प्रस्तुति- राजेश कुमार सिन्हा,
नई संसद के लिए मतदाताओं ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी को भारी बहुमत से जिताकर उससे अपनी उम्मीदें जोड़ दी हैं और सोनिया और राहुल गांधी की कांग्रेस पार्टी को उसकी गलतियों और भ्रष्टाचार के लिए बेरहमी से सजा दी है.
बीजेपी की अभूतपूर्व जीत से भारत में गठबंधन सरकारों का एक काल समाप्त हो रहा है. देश में
राजनीतिक भ्रष्टाचार और बहुत सारी अन्य समस्याओं के लिए गठबंधन धर्म को जिम्मेदार ठहराया
जाता रहा है. अब बीजेपी को अकेले बहुमत देकर मतदाताओं ने छोटी क्षेत्रीय पार्टियों के पर कतरे हैं
और उसे समस्याओं का हल करने के लिए खुला हाथ दिया है. लेकिन इसके साथ नरेंद्र मोदी की नई
सरकार के साथ बहुत सारी उम्मीदें भी जुड़ गई हैं.
इस साल का चुनाव और मायनों में भी निर्णायक है. इस बार भारत के 81 करोड़ मतदाताओं में से 55 करोड़ लोगों ने मतदान में भाग लेकर रिकॉर्ड बनाया है. लोगों को इतनी बड़ी तादाद में पोलिंग बूथ पर लाने का श्रेय भी नरेंद्र मोदी को जाता है, जिन्होंने देहाती इलाकों में गांधी परिवार की परंपरागत लोकप्रियता का सामना करने के लिए अमेरिका जैसा चुनाव प्रचार किया, जिसमें राष्ट्रीय अभियानों के जरिए अनजाना उम्मीदवार भी अपने को गंभीर राजनेता के रूप में स्थापित करता है. हालांकि इसके लिए औद्योगिक घरानों के चंदों का बड़ा महत्व है, इस रणनीति की सफलता ने भारत को नए राजनीतिक विकल्प दिए हैं.
हालांकि मोदी और बीजेपी ने परंपरागत रूप से प्रभावी और सोशल मीडिया समर्थित हाईटेक चुनाव अभियान चलाया, उन्होंने अपने हिंदू राष्ट्रवादी विचारों के कारण मतदाताओं का ध्रुवीकरण भी किया. उन पर मुख्यमंत्री रहते हुए 2002 में गुजरात के दंगों में कुछ न करने के आरोप लगते रहे हैं, जिनमें 1000 से ज्यादा लोग मारे गए थे. मोदी के चुनाव प्रचार का मकसद अपने समर्थकों को बांधकर रखना और विकास और भ्रष्टाचार विरोध के नारे के साथ नए समर्थक खींचना था. इसमें वे अत्यंत सफल रहे. बीजेपी को इस बात से भी मदद मिली कि कांग्रेस और करीब करीब सभी क्षेत्रीय पार्टियां बीजेपी को किनारा करने के लिए मुसलमानों को लुभाने में लगी रहीं.
मोदी को सबसे ज्यादा लाभ कांग्रेस पार्टी की कमजोरी से मिला, जिसकी सरकार पिछले महीनों में लगातार अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रही थी. सरकार और पार्टी विभाजित दिखाई दे रहे थे. मनमोहन सिंह ने चुनाव प्रचारों में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई, क्योंकि पार्टी सरकार की उपलब्धियों के बदले मोदी के डर को भुनाने में लगी थी. कांग्रेस की एक और बड़ी गलती नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किए जाने के बावजूद अपनी उम्मीदवार घोषित नहीं करना था. राहुल गांधी हिचकते नेता के रूप में सामने आए जो नेतृत्व की क्षमता नहीं दिखा रहा था. कांग्रेस दौड़ शुरू होने से पहले ही हार गई थी.
नरेंद्र मोदी के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती एक ऐसी सरकार बनाने की है जो आक्रामक चुनाव प्रचार के बाद बंटे देश को एक करे, अल्पसंख्यकों का डर समाप्त करे और लोगों को आश्वस्त करे कि मकसद देश का सर्वांगीण विकास है. उनकी फौरी चुनौती पिछले सालों की ढुलमुल नीति और विकास दर में आए ढीलेपन के बाद भारत को फिर से विकास और प्रगति के तेज रास्ते पर वापस लाने की होगी. इसके लिए कारोबारी माहौल को बेहतर बनाकर कारोबारियों में फिर से भरोसा जगाना होगा. तभी बड़े पैमाने पर नए रोजगार पैदा किए सकेंगे और युवा मतदाताओं की उम्मीदों को पूरा किया जा सकेगा जो बेहतर और सुरक्षित जीवन चाहते हैं.
इसके लिए पड़ोसियों के साथ अच्छे रिश्ते भी जरूरी हैं. पाकिस्तान और चीन के साथ रिश्तों को सुधारना मोदी की सबसे बड़ी चुनौती होगी. मोदी में पाकिस्तान भी ऐसा साथी देखेगा जिसके विचार भले ही सख्त हों, लेकिन ढुलमुल नहीं हैं. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने अपने पिछले कार्यकाल में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बीहारी वाजपेयी के साथ शांति की कोशिश की थी, बीजेपी की नई सरकार के दौरान उस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा सकता है. आर्थिक विकास के लिए नई सरकार को पड़ोसियों के साथ झगड़े के बदले उनसे आर्थिक सहयोग बढ़ाने का रास्ता अपनाना होगा.
तेज आर्थिक विकास के लिए भारत को पश्चिम के विकसित देशों के निवेश और टेक्नोलॉजी की भी जरूरत है. अमेरिका के साथ रिश्ते नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी चुनौती होंगे. अमेरिका गुजरात दंगों में उनकी भूमिका के चलते सालों से उन्हें वीजा देने से मना करता रहा है. हालांकि पिछले कुछ महीनों में अमेरिका ने माहौल में सुधार लाने की कोशिश की है, लेकिन मोदी और देवयानी खोबरागड़े जैसे मामलों के कारण तल्ख हुए रिश्तों को सामान्य बनाने के लिए दोनों ही पक्षों को काफी मेहनत करनी होगी.
इसका फायदा जर्मनी और यूरोप के साथ भारत के रिश्तों को हो सकता है. लेकिन आर्थिक सहयोग को और तेज करने के लिए उन्हें कई सालों से धीमी चल रही मुक्त व्यापार संधि की बातचीत को उसके मुकाम तक पहुंचाना होगा. भारत को बेहतर कारोबारी माहौल, बौद्धिक संपदा की रक्षा और विवाद की स्थिति में मामले के जल्द निबटारे जैसी यूरोपीय चिंताओं को दूर करने के कदम उठाने होंगे.
नरेंद्र मोदी की नई सरकार को घरेलू और विदेशी मोर्चे पर बहुत सारी चुनौतियों और उम्मीदों से जूझना है. मोदी को दृढ़ता दिखानी होगी और कड़े फैसले लेने होंगे. चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने दिखाया है कि ऐसा करने में वे सक्षम हैं.
ब्लॉग: महेश झा
संपादन: ईशा भाटिया
इस साल का चुनाव और मायनों में भी निर्णायक है. इस बार भारत के 81 करोड़ मतदाताओं में से 55 करोड़ लोगों ने मतदान में भाग लेकर रिकॉर्ड बनाया है. लोगों को इतनी बड़ी तादाद में पोलिंग बूथ पर लाने का श्रेय भी नरेंद्र मोदी को जाता है, जिन्होंने देहाती इलाकों में गांधी परिवार की परंपरागत लोकप्रियता का सामना करने के लिए अमेरिका जैसा चुनाव प्रचार किया, जिसमें राष्ट्रीय अभियानों के जरिए अनजाना उम्मीदवार भी अपने को गंभीर राजनेता के रूप में स्थापित करता है. हालांकि इसके लिए औद्योगिक घरानों के चंदों का बड़ा महत्व है, इस रणनीति की सफलता ने भारत को नए राजनीतिक विकल्प दिए हैं.
हालांकि मोदी और बीजेपी ने परंपरागत रूप से प्रभावी और सोशल मीडिया समर्थित हाईटेक चुनाव अभियान चलाया, उन्होंने अपने हिंदू राष्ट्रवादी विचारों के कारण मतदाताओं का ध्रुवीकरण भी किया. उन पर मुख्यमंत्री रहते हुए 2002 में गुजरात के दंगों में कुछ न करने के आरोप लगते रहे हैं, जिनमें 1000 से ज्यादा लोग मारे गए थे. मोदी के चुनाव प्रचार का मकसद अपने समर्थकों को बांधकर रखना और विकास और भ्रष्टाचार विरोध के नारे के साथ नए समर्थक खींचना था. इसमें वे अत्यंत सफल रहे. बीजेपी को इस बात से भी मदद मिली कि कांग्रेस और करीब करीब सभी क्षेत्रीय पार्टियां बीजेपी को किनारा करने के लिए मुसलमानों को लुभाने में लगी रहीं.
मोदी को सबसे ज्यादा लाभ कांग्रेस पार्टी की कमजोरी से मिला, जिसकी सरकार पिछले महीनों में लगातार अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रही थी. सरकार और पार्टी विभाजित दिखाई दे रहे थे. मनमोहन सिंह ने चुनाव प्रचारों में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई, क्योंकि पार्टी सरकार की उपलब्धियों के बदले मोदी के डर को भुनाने में लगी थी. कांग्रेस की एक और बड़ी गलती नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किए जाने के बावजूद अपनी उम्मीदवार घोषित नहीं करना था. राहुल गांधी हिचकते नेता के रूप में सामने आए जो नेतृत्व की क्षमता नहीं दिखा रहा था. कांग्रेस दौड़ शुरू होने से पहले ही हार गई थी.
नरेंद्र मोदी के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती एक ऐसी सरकार बनाने की है जो आक्रामक चुनाव प्रचार के बाद बंटे देश को एक करे, अल्पसंख्यकों का डर समाप्त करे और लोगों को आश्वस्त करे कि मकसद देश का सर्वांगीण विकास है. उनकी फौरी चुनौती पिछले सालों की ढुलमुल नीति और विकास दर में आए ढीलेपन के बाद भारत को फिर से विकास और प्रगति के तेज रास्ते पर वापस लाने की होगी. इसके लिए कारोबारी माहौल को बेहतर बनाकर कारोबारियों में फिर से भरोसा जगाना होगा. तभी बड़े पैमाने पर नए रोजगार पैदा किए सकेंगे और युवा मतदाताओं की उम्मीदों को पूरा किया जा सकेगा जो बेहतर और सुरक्षित जीवन चाहते हैं.
इसके लिए पड़ोसियों के साथ अच्छे रिश्ते भी जरूरी हैं. पाकिस्तान और चीन के साथ रिश्तों को सुधारना मोदी की सबसे बड़ी चुनौती होगी. मोदी में पाकिस्तान भी ऐसा साथी देखेगा जिसके विचार भले ही सख्त हों, लेकिन ढुलमुल नहीं हैं. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने अपने पिछले कार्यकाल में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बीहारी वाजपेयी के साथ शांति की कोशिश की थी, बीजेपी की नई सरकार के दौरान उस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा सकता है. आर्थिक विकास के लिए नई सरकार को पड़ोसियों के साथ झगड़े के बदले उनसे आर्थिक सहयोग बढ़ाने का रास्ता अपनाना होगा.
तेज आर्थिक विकास के लिए भारत को पश्चिम के विकसित देशों के निवेश और टेक्नोलॉजी की भी जरूरत है. अमेरिका के साथ रिश्ते नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी चुनौती होंगे. अमेरिका गुजरात दंगों में उनकी भूमिका के चलते सालों से उन्हें वीजा देने से मना करता रहा है. हालांकि पिछले कुछ महीनों में अमेरिका ने माहौल में सुधार लाने की कोशिश की है, लेकिन मोदी और देवयानी खोबरागड़े जैसे मामलों के कारण तल्ख हुए रिश्तों को सामान्य बनाने के लिए दोनों ही पक्षों को काफी मेहनत करनी होगी.
इसका फायदा जर्मनी और यूरोप के साथ भारत के रिश्तों को हो सकता है. लेकिन आर्थिक सहयोग को और तेज करने के लिए उन्हें कई सालों से धीमी चल रही मुक्त व्यापार संधि की बातचीत को उसके मुकाम तक पहुंचाना होगा. भारत को बेहतर कारोबारी माहौल, बौद्धिक संपदा की रक्षा और विवाद की स्थिति में मामले के जल्द निबटारे जैसी यूरोपीय चिंताओं को दूर करने के कदम उठाने होंगे.
नरेंद्र मोदी की नई सरकार को घरेलू और विदेशी मोर्चे पर बहुत सारी चुनौतियों और उम्मीदों से जूझना है. मोदी को दृढ़ता दिखानी होगी और कड़े फैसले लेने होंगे. चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने दिखाया है कि ऐसा करने में वे सक्षम हैं.
ब्लॉग: महेश झा
संपादन: ईशा भाटिया
- तारीख 16.05.2014
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