकारों ने यहां राज किया सभी ने बांटों और राज करो
जैसी नीति को ही अपनाया. अंग्रेजी शासनकाल की बात करें या फिर आजादी के
बाद के समय की धार्मिक भिन्नता से प्रारंभ हुए इस सिलसिले ने छोटी-छोटी
जातियों और समुदायों को भी अपनी चपेट में ले लिया.
अंग्रेजों ने भारत पर दीर्घकालीन राज करने के लिए डिवाइड एंड रूल की नींव रखी थी वहीं आज भारतीय राजनीति स्वयं जातिवाद जैसी दूषित भावना को बढ़ावा देकर इस सिद्धांत का बेरोकटोक अनुसरण कर रही है.
यूं तो
प्रारंभ से ही भारत में अलग-अलग जातियों का अस्तित्व रहा है, लेकिन कभी भी
इसे इतने विकराल अर्थों में नहीं लिया गया जितना यह अब बन पड़ा है. जातियों
का महत्व और औचित्य हमेशा से रहा है और रहेगा भी लेकिन इसे जातिवाद के साथ
जोड़ देने से यह अब बहुत भयानक और विकृत रूप ग्रहण कर चुका है.
जाति
का अर्थ एक ऐसे समुदाय से है जिसमें व्यक्ति जन्म लेता है. वैदिक काल में
श्रम के आधार पर व्यक्तियों को चार वर्णों में विभाजित किया था लेकिन समय
के साथ-साथ यह अनगिनत जातियों में बंट गई. जातियों का बंटना इतना बड़ा मसला
कभी ना बनता अगर राजनीति ने जातिवाद जैसे पक्षपाती और भेदभाव से ग्रसित
शब्द को जन्म ना दिया होता.
जातिवाद
से आशय उस दूषित भावना से है जो जाति के आधार पर एक ही समाज में रह रहे
लोगों को आपस में मतभेद और द्वेष रखना सिखाती है. अनुसूचित जाति और जनजाति
जैसे मसले पूर्ण रूप से राजनैतिक हैं. हमारी राजनीति में जहां अपने फायदे
के लिए किसी को पिछड़ा और दलित प्रमाणित कर दिया जाता है वहीं कुछ जो भले ही
कितने असहाय हों लेकिन सिर्फ जाति को ही आधार बताकर उन्हें पूर्णत: संपन्न
और ताकतवर की उपाधि दे दी जाती है.
निश्चित
तौर पर जातिवाद जैसी घृणित और विकृत व्यवस्थाएं राष्ट्रीयता की भावना और
लोकतंत्र की अवधारणा पर गहरा प्रहार कर रही हैं. जातिवाद जैसी राजनैतिक
व्यवस्था किसी अन्य राष्ट्र में व्याप्त नहीं है. जातिवाद को बढ़ावा देकर
भारत के लोगों की नियति कुछ ऐसे मुट्ठीभर लोगों के हाथों में चली गई है
जिन्हें लोकतंत्र और सामाजिक सुधारों से कोई सरोकार नहीं है. अपने हित
साधने के लिए जाति के आधार पर लोगों को एक-दूसरे से अलग रखना उनका ध्येय बन
चुका है. ऐसे खतरनाक मंसूबे कभी भी लोकतंत्र के मूल विचारों को फलने नहीं
देंगे. भारत एक विकासशील देश है और तेज प्रगति के लिए जातिवाद को जड़ से
समाप्त कर देना अनिवार्य बन गया है. बदलते समय और विकसित होते समाज को
जातिवाद जैसी दूषित भावना की कोई जरूरत नहीं है.
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