प्रस्तुति-- निम्मी नर्गिस/अमित मिश्रा
वर्धा
कविता में जैसे महाकाव्यात्मकता है दुनिया के नक्शे में वैसा ही बर्लिन है. अपने आकार से नहीं, संस्कृति और समाज की अपने अंदर समाई विराटता से. दूसरे विश्व युद्ध के बाद बर्लिन बंट गया था. इसके बीचोंबीच एक लोहे का पर्दा डाल दिया गया जो बर्लिन की कुख़्यात दीवार के नाम से दुनिया में जाना गया. पूर्वी और पश्चिमी बर्लिन को बांटने वाली
1961 में कम्युनिस्ट देश पूर्वी जर्मनी ने बर्लिन की दीवार का निर्माण कराया था. वो सिर्फ विचारधाराओं को ही नहीं बल्कि परिवारों, दोस्तों और पड़ोसियों को भी बांटती थी. बर्लिन पर बलिहारी जाऊं, कुछ इसी अंदाज़ में “इष बिन आइन बर्लिनर” (मैं हूं बर्लिन वाला), कह कर पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने बर्लिन वासियों के लिए समूचे पश्चिम की भावनाओं का इज़हार किया था. विभाजित शहर की त्रासदी और शीत युद्ध के दरम्यान पूरब और पश्चिम के तनावों को झेल चुके बर्लिन के दो चेहरे हैं. ये ऐतिहासिक सच्चाई भी हैं, भौगौलिक विवशता भी और कूटनैतिक रस्साकशी की प्रकट चतुराइयों के हाशिए पर आम लोगों की तक़लीफ़ों और संघर्षो का एक मार्मिक साहसिक आख्यान भी. बर्लिन के इन चेहरों
इसी से उस शांतिपूर्ण आंदोलन की शुरूआत हुई जिसनें 1989 में कम्युनिस्ट शासकों को सत्ता से बेदख़ल कर दिया औऱ जिसके बाद निर्णायक रूप से दोनों जर्मनी और दोनों बर्लिन 1990 में फ़िर से एक हो गए.
दीदार की घड़ी
नौ नवंबर 1989. उस रात शीत युद्ध की भीषणताओं और यातनाओं की प्रतीक दीवार ढहा दी गई. पूर्वी जर्मनी की हुकूमत को भारी जन दबाव के आगे झुकना पड़ा. सीमा नियंत्रण के सख़्त नियम क़ायदे हटा लिए गए. लोगों की दीवार के इधर से उधर आवाजाही खोल दी गयी. लाखों लोगों के ख़्वाब पूरे हुए. उस रात जब गेट आखिरकार खुल गए तो पूरब और पश्चिम के हज़ारों लोग एक दूसरे की बांहो में समा गए, एक दूसरे के गलों से चिपट गए. शैम्पेन से भी ज़्यादा ख़ुशी के आंसुओँ से दिल, दस्तावेज़, सड़कें, गाड़ियां सब कुछ सराबोर हो गया. ऐसी थी मिलन की अलौकिक अभूतपूर्व प्रसन्नता.
एक दशक से ज़्यादा हुए उस ऐतिहासिक लम्हे को बीते. जर्मनी की राजधानी में काफ़ी कुछ बदल गया है. हथौड़ों, घनों, बुलडोज़रो और क्रेनों की धड़धड़ाहटें लंबे समय तक शहर के सीने पर गूंजती रहीं. दीवार गिरने के कुछ ही समय बाद, दुनिया भर से आए कामगारों और तकनीशियनों ने शहर के सभी ज़िलों का पुनर्निर्माण कर दिया.
शहर का दिल कहा जाने वाले पोस्टडामर प्लात्स चौक को तो पूरा का पूरा फ़िर से बनाया गया. दूसरे विश्व युद्ध ने इसे तबाह कर दिया था और बाद में सोवियत फौज ने इसे पूरी तरह से रौंद दिया था.
आज कांच और इस्पात के मिलन की करिश्माई तकनीक से खड़ीं गगनचुंबी इमारतें बताती हैं कि बर्लिन महज़ अपना इतिहास ढोने वाले शहर नहीं है. अपने भूगोल से अपने भविष्य तक बर्लिन एक शहर ही नहीं एक उम्मीद भी है.
शिव प्रसाद जोशी
पहले दीवार फिर दीदार का शहर
जर्मनी की राजधानी बर्लिन न सिर्फ देश का सबसे बड़ा शहर है बल्कि दुनिया के
इतिहास में भी इसकी ख़ास भूमिका है. बर्लिन ने लड़ाइयां भी देखीं हैं,
आंसूओं की बाढ़ भी और इनसे गुजर चुका ये शहर अब उम्मीदें भी देता और
ज़िंदादिली भी
बर्लिन की दीवार के अवशेष
कविता में जैसे महाकाव्यात्मकता है दुनिया के नक्शे में वैसा ही बर्लिन है. अपने आकार से नहीं, संस्कृति और समाज की अपने अंदर समाई विराटता से. दूसरे विश्व युद्ध के बाद बर्लिन बंट गया था. इसके बीचोंबीच एक लोहे का पर्दा डाल दिया गया जो बर्लिन की कुख़्यात दीवार के नाम से दुनिया में जाना गया. पूर्वी और पश्चिमी बर्लिन को बांटने वाली
लंबे वक्त बाद आई बर्लिन में शांति
चेकप्वायंट चार्ली सीमा पर अमेरिकी और सोवियत टैंक मोर्चा लिए आमने सामने थे.
दोनो पक्ष ठीक इसी जगह से तीसरा विश्व युद्ध छेड़ देने पर आमादा थे.
लेकिन कुछ इतिहास आख़िरकार लड़ाई पर ऊतारु ताक़तों के इर्द गिर्द भी टहलता
रहा. टैंक लौट गए, सेनाएं लौट गईं, हुकूमतें लौट गईं और आख़िरकार अपने
लोगों के साथ एक शहर फिर से लौट आया. वही बर्लिन आज जर्मनी की शान है. अपनी
क्रूर विध्वंसक विवादास्पद स्मृतियों को इतिहास के एक कोने में रखकर आगे
बढ़ चुका बर्लिन. 1961 में कम्युनिस्ट देश पूर्वी जर्मनी ने बर्लिन की दीवार का निर्माण कराया था. वो सिर्फ विचारधाराओं को ही नहीं बल्कि परिवारों, दोस्तों और पड़ोसियों को भी बांटती थी. बर्लिन पर बलिहारी जाऊं, कुछ इसी अंदाज़ में “इष बिन आइन बर्लिनर” (मैं हूं बर्लिन वाला), कह कर पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने बर्लिन वासियों के लिए समूचे पश्चिम की भावनाओं का इज़हार किया था. विभाजित शहर की त्रासदी और शीत युद्ध के दरम्यान पूरब और पश्चिम के तनावों को झेल चुके बर्लिन के दो चेहरे हैं. ये ऐतिहासिक सच्चाई भी हैं, भौगौलिक विवशता भी और कूटनैतिक रस्साकशी की प्रकट चतुराइयों के हाशिए पर आम लोगों की तक़लीफ़ों और संघर्षो का एक मार्मिक साहसिक आख्यान भी. बर्लिन के इन चेहरों
देखने लायक है बर्लिन का टीवी टावर
से यूरोप और कहना चाहिए शीत युद्ध की विश्व राजनीति का फ़लसफ़ा भी नुमायां होता है.
अपार सब्सिडियों और विशेष आर्थिक पैकेजों की बदौलत पश्चिम बर्लिन एक
आधुनिक तरक्कीयाफ़्ता महानगर बना रहा. इसके उच्च कोटि के ज़िलों
चारलौटेनबुर्ग और विल्मर्ज़डॉर्फ की चमक बनी रही. कुरफ्युरश्टेनडाम शॉपिंग
केंद्र, काइज़र विल्हेल्म मेमोरियल चर्च और पश्चिम बर्लिन के दक्षिणी
हिस्से में वानज़ी झील के इर्दगिर्द निर्मित मनोरंजक सैरगाहें भी ध्यान
खींचती रही. शहर की एक उप संस्कृति बनाते न्योक्योल्न औऱ क्रयुज़बर्ग जैसे
पारंपरिक नौकरीपेशा ज़िले तो थे ही. साथ में जर्मनी की बौद्धिक और कला कर्म
बिरादरी पश्चिमी बर्लिन में फलती फूलती रही. और उधर दीवार के उस तरफ़,
जर्मन जनतांत्रिक गणराज्य (जीडीआर) नाम का देश था जिसकी राजधानी थी पूर्वी
बर्लिन. कम्युनिस्ट हुकूमत को इस बात का गर्व था कि जर्मन धरती पर वो पहला
समाजवादी देश खड़ा कर पाई है. कम्युनिस्ट सरकार ने विशाल गलीचेदार सड़कें
बनवायीं और टीवी टॉवर सरीखी वास्तुश्लिप की महा रचनाएं तैयार कीं. मॉस्को
की तर्ज पर श्टालिनाली जैसी अनुकृतियां भी उस दौर में सामने आईं. इन
निर्माणों के साथ साथ पूर्वी बर्लिन पूर्वी जर्मनी में चल रहे बौद्धिक और
सांस्कृतिक आंदोलनों का केंद्र भी बन गया. कई बौद्धिकों ने पाया कि पूर्वी
जर्मनी का रोज़मर्रा का जीवन समाजवाद के आदर्शों से मेल नहीं खाता था. इस
तरह की विरोधी प्रवृतियां प्रगाढ़ होती चली गयीं. और उन्होंने वो ज़मीन
तैयार कर दी जिस पर क्रांति के बीज पनपने लगे. इसी से उस शांतिपूर्ण आंदोलन की शुरूआत हुई जिसनें 1989 में कम्युनिस्ट शासकों को सत्ता से बेदख़ल कर दिया औऱ जिसके बाद निर्णायक रूप से दोनों जर्मनी और दोनों बर्लिन 1990 में फ़िर से एक हो गए.
कला और तकनीक का गढ़ है बर्लिन
दीदार की घड़ी
नौ नवंबर 1989. उस रात शीत युद्ध की भीषणताओं और यातनाओं की प्रतीक दीवार ढहा दी गई. पूर्वी जर्मनी की हुकूमत को भारी जन दबाव के आगे झुकना पड़ा. सीमा नियंत्रण के सख़्त नियम क़ायदे हटा लिए गए. लोगों की दीवार के इधर से उधर आवाजाही खोल दी गयी. लाखों लोगों के ख़्वाब पूरे हुए. उस रात जब गेट आखिरकार खुल गए तो पूरब और पश्चिम के हज़ारों लोग एक दूसरे की बांहो में समा गए, एक दूसरे के गलों से चिपट गए. शैम्पेन से भी ज़्यादा ख़ुशी के आंसुओँ से दिल, दस्तावेज़, सड़कें, गाड़ियां सब कुछ सराबोर हो गया. ऐसी थी मिलन की अलौकिक अभूतपूर्व प्रसन्नता.
एक दशक से ज़्यादा हुए उस ऐतिहासिक लम्हे को बीते. जर्मनी की राजधानी में काफ़ी कुछ बदल गया है. हथौड़ों, घनों, बुलडोज़रो और क्रेनों की धड़धड़ाहटें लंबे समय तक शहर के सीने पर गूंजती रहीं. दीवार गिरने के कुछ ही समय बाद, दुनिया भर से आए कामगारों और तकनीशियनों ने शहर के सभी ज़िलों का पुनर्निर्माण कर दिया.
शहर का दिल कहा जाने वाले पोस्टडामर प्लात्स चौक को तो पूरा का पूरा फ़िर से बनाया गया. दूसरे विश्व युद्ध ने इसे तबाह कर दिया था और बाद में सोवियत फौज ने इसे पूरी तरह से रौंद दिया था.
आज कांच और इस्पात के मिलन की करिश्माई तकनीक से खड़ीं गगनचुंबी इमारतें बताती हैं कि बर्लिन महज़ अपना इतिहास ढोने वाले शहर नहीं है. अपने भूगोल से अपने भविष्य तक बर्लिन एक शहर ही नहीं एक उम्मीद भी है.
शिव प्रसाद जोशी
- तारीख 22.07.2009
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