सोमवार, 5 मई 2014

तेजी से कम हो रही है भारत में लड़कियां

प्रस्तुति--- निम्मी मनीषा, प्रतिमा, हिमानी
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विवि.
वर्धा

उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडीशा और छत्तीसगढ़ समेत नौ राज्यों में लड़कों के मुकाबले लड़कियों की तादाद तेजी से घट रही है. इसकी वजह भ्रूण हत्या तो है ही पारिवारिक उपेक्षा और लड़की के पालन-पोषण में लापरवाही भी कम जिम्मेदार नहीं. 
यह समस्या पिछड़े राज्यों में ज्यादा है. जनगणना विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक इन नौ राज्यों के कई जिलों में चार साल तक की उम्र के बच्चों में लिंग में अनुपात का अंतर तेजी से बढ़ा है. अब चूंकि इनमें बड़ी आबादी वाले कई राज्य भी शामिल हैं, इसलिए इस अंतर का मतलब लड़कों के मुकाबले लड़कियों की तादाद में लाखों की कमी है.
नौ में से चार राज्यों में तो यह अंतर सबसे ज्यादा है. विडंबना यह है कि इनमें से लगभग सभी राज्यों में कुछ साल तक पहले लिंग का अनुपात राष्ट्रीय औसत के मुकाबले ज्यादा था. इससे साफ है कि हाल के वर्षों में लड़कियों के प्रति समाज का रवैया तेजी से बदला है. इन राज्यों में जन्म के समय लिंग के अनुपात में सुधार आया है. लेकिन उपेक्षा और पोषण में कमी की वजह से चार साल तक उम्र तक पहुंचते-पहुंचते यह फासला बढ़ जाता है. जनगणना विभाग उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश, ओडीशा, झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और असम में सालाना स्वास्थ्य सर्वेक्षण करता रहा है. इस तरह का पहला सर्वेक्षण 2007-09 में किया गया था. उसके बाद वर्ष 2010 और 2011 में भी इसी तरह के सर्वेक्षण किए गए हैं.
राजस्थान सबसे नीचे
इन नौ राज्यों में राजस्थान का स्थान सबसे नीचे है. झारखंड पहले बाकी राज्यों के मुकाबले बेहतर स्थिति में था, लेकिन असम और छत्तीसगढ़ के साथ वहां भी चार साल तक की उम्र के बच्चों के बीच लिंग के अनुपात में फासला तेजी से बढ़ा है. छत्तीसगढ़ में यह अनुपात पहले 1000 के मुकाबले 978 था जो अब घट कर 965 रह गया है. इसी तरह बिहार के सभी जिलों में यह घटा है. मध्यप्रदेश के ज्यादातर जिलों में इसमें गिरावट आई है और उत्तराखंड, जहां हालत पहले से ही बदतर थी, में स्थिति और खराब हुई है. असम में भी स्थिति खराब है. राज्य के ज्यादातर जिलों में बच्चों के मुकाबले बच्चियों की तादाद तेजी से घटी है.
आखिर इसकी वजह क्या है? जाने-माने बाल रोग विशेषज्ञ डा. रमेंद्र दासगुप्ता कहते हैं, "सिर्फ भ्रूण हत्या ही इसकी वजह नहीं है. इसके लिए समाज की मानसिकता भी काफी हद तक जिम्मेदार है." वह कहते हैं कि आम तौर पर ज्यादातर परिवारों में बेटियों की परवरिश पर बेटों की तरह ध्यान नहीं दिया जाता. इसकी वजह से वे कुपोषण की शिकार हो जाती हैं और चार साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते उनमें से ज्यादातर विभिन्न बीमारियों की चपेट में आकर मौत के मुंह में समा जाती हैं.
सामाजिक कार्यकर्ता कौशल्या दास भी उनकी बातों का समर्थन करती हैं. वह कहती हैं, "भ्रूण हत्या रोकने के लिए बने कानूनों से इस पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सका है. लेकिन अब तक ऐसा कोई कानून नहीं बना है जो माता-पिता को बच्चियों की बेहतर परवरिश के लिए मजबूर कर सके." कौशल्या कहती हैं कि खासकर उन परिवारों में तो नवजात बच्चियों के प्रति और उपेक्षा बरती जाती है जहां पहले से ही एक या दो लड़की हो.
समाधान
विशेषज्ञों का कहना है कि इस समस्या पर अंकुश लगाने के लिए सामाजिक जागरुकता जरूरी है. प्रसव से पहले ही संबंधित मां और उसके परिजनों को बच्चियों के बेहतर परवरिश की जरूरत के बारे में बताया जाना चाहिए. डा. दासगुप्ता कहते हैं कि समाज में यह भावना पैदा होनी चाहिए कि बेटे और बेटी में कोई फर्क नहीं है. आम तौर पर लोग बेटे की परवरिश पर तो खूब ध्यान देते हैं, लेकिन बेटियों के मामले में उपेक्षा और टालमटोल का रवैया अपनाते हैं.
इन लोगों की राय में अगर इस समस्या पर काबू पाने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की गई तो आगे चल कर स्थिति काफी गंभीर हो जाएगी. कौशल्या कहती हैं कि अकेले सरकार यह काम नहीं कर सकती. इस जागरुकता अभियान में गैर-सरकारी संगठनों की सक्रिय भागीदारी जरूरी है.
रिपोर्ट: प्रभाकर, कोलकाता
संपादन: महेश झा

DW.DE

संबंधित सामग्री

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें