प्रस्तुति- अनामी
नवरात्र पर यहां लगता है भूतों का मेला, होता है प्रेत आत्माओं का खात्मा
कहते हैं
यहां भूत उतारा जाता है। इसलिए यहां काफी भीड़ होती है।
रांची/पलामू। नवरात्र का वक्त चल रहा है। ऐसे में देश के विभिन्न देवी मंदिरों में रोजाना भक्तों का ताता
लगा रहता है। पर झारखंड के
पलामू जिले
में एक ऐसा देवी धाम है, जहां भूतों का मेला लगता है। पढ़कर आप भी एक बार चौंक जाएंगे पर यहां ऐसा ही होता है।
नवरात्र के पहले दिन से ही
पूरे झारखंड
से यहां लोगों का आना होता है। लोगों का मानना है कि यहां आने वाले ऐसे श्रद्धालुओं की संख्या ज्यादा होती है, जो प्रेत बाधा से ग्रसित होते हैं। लोगों का मानना है कि पालामू स्थित हैदरनगर में यह ऐसी जगह है,
जहां भूत उतारा
जाता है। लोगों के अनुसार यहां वैसे प्रेत आत्माओं को खत्म किया जाता है, जो लोगों को परेशान करते हैं। इस अंधविश्वास के चक्कर में आसपास के कई इलाकों से
यहां काफी बड़ी संख्या में
लोग पहुंचते
हैं।
यहां आने पर
मनुष्य के शरीर से निकल जाते हैं भूत!
हैदरनगर स्थित
प्रसिद्ध मां भगवती देवी धाम पर सालों पुरानी परंपरा व आस्था के साथ चैती नवरात्र की पूजा के साथ
श्रद्धालुओं का आना शुरू हो चुका है। मेले में बड़ी संख्या में कथित प्रेत बाधा से पीड़ित लोग
पहुंचने लगे हैं। मेले में चारों ओर अंधविश्वास
का बोल बाला दिखता है। ओझाओं के साथ अधिक संख्या में महिलाएं होती हैं। उनमें भी वैसी
महिलाएं अधिक होती हैं, जो अशिक्षित, हरिजन व पिछड़ी जाति से आती हैं। उन भोले-भाले लोगों को ओझा अपने जाल में फंसाकर यहां ले आते हैं। महिलाएं
यहां आते ही झूमने लगती हैं
और अपने
बालों को खोल सिर को जोर-जोर से घुमाती है। ओझाओं का कहना होता है कि इनपर भूतों का प्रभाव है, जो यहां आकर मनुष्य के शरीर से निकल जाते हैं। यह मेला दशमी तक चलता है। इसे लेकर मंदिर में
चहल-पहल तथा विभिन्न सामग्रियों की दुकानें सज गई हैं।
मेला शुरू होने के साथ ही ओझा व प्रेत बाधा से ग्रसित पीड़ित लोग तंबू लगाकर पूजा पाठ में लीन हो गए
हैं।
तार से
बैतूल में लगता है अंधविश्वास का मेला
शुरैह नियाज़ी | सौजन्य: इंडिया टुडे | नई दिल्ली, 20 फरवरी 2014
| अपडेटेड: 12:12 IST
बैतूल के
मलाजपुर के मेले में झाड़ा लगाते पुजारी
धरमती बाई
पर कथित तौर पर भूतों का साया है. 22
वर्षीय धरमती अचानक
कभी भी जोर-जोर से चिल्लाने लगती हैं तो कभी हंसने लगती हैं. मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग 210 किलोमीटर दूर बैतूल जिले के मलाजपुर गांव में उन्हें इसलिए लाया गया है ताकि उस पर से
भूत-प्रेत के साए को खत्म किया जा सके.
पुजारी लालजी यादव धरमती के बालों को पकड़ कर जोर से खींच रहे हैं. वे उस पर कई बार झाड़ा भी लगाते हैं. धरमती के पीछे महिलाओं और पुरुषों की लंबी कतार है. ये सभी अपने पर से भूत-प्रेत का साया हटवाने के लिए बारी का इंतजार कर रहे हैं. महाराष्ट्र की सीमा से सटे रायजामुन गांव की धरमती झड़ा इलाज के लिए यहां अपने जीजा अमरदास यादव के साथ आई हैं.
फेसबुक और टविटर के युग के लोग भले ही यकीन ना करें लेकिन यह सच है कि मलाजपुर में आज भी ऐसा मेला लगता है, जहां भूत-प्रेतों के आस्तित्व और उनके असर को खत्म करने का दावा किया जाता है. इस मेले में बड़ी तादाद में ऐसे लोग आते हैं जिन पर कथित तौर पर भूत-प्रेत का साया होता है. अमरदास अपनी साली के बारे में बताते हैं, ''उसे बाहर की हवा लग गई है. वह करीब दो साल से भूतों के वश में है.
हम उसका इलाज कराने के लिए यहां आए हैं. '' मलाजपुर के पुजारी लालजी यादव दावा करते हैं, ''भूत-प्रेत कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, यहां उसे काबू में कर ही लिया जाता है. आप चाहें कहीं भी चले जाएं लेकिन अपने पर से भूत का साया हटवाने के लिए मलाजपुर आना ही पड़ता है. ''
बैतूल जिले के मलाजपुर गांव में हर साल मकर संक्रांति के बाद लगने वाला और 'भूतों का मेला' के नाम मशहूर यह मेला लगभग महीनेभर चलता है. मान्यता है कि 1770 में गुरु साहब बाबा नाम के एक संत ने यहां जीवित ही समाधि ली थी. गुरु मान्यता है कि वे संत चमत्कारी थे और भूत-प्रेत को वश में कर लेते थे. उनके समाधि लेने के बाद से ही यहां बाबा की याद में मेला लगने लगा.
मेले में आने वाले सामान्य लोग तो मेला परिसर में मौजूद मंदिर की परिक्रमा करते ही हैं. लेकिन कथित तौर पर भूत-प्रेत के साए से प्रभावित लोग इस मंदिर की उलटी परिक्रमा लगाते हैं. अंधविश्वास के मेले के इस आयोजन में प्रशासन का भरपूर सहयोग होता है.
'
भूतों का मेला' के बारे में बैतूल के कलेक्टर आर.पी. मिश्रा कहते हैं, ''इस मेले में शामिल होने के लिए आने वाले लोगों की संख्या काफी अधिक है. जागरूकता लाने के लिए क्या किया जा सकता है, इस बारे में हम विचार करेंगे. '' जाहिर है, प्रशासन का उदासीन रवैया भी अंधविश्वास के कायम रहने की प्रमुख वजह है.
भोपाल के गांधी मेडिकल कॉलेज में क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट राजेश शर्मा भूत-प्रेत के आस्तित्व को सिरे से खारिज करते हैं. वे कहते हैं, ''मेले में आने वाले लोग निश्चित ही किसी न किसी समस्या से ग्रस्त हैं. उनकी परेशानी मानसिक भी हो सकती है और शारीरिक भी. मानसिक रोग से ग्रस्त परिजनों को लोग यहां ले आते हैं. दरअसल किसी भी रोग के इलाज में विश्वास महत्वपूर्ण होता है. इलाज पर विश्वास होता है तो फायदा भी जल्दी मिलता है. ''
शर्मा आगे कहते हैं, ''ऐसी अंधविश्वास भरी प्रथाओं को जागरूकता से ही खत्म किया जा सकता है. '' इसके विपरीत पिछले कुछ वर्षों में इस मेले की ख्याति और भी बढ़ी है. पुजारी लालजी यादव का दावा है कि अब तो मेले में विदेशी पर्यटक भी आने लगे हैं. वे कहते हैं, ''यहां आने वाला कोई भी विदेशी मुझ्से मिले बगैर नहीं जाता. '' अब जरूरत है अंधविश्वास के भूत को लोगों के जेहन दूर करने की.
अपने भारत के 5 रहस्यमयी मंदिर !!
हिंदू धर्म में मंदिर
जाने और पूजन करने का विशेष महत्व माना गया है। कहते हैं मंदिर जाने से मन को शांति मिलती
हैं। साथ ही, मनोकामनाएं
भी पूरी होती हैं, लेकिन कुछ मंदिर ऐसे भी हैं, जो सिर्फ मनोकामना पूरी करने के लिए ही नहीं, बल्कि अपनी किसी अनोखी या चमत्कारिक
विशेषता के कारण भी जाने जाते
हैं। आज हम आपको बताने जा रहे हैं भारत के 5 ऐसे ही प्राचीन
मंदिरों के बारे
में जिन से जुड़ी चमत्कारिक बातों को कोई माने या न माने, लेकिन इनकी ये खास विशेषताएं किसी को भी सोचने पर मजबूर
कर देती है।
1.
कामाख्या देवी मंदिर,
गुवाहाटी (Kamakhya
Devi temple, Guwahati)
कामाख्या मंदिर असम
के गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से 10 किलोमीटर
दूर नीलांचल पहाड़ी
पर स्थित है। यह मंदिर देवी कामाख्या को समर्पित है। कामाख्या शक्तिपीठ
52 शक्तिपीठों
में से एक है। कहा जाता है सती का योनिभाग कामाख्या में गिरा। उसी स्थल पर कामाख्या मन्दिर
का निर्माण किया गया।
इस मंदिर में प्रतिवर्ष अम्बुबाची मेले का आयोजन किया जाता है। इसमें देश भर के तांत्रिक और अघोरी हिस्सा लेते हैं। माना जाता है कि सालभर में एक बार अम्बुबाची मेले के दौरान मां कामाख्या रजस्वला होती हैं और इन तीन दिन में योनि कुंड से जल प्रवाह कि जगह रक्त प्रवाह होता है। इसलिए अम्बुबाची मेले को कामरूपों का कुंभ कहा जाता है।
2. काल भैरव मंदिर, मध्य प्रदेश (Kaal bhairav temple, Madhya pradesh)
इस मंदिर में प्रतिवर्ष अम्बुबाची मेले का आयोजन किया जाता है। इसमें देश भर के तांत्रिक और अघोरी हिस्सा लेते हैं। माना जाता है कि सालभर में एक बार अम्बुबाची मेले के दौरान मां कामाख्या रजस्वला होती हैं और इन तीन दिन में योनि कुंड से जल प्रवाह कि जगह रक्त प्रवाह होता है। इसलिए अम्बुबाची मेले को कामरूपों का कुंभ कहा जाता है।
2. काल भैरव मंदिर, मध्य प्रदेश (Kaal bhairav temple, Madhya pradesh)
मध्य प्रदेश के
उज्जैन शहर से करीब 8 कि.मी.
दूर कालभैरव मंदिर स्थित है।
भगवान कालभैरव को प्रसाद के तौर पर केवल शराब ही चढ़ाई जाती
है। शराब से भरे
प्याले कालभैरव की मूर्ति के मुंह से लगाने पर वह देखते ही देखते खाली हो
जाते हैं। मंदिर के बाहर भगवान कालभैरव को चढ़ाने के लिए देसी शराब की आठ
से दस दुकानें लगी हैं।
मंदिर में शराब चढ़ाने की गाथा भी बेहद दिलचस्प है। यहां के पुजारी बताते हैं कि स्कंद पुराण में इस जगह के धार्मिक महत्व का जिक्र है। इसके अनुसार, चारों वेदों के रचयिता भगवान ब्रह्मा ने जब पांचवें वेद की रचना का फैसला किया, तो उन्हें इस काम से रोकने के लिए देवता भगवान शिव की शरण में गए। ब्रह्मा जी ने उनकी बात नहीं मानी। इस पर शिवजी ने क्रोधित होकर अपने तीसरे नेत्र से बालक बटुक भैरव को प्रकट किया। इस उग्र स्वभाव के बालक ने गुस्से में आकर ब्रह्मा जी का पांचवां मस्तक काट दिया। इससे लगे ब्रह्म हत्या के पाप को दूर करने के लिए वह अनेक स्थानों पर गए, लेकिन उन्हें मुक्ति नहीं मिली। तब भैरव ने भगवान शिव की आराधना की। शिव ने भैरव को बताया कि उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर ओखर श्मशान के पास तपस्या करने से उन्हें इस पाप से मुक्ति मिलेगी। तभी से यहां काल भैरव की पूजा हो रही है। कालांतर में यहां एक बड़ा मंदिर बन गया। मंदिर का जीर्णोद्धार परमार वंश के राजाओं ने करवाया था।
मंदिर में शराब चढ़ाने की गाथा भी बेहद दिलचस्प है। यहां के पुजारी बताते हैं कि स्कंद पुराण में इस जगह के धार्मिक महत्व का जिक्र है। इसके अनुसार, चारों वेदों के रचयिता भगवान ब्रह्मा ने जब पांचवें वेद की रचना का फैसला किया, तो उन्हें इस काम से रोकने के लिए देवता भगवान शिव की शरण में गए। ब्रह्मा जी ने उनकी बात नहीं मानी। इस पर शिवजी ने क्रोधित होकर अपने तीसरे नेत्र से बालक बटुक भैरव को प्रकट किया। इस उग्र स्वभाव के बालक ने गुस्से में आकर ब्रह्मा जी का पांचवां मस्तक काट दिया। इससे लगे ब्रह्म हत्या के पाप को दूर करने के लिए वह अनेक स्थानों पर गए, लेकिन उन्हें मुक्ति नहीं मिली। तब भैरव ने भगवान शिव की आराधना की। शिव ने भैरव को बताया कि उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर ओखर श्मशान के पास तपस्या करने से उन्हें इस पाप से मुक्ति मिलेगी। तभी से यहां काल भैरव की पूजा हो रही है। कालांतर में यहां एक बड़ा मंदिर बन गया। मंदिर का जीर्णोद्धार परमार वंश के राजाओं ने करवाया था।
3. करणी माता मंदिर, राजस्थान (Karni mata temple, Rajasthan)
करणी माता मंदिर राजस्थान में बीकानेर से कुछ दूरी पर देशनोक नामक स्थान पर है। यह स्थान मूषक मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहां भक्तों से ज्यादा काले चूहे नजर आते हैं। इनके बीच अगर कहीं सफेद चूहा दिख जाए तो समझें कि मनोकामना पूरी हो जाएगी। यही यहां की मान्यता है।
वैसे, इसे चूहों को काबा भी कहा जाता है। चूहों को भक्त दूध, लड्डू आदि देते हैं। आश्चर्यजनक बात यह भी है कि असंख्य चूहों से पटे मंदिर से बाहर कदम रखते ही एक भी चूहा नजर नहीं आता। इस मंदिर के भीतर कभी बिल्ली प्रवेश नहीं करती है। कहा तो यह भी जाता है कि जब प्लेग जैसी बीमारी ने अपना आतंक दिखाया था, तब यह मंदिर ही नहीं, बल्कि यह पूरा इलाका इस बीमारी से महफूज था।
4. ज्वाला देवी मंदिर, हिमाचल प्रदेश (Jwala devi temple, Himachal pradesh)
हिमाचल प्रदेश के
कांगड़ा जिले में कालीधार पहाड़ी के बीच बसा है ज्वाला देवी का मंदिर। शास्त्रों के अनुसार, यहां सती की जिह्वा गिरी थी। मान्यता है
कि सभी शक्तिपीठों में देवी हमेशा निवास करती हैं। शक्तिपीठ में माता की आराधना
करने से माता जल्दी प्रसन्न होती है। ज्वालादेवी मंदिर में सदियों से
बिना तेल-बाती के प्राकृतिक रूप से नौ ज्वालाएं जल रही हैं। नौ ज्वालाओं में
प्रमुख ज्वाला चांदी के जाला के बीच स्थित है,
उसे महाकाली कहते हैं।
अन्य आठ ज्वालाओं के रूप में मां अन्नपूर्णा, चंडी,
हिंगलाज, विन्ध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती,
अम्बिका एवं अंजी देवी ज्वाला देवी मंदिर में निवास करती हैं।
कथा है कि मुगल बादशाह अकबर ने ज्वाला देवी की शक्ति का अनादर किया और मां की तेजोमय ज्वाला को बुझाने का हर संभव प्रयास किया, लेकिन वह अपने प्रयास में असफल रहा। अकबर को जब ज्वाला देवी की शक्ति का आभास हुआ, तो क्षमा मांगने के लिए उसने ज्वाला देवी को सवा मन सोने का छत्र चढ़ाया।
5. मेंहदीपुर बालाजी, राजस्थान (Mehandipur balaji, Rajasthan)
कथा है कि मुगल बादशाह अकबर ने ज्वाला देवी की शक्ति का अनादर किया और मां की तेजोमय ज्वाला को बुझाने का हर संभव प्रयास किया, लेकिन वह अपने प्रयास में असफल रहा। अकबर को जब ज्वाला देवी की शक्ति का आभास हुआ, तो क्षमा मांगने के लिए उसने ज्वाला देवी को सवा मन सोने का छत्र चढ़ाया।
5. मेंहदीपुर बालाजी, राजस्थान (Mehandipur balaji, Rajasthan)
राजस्थान में मेंहदीपुर बालाजी का मंदिर श्री हनुमान का बहुत जाग्रत स्थान माना जाता है। लोगों का विश्वास है कि इस मंदिर में विराजित श्री बालाजी अपनी दैवीय शक्ति से बुरी आत्माओं से छुटकारा दिलाते हैं। मंदिर में हजारों भूत-पिशाच से त्रस्त लोग प्रतिदिन दर्शन और प्रार्थना के लिए यहां आते हैं, जिन्हें स्थानीय लोग संकटवाला कहते हैं। भूतबाधा से पीड़ित के लिए यह मंदिर अपने ही घर के समान हो जाता है और श्री बालाजी ही उसकी अंतिम उम्मीद होते हैं।
यहां कई लोगों को जंजीर से बंधा और उल्टे लटके देखा जा सकता है। यह मंदिर और इससे जुड़े चमत्कार देखकर कोई भी हैरान हो सकता है। शाम के समय जब बालाजी की आरती होती है तो भूत-प्रेत से पीड़ित लोगों को जुझते देखा जाता है और आरती के बाद लोग मंदिर के गर्भ गृह में जाते हैं। वहां के पुरोहित कुछ उपाय करते हैं और कहा जाता है इसके बाद पीड़ित व्यक्ति स्वस्थ हो जाता है।
पत्थरों का अनोखा
मेला धामी में — !
हिमाचल प्रदेश के शिमला के पास हलोग
धामी में आज भी मनाया
जाता है पत्थरों का मेला ….कहा
जाता है कि हजारो साल पहले प्राचीन
समय में धामी रियासत की रानी के सती होने के बाद यह
परम्परा शुरू हुई थी और
यहाँ पहले नरबली दी जाती थी
उसके बाद पशुबलि दी जाने लगी
! लेकिन पशु
बलि के स्थान पर अब यहाँ पर एक दुसरे को पत्थर मारकर घायल करने
की परम्परा का
खेल खेला जाता है! पत्थरों का यह अनोखा खेल
दो परगनों कटेड़ू व्
ज्मोगी के बीच खेला जाता है और घायल व्यक्ति से निकले खून से
मां काली को तिलक
लगा कर आज भी अजीब तरीके से नरबली की परम्परा को निभाया जाता है !…
हिमाचल प्रदेश के शिमला के पास हलोग-धामी में आज भी एक दुसरे को पत्थर मारकर खेला जाता है मौत का खेल !.परम्परा के अनुसार दिवाली के दुसरे दिन इस क्षेत्र के लोग माँ सती के मंदिर के पास खुली जगह पर इक्कठे होते हैं ! सबसे पहले मां काली के मंदिर में इककठे होकर पूजा करते हैं!
युद्घक्षेत्र की तरह आमने सामने खड़े हो कर एक दुसरे को पत्थर मारते हैं और यह पत्थरों का खेल तब तक जरी रहता है जब तक पत्थर के प्रहार से घायल व्यक्ति के शरीर से खून न निकल जाये !.. और घायल हुए व्यक्ति के शरीर से निकले खून से माँ काली को तिलक लगाये जाने के बाद यह मेला संपन्न हो जाता है !
कहा जाता है कि यदि यह खेल न खेला जाये तो इस क्षेत्र में प्राकृतिक प्रकोप का भयानक खतरा मंडराता रहता है ! धामी राज परिवार के अनुसार यह परम्परा सदियों पुरानी है और जब यहाँ के राजा की मृत्यु हो गई तो रानी ऩे यहाँ शहर के स्थित चबूतरे पर सती हो गई थी परन्तु सती होने से पहले उसने मां काली को को दी जाने वाली नरबली को बंद करने की घोषणा की और उसके स्थान पर इस खेल को शुरू किया ! जिसमे दो परगनों (कटेड़ू और ज्मोगी ) के लोग शामिल होते हैं ! और इस पत्थर मारने के खेल में जब कोई व्यक्ति घायल हो जाता है तो उससे निकले खून से मां काली को तिलक लगाकर आज भी नरबली की प्रथा को इस अनोखे तरीके निभाया जाता है ! पत्थरों के इस जानलेवा खेल में आजतक किसी भी तरह की अनहोनी नही हुई है!
लोगों का कहना है कि यह परम्परा कि सालों से चली आ रही है और इसमें पहले नरबली दी जाती थी उसके बाद पशु बली दी जाने लगी और अब पत्थरों के इस खेल में घायल हुए व्यक्ति से निकले खून से मां काली को तिलक लगाकर आज भी पुरानी परम्परा को निभ्य जा रहा है ! वही इस अनोखे मेले को देखने आये लोगो का कहना है कि इस खेल से लोगों का मनोरंजन भी हो जाता है और इसमें रोमांच भी देखने को मिलता है !
हिमाचल प्रदेश के शिमला के पास हलोग-धामी में आज भी एक दुसरे को पत्थर मारकर खेला जाता है मौत का खेल !.परम्परा के अनुसार दिवाली के दुसरे दिन इस क्षेत्र के लोग माँ सती के मंदिर के पास खुली जगह पर इक्कठे होते हैं ! सबसे पहले मां काली के मंदिर में इककठे होकर पूजा करते हैं!
युद्घक्षेत्र की तरह आमने सामने खड़े हो कर एक दुसरे को पत्थर मारते हैं और यह पत्थरों का खेल तब तक जरी रहता है जब तक पत्थर के प्रहार से घायल व्यक्ति के शरीर से खून न निकल जाये !.. और घायल हुए व्यक्ति के शरीर से निकले खून से माँ काली को तिलक लगाये जाने के बाद यह मेला संपन्न हो जाता है !
कहा जाता है कि यदि यह खेल न खेला जाये तो इस क्षेत्र में प्राकृतिक प्रकोप का भयानक खतरा मंडराता रहता है ! धामी राज परिवार के अनुसार यह परम्परा सदियों पुरानी है और जब यहाँ के राजा की मृत्यु हो गई तो रानी ऩे यहाँ शहर के स्थित चबूतरे पर सती हो गई थी परन्तु सती होने से पहले उसने मां काली को को दी जाने वाली नरबली को बंद करने की घोषणा की और उसके स्थान पर इस खेल को शुरू किया ! जिसमे दो परगनों (कटेड़ू और ज्मोगी ) के लोग शामिल होते हैं ! और इस पत्थर मारने के खेल में जब कोई व्यक्ति घायल हो जाता है तो उससे निकले खून से मां काली को तिलक लगाकर आज भी नरबली की प्रथा को इस अनोखे तरीके निभाया जाता है ! पत्थरों के इस जानलेवा खेल में आजतक किसी भी तरह की अनहोनी नही हुई है!
लोगों का कहना है कि यह परम्परा कि सालों से चली आ रही है और इसमें पहले नरबली दी जाती थी उसके बाद पशु बली दी जाने लगी और अब पत्थरों के इस खेल में घायल हुए व्यक्ति से निकले खून से मां काली को तिलक लगाकर आज भी पुरानी परम्परा को निभ्य जा रहा है ! वही इस अनोखे मेले को देखने आये लोगो का कहना है कि इस खेल से लोगों का मनोरंजन भी हो जाता है और इसमें रोमांच भी देखने को मिलता है !
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निधीश त्यागी
संपादक, बीबीसी
हिंदी
- 11 मई 2015
ब्रिटेन में भारत के तत्कालीन उच्चायुक्त कृष्णा मेनन ने
बीबीसी हिंदी सेवा का उद्घाटन किया
पचहत्तर साल पहले खरखराते और भारी-भरकम
रेडियो सेट पर आज ही के दिन बीबीसी हिंदुस्तानी का प्रसारण शुरू हुआ था.
आपमें से ज़्यादातर लोग इस लेख को
मोबाइल पर पढ़ रहे होंगे. बहुत-सी दुनिया बदली इस बीच, बीबीसी और आप भी बदले.
लेकिन विश्वसनीयता वह बारीक़ और मज़बूत
डोर है जिसने इस पूरे सफ़र में हमें और आपको जोड़े रखा.
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के साथ बीबीसी के
रत्नाकर भारती
इस मुक़ाम पर बीबीसी हिंदी की तरफ़ से
ये कहना ज़रूरी है-
हम चार या पाँच पीढ़ियों पहले आपके पास
भारत और दुनिया भर की ख़बरें लेकर आते
थे, आगे
भी लाते रहेंगे. अधिक तत्परता, अधिक
विश्वास, अधिक
ज़िम्मेदारी के साथ.
सलीक़े से सहेज कर. और दिलचस्प. और उपयोगी. आपको केंद्र में रखते हुए.
बीबीसी हिंदी शुरू में बहुत सालों तक सिर्फ़
शॉर्ट वेव रेडियो पर थी, अब
भी है. पर
अब वह टीवी पर भी है, वेबसाइट
पर, मोबाइल
फ़ोन, चैट
एप्स, सोशल
मीडिया और
ऑडियो, वीडियो
साइट्स पर भी. आप तक पहुँच आसान करने के लिए हमसे जो हो सकेगा,
करते रहेंगे, ज़्यादातर
डिजिटल तरीक़ों से.
दुनिया का सबसे बड़ा समाचार संगठन होने के नाते हमारी
हमेशा कोशिश रहेगी कि इस बहुत तेज़ी
से बदलती दुनिया की ख़बरें आप तक सबसे पहले पहुँचा सकें. आपकी
व्यस्तता और सुविधा
ध्यान में रखककर.
हिंदी के बहुत बड़े होते जाते मीडिया
संसार में
बीबीसी हिंदी की हमेशा कोशिश होगी कि हम सवालों को संतुलित और निष्पक्ष तरीक़े
से उठाएँ, जिनकी
बुनियाद हमेशा तथ्यों पर टिकी हो.
जैसा बीबीसी के डायरेक्टर न्यूज़ जेम्स
हार्डिंग ने अपने दस्तावेज़
'फ्यूचर ऑफ़ न्यूज़' में कहा है, बीबीसी का काम गुणवत्ता के साथ पत्रकारिता
करना है, कवरेज
में ये बताना है कि असल में चल क्या रहा है,
असल में
उसका महत्व क्यों है, असल
में उसका मतलब क्या है ?
और ये भी कि उन ख़बरों और घटनाक्रमों की पेचीदगियों
को जितना बन पड़े, आपके
लिए आसान कर सकें.
आपके लिए उस ख़बर का क्या मतलब है और क्यों ज़रूरी है आपके लिए उसे जानना, ये बता सकें.
हाल ही में अभिनेत्री नंदिता दास बीबीसी स्टूडियो आईं और इकबाल
अहमद ने उनसे इंटरव्यू किया
हमारा मक़सद रोशनी फैलाना है न कि
सनसनी. लोकप्रियता की होड़ और ध्यान खींचने के शोर में बीबीसी हिंदी ने पत्रकारिता
के बुनियादी उसूलों के साथ समझौता न पहले किया था,
न आगे ऐसा
होगा.
हम ख़बरों, कार्यक्रमों और विश्लेषणों के ज़रिए
प्रबुद्ध हिंदी मानस का ज़िम्मेदार और भरोसेमंद हिस्सा बने रहना चाहते हैं.
हिंदी में हम ख़ुद को संवाद के सूत्रधार की
तरह देखते रहेंगे. उन सवालों के साथ
जिनका पूछा जाना ज़रूरी है और जिनका जवाब ढूँढने की ईमानदार
कोशिश करना भी.
पत्रकारिता का ग्राउंड ज़ीरो वहीं होता है, जहाँ ख़बरें घट रही होती हैं, हम भारत और दुनिया की उन जगहों से वहाँ का सच आपके
पास लेकर आते रहेंगे. चाहे वह
कश्मीर में हो रहा हो या फिर माओवाद वाले इलाक़ों में.
राजनीति हिंदी समाचार संसार का बहुत बड़ा हिस्सा है, पर हमारे लिए और भी पक्ष महत्वपूर्ण हैं, जिन पर हम ध्यान देते रहेंगे, चाहे वह स्त्री विमर्श हो, या विकास के विषय,
या फिर क़तार के आख़िर में खड़े लोग. एक ग्लोबलाइज्ड दुनिया का
क्या असर
है पर्यावरण पर, लोगों
पर, अर्थव्यवस्था
पर, हम
लगातार उन्हें जगह देते
रहेंगे.
जवाबदेही और पारदर्शिता हमारे न्यूज़रूम
की संस्कृति का बड़ा
हिस्सा है. आपके परामर्श, आपकी
शिकायतें, आपके
सवाल हमेशा मददगार रहे हैं, भरोसा है ये भागीदारी आगे भी देखने को
मिलेगी.
इस सफ़रनामे की सार्थकता और अहमियत आप यानी
बीबीसी हिंदी के श्रोताओं, पाठकों और
दर्शकों के कारण है, जो
न सिर्फ़ हमें सुनते/ देखते/ पढ़ते रहे हैं,
बल्कि सजगता के साथ सवाल भी खड़े करते हैं.
आपके स्नेह, सहयोग और भागीदारी के लिए बीबीसी शुक्रगुज़ार है.
आपके बिना ये सफर मुमकिन न था. आगे
आपका साथ पहले से ज़्यादा मिलेगा, ऐसी उम्मीद है.
इस साल हम आपसे इस सफ़रनामे के महत्वपूर्ण
हिस्से, अपना
इतिहास, बीबीसी
की हस्ताक्षर आवाज़ें साझा करते रहेंगे.
आपसे भी पूछते रहेंगे अब तक के हमारे काम का
हिसाब. और ये भी कि क्या हम अपना
काम ठीक से कर पा रहे है?
क्या हम जो कर रहे हैं,
उससे कोई फ़र्क़ पड़ा?
क्या हम आपके ठीक से काम आ सके? क्या आप हमसे कुछ नया जान सके? क्या हम आपकी बातचीत को आगे बढ़ा सके?
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गंवाई यानी भूकंप का असर मंद पड चुका है, मगर इसी के साथ मोदी पुराण का एक
औरअध्याय प्रस्तुतहै, जिसमें मोदी जी ने मीडिया का मनचाहा प्रयोग किया।
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मोदी जब भारत के प्रधान सेवक (? ) बने तो देश की अंधिकांश भोकाली मीडिया के मालिकों संपादको नें
मोदी पुराण राग अलापना चालू करके मोदी का सबसे बडा भोंपू ( hmv)
साबित
करने दिखाने और बनने की होड में जुट गए। चूंकि मोदीकी इमेज जरा सख्त थी, इस कारण
तमाम मीडिया भांपने के अंदाज में मोदी के पास मंडरा रही थी। मोदी पर मीडिया इफेक्ट
का क्या असर हुआ यह अभी साफ नहीं हो पाया कि मोदी प्रेम में आकंठ तरबतर मीडिया अभी
एक साल के बाद भी मोदी प्रेम में ही है, पर
मोदी के मैनेजरों ने मीडिया और खासकर भोकाली मीडिया पर इस तरह का शिकंजा कसा जिससे
भोकाली मीडिया पर मोदीकरण इस तरह हुआ कि यह अपनी भाषा ही भूल गयी। कमलिया पुराण के
अनुसार चाल चलन चरित्र चेहरा और चंचलता को बिसरा कर मोदी के लिए भोकाली मीडिया
मोदी इमेज डेवलपमेंट कंपेन में बिजी हो
गए।
बराक भले ही अमरीका के मुखिया हो पर
अपन मोदी जी भी एशिया के ( मान न मान मैं तेरा प्रधान) मुखिया मान कर ही काम कर
रहे है। अभी नेपाल में ङरती ने क्या ली अंगडाई कि लाखों की जान पे बन आई है। इस
विपदा पर कुछ भी कमेंट्स करना सवाल उठाना संदेह करना गोर पाप है. मैं खुद को पापी
नहीं मानता कि संसद में जब धुर विरोधी भी जब तारीफ करते न थके हो, या देश की घर गृहस्थी देख रहे राजनाथ भी जब तारीफ करते हुए
गंगा जल बहाने लगे हो तो मैं श्रीमान प्रधानसेवर पर कोई संदेह करूं। फिर जिस
त्तत्परता और सजगता के साथ सेवक जी ने दामन थामा वह भी नौकरशाहों के लिए एक नसीहत
ही है। नेपाल की पीडा से मेरा दिल भी किसी कमली नेता या विरोधी नेता से कम दुखी
नहीं है, पर भूकंप के नाम पर की जा रही साईलेंट
पोलटिक्स और खबरों को छिपाने दबाने की कुचेष्टा से प्रधानसेवक एंड कंपनी की नीयत
पर एकबडा सवाल खडा हो जाता है।
भोकाली मीडिया की नजर में देश एक
हंसता खेलता गाता पीता खुशहाल देश है। शक्तिमान
बनने के करीब है और इतना सक्षम है कि बस वो दूसरों को भी बहुत कुछ दे सकती
है।
नेपाल के साथ भारत के खडा होने और
अरबों की मदद करने पर भी कोई आपति नहीं है । दुनिया के ज्यादातर देश एक दूसरों से
मिलजुल कर ही काम चलाते निकालते और एक दूसरों को बनाते है। पर मीडिया मेंकाम से
ज्यादा प्रचार और ध्यान खींचने में माहिर सेवक एंड कंपनी की इस नीयत पर भी इस समय
मेरा मन सवाल उठाने का नहीं है।य़ मैं इस समय भोकाली मीडिया के मोदी मीडिया या
कमलिया मीडिया बन जाने या फिर एक दूसरे से बडा चंपू बनन ेकी प्रवृति पर चिंचिच
हूं। सरकारी रहमोकरम पर मीडिया के नेपाल
टूर को देखकर मेरी परेशानी और बढ गयी है। नेपाव त्रासदी की ज्यादा से ज्यादा खबरों
को देखकर नेपाल की पीडा से मन आहत है, मगर नेपाल
के दुरस्थ में जाकर भी भओकाली रिपोर्टरों की खबरऔर चानलों पर बार बार पत्रकारों को
दिखाकर अपनी इमेज चमकाया जा रहा है । मगर दिल्ली से लगे मेरठ हाथरस शामली मेवात
झज्जर बागपत की तो बात भऊल जाइए दिल्ली में ही पूरी तरह दिल्ली की खबर कवर ना करने
वाले भोकालियों के नेपाल प्रेम पर मन अभी तक संशंकित ही है।
. अपने अंशकालिक रिपोर्टरों को हर
खबर पर 500 रुईया देने में 500 दिन लगाने वाले यही भोकाल मीडिया के लोग नेपाल से
या भूकंप से इतने द्रवित क्यों हो गए कि फटाफट ( टीवी लैंग्वेज) अपने जिन
रिपोर्टरों को बाहर नहीं भेजा सबको नेपाल भेज दिया। नेपाल गए तमाम धुरंधर मन लगाकर
काम कर रहे है और एक से बढकर एक मार्मिक खबर भेज भी रहे है। इन खबरों को देखकर तो
मन आहत है, पर मोदी जी ने अपनी ताकत नजाकत भाषाई शराफत से भारतमें इसी त्रासदी से
प्रभावित इलाकों की खबर को ही भोकाली मीडिया के रूपहले पर्दे से लापता कर दिया।
बिहार बंगाल यूपी सेवेन सिस्टर्स स्टेट समेत देश के कई हिस्सों में इसी विपदा से
जूझ रहे हजारों लोगों को खबर बनने पर ही (अघोषित) पाबंदी लगा दी। देश के विभिन्न
इलाकों में इस त्रासदी का क्या हाल है इसको जानने का मीडियाई अधिकार से भी
ज्यादातर लोग वंचित है, क्योंकि नेपाल के ही इतने फूटेज और स्पेशल स्टोरी है कि
इंडिया को कौन पूछे।
वेतन की कटौती या बिन बुलाए फोन पर
ही दफ्तर न आने का फरमान सुनाकर नौकरी खत्म करने वाले भोकालियों के पास केवल एक ही
रटा रटाया कुतर्क है कि एड नहीं है लाभ नहीं है भोकाल मास्टर घाटे में है लिहाजा
बलि देनी पड रही है या मजबूरी है। दरिद्र राग के भोकाल गायकों के पास एकाएक करोडों
रूपईया कहां से टपक पडा या टीआरपी रेटिंग में अईसा क्या उछाल मारा कति कुबेर
अवतरित हुए और एक ही साथ आठ आठ रिपोर्टर यानी इतने ही कैमरामैन और हर टीम के साथ
एक सहायक भी दें तो करीब 20-22 लोगों को नेपाल ता दौरा कराना और तमाम सुविधा
प्रदान कराने का न्यूनतम खर्चा 25 -30 लाख तो आएगा ही (मन को दबाकर खर्चा लिख रहा
हूं अन्यथा मार्केट की गरमी का अहसास मोदीजी जेटलीजी शाहजी आदि नेताओं से कम ज्ञान
नहीं होने का दावा है) यह खर्च दोहरा होने से कतई कम नहीं होगा। खैर
पिछले साल मोदीजी अमरीका गए थे, मगर
मोदी जी से एक सप्ताह पहले इंडियन भोकाली मीडिया के ज्यादातर स्मार्ट भोकालों को
एक सप्ताह पहले ही भेज दिया गया था। इन भोकालों ने अमरीका में जाकर अईसा भोकाल
मचाया कि बेचारका ओबामा भी दंग हैरान रह गए।य़ अमरीका में मोदी जी ने अईसा रोडशो
किया कि अमरीकी भी मोदी मैजिक में खुद को भूला बैठे। भारतीय मूल के अमरीकी तो सही
मायने में मोदी प्रेम में थोडा तोडा पगला से गए। मगर मोदी मैजिक और मोजी सेंस तो
इस पर भारी है ही, मगर मीडिया को चाकर बनाकर अपने साथ घूम रहे प्रधानसेवक के काम
और नाम का यह नजाकतभी कम नहीं रै। जापान भूटान पाकिस्तान भी गए मगर मीडिया को
सरकारी मीडिया बनाकर ले गए , मगर अमरीका तो मोदी इमेज डेवलपर्स की तरह भोकालो ने
भोकाल मचाया। मोदी द्वारा मीडिया के उपयोग पर समूचा विपक्ष हैरान पस्त त्रस्त है
पर अपने लिए किसी को बताए बिना ही अपना बनाकर यूज कर लेना भी कोई सरल काम नहीं है
कि धरना देने वाले सांसद एक बार में ही इस गूर को सीखले।
तो दोस्तों भारतीय त्रासदी को भारत
से ही लापता रखने या कम दिखाने की यह मीडियाई चरित्र पर विचार होना जरूरी है। यदि अपने काम काज पर नजप डाले तो ( यदि समय हो
तो ) मोदीजी आप खुद अपने आप अपना मूल्यांकन करे काम काज की समीक्षा करे और 11 माह
की उपलब्धियों पर गौर करे तथा खुद ही बताइए कि कि इंडिया में कौन सी क्रांति आ गयी।
देश कौन सा खुशहाल हो गया। देश बातों से
आगे बढता तो 21वी सदी का सपना उछालने वाले दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो
यह जुमला तभी उछाल दिया था जब आपके भगवाकरण का सही मायने में राजनीतिकभविष्य ही तय
नहीं हो पाया था।
बहरहाल विविधताओं से भरे इस भारत देश
में मोदी समान बहुत लोग ऐए और बहुत लोग आएंगे मगर देश और मीडिया का कैरेक्टर समान
होना डरूरी है। खासकर भोकाली मीडिया के भोकालों को यह सोचना होगा कि वे अपनी
ब्राडिंग के चक्कर में अपनमी साख और विश्वसनीयता पर ज्यादा जोर देना होगा , तभी
मीडिया के प्रति लोग यकीन करेंगे, जिसपर लोग सवाल उठा रहे है। से
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