आबूरोड के पास सियावा का गणगौर मेला , मेले की अनोखी 'खीचना' की परम्परा
भले ही आदिवासी समाज शिक्षा व विकास के अन्य पैमानों पर पिछड़ा हुआ हो
,लेकिन समाज के बीच एक परम्परा इसे अलग ही पहचान देती है |जो अन्य लोगों के
लिए आज भी असम्भव सी और विस्मित कर देने वाली सी लगती है |इस समाज में यह
परम्परा युवक युवतियो को उनकी पसंद से जीवनसाथी चुने जाने की आजादी देती है
|दोनों एक दूसरे को पसंद कर ले और फिर दोनों आपस में सहमत हो तो विवाह कर
ले |यदि दोनों को लगे की उनके परिजन इसके लिए तैयार नहीं होंगे तो दोनों
अपना गाँव छोड़कर दूसरे गाँव में रहने लगते हैं |अपना जीवन बिताते है और फिर
एक दिन ऐसा भी आता है जब दोनों का विवाह कर सामाजिक स्वीकृति दे दी जाती
है|यह सारी परम्पराए निभाई जाती है समाज के सियावा मेले में|
...........तो बच्चे करवाते है शादी
कई बार ऐसा भी होता है की लम्बे समय तक दोनों को परिजनों की सहमति नहीं
मिलती|दोनों के बच्चे हो जाते हैं ,वे बड़े होते है |परम्परानुसार वे भी
मेले में अपना जीवनसाथी चुनते है और फिर उन दोनों के विवाह में माता पिता
का विवाह भी होता है |
बाद में होता है विवाह
एक दूसरे को पसंद कर लेने के बाद दोनों चुपचाप मेले से निकल जाते है |इसे
खीचना प्रथा कहते है|कुछ दिन बाद परिजन उनके रिश्ते को स्वीकार कर लेते है
और फिर वधु पक्ष के लोग वर पक्ष के घर पहुचते है और एक निर्धारित स्थान पर
पञ्च पटेलो की मौजूदगी में पंचायती के बाद रीती रिवाजो के अनुसार विवाह
करवा दिया जाता है|
छोड़ देते है अपना गाँव
मेले में जीवनसाथी चुने जाने के बाद कई बार युवक युवती को परिजनों के विरोध
का भी सामना करना पड़ता है |ऐसे में वे अपना गाँव छोड़कर दूसरे गाँव में
रहने लगते है|हालाँकि इस दौरान समाज के अन्य लोग परिजनों से समझाइश करते है
|यदि परिजन नहीं मानते तो दोनों दूसरे गाँव में रहते हुए अपना जीवन बिताते
है|
कहलाता है गणगौर मेला
आदिवासियों के बीच यह मेला काफी प्रसिद्ध है|बताया जाता है की जब समाज बसा
था उस समय से यह मेला आयोजित होता आ रहा है |पूरे साल इसका इंतज़ार रहता है
|आबूरोड शहर से करीब आठ किलोमीटर दूर अम्बाजी रोड पर सियावा गाँव के निकट
इसका आयोजन होता है जो कई सालो से चला आ रहा है|इस मेले को गणगौर का मेला
भी कहा जाता है|जिसमे महिलाये गणगौर की पूजा करती है |उसके चारो ओर नृत्य
करती है |मेला एक दिन पहले रात को शुरू होता है और दूसरे दिन शाम तक चलता
है|इसी मेले में आदिवासी समाज अपने रिश्ते तय करता है|अपने सभी सगे सबंधियो
को आमंत्रित करता है|हालाकि मेले में युवाओ की अधिक भीड़ होती है ,लेकिन
मेले के आयोजन की सारी जिम्मेदारी बुजुर्ग निभाते है|
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