मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

अनामी 12 अलग थलग



परंपरा :

bride stolen, Bride thief,
दुनिया में शादी के अलग-अलग रीति-रिवाज देखने को मिलते हैं। आदिवासी समाज में शादी के तौर-तरीके अलग होते हैं, लेकिन पश्चिमी अफ्रीका की वोदाब्बे जनजाति में शादी की रस्‍म कुछ ज्‍यादा ही अलग है। आपको जानकर हैरानी होगी कि इस जनजाति के लोगों में एक-दूसरे की बीवियों को चुराने की अजीबोगरीब परंपरा है।
 दुनिया की तकरीबन हर जनजाति ही अपने आप में किसी रहस्‍य से कम नहीं है। इन जनजातियों के कायदे-कानून भी काफी हैरान कर देने वाले होते हैं। बताया जाता है कि इस जनजाति के लोगों की पहली शादी घर-परिवार की मर्जी से करवाई जाती है, लेकिन दूसरी शादी करने का रिवाज थोड़ा हटके है।
आमतौर पर हमारे समाज में दूसरी शादी भी किसी पहचान वाली लड़की से करा दी जाती है, लेकिन इस जनजाति में दूसरी शादी के लिए किसी की पत्नी को चुराना जरूरी है। अगर ऐसा नहीं कर सकते तो दूसरी शादी करने का अधिकार नहीं है।

(वीडियो) जब सड़क पर होने लगी नोटों की बारिश…

हांगकांग। जरा सोचिए कि ट्रैफिक से भरी किसी सड़क पर अगर नोटों की बारिश होने लगे तो फिर क्या हो? जाहिर सी बात है लोग उन नोटों की बारिश में से नोट लूटने में लग जाएंगे और वहां ट्रैफिक अस्त-व्यस्त हो जाएगा। हांगकांग में ऐसा ही वाकया पेश आया और उस वक्त वहां का पूरा ट्रैफिक रुक गया और लोग अपनी चलती गाड़ियों से उतरकर पैसा बटोरने में लग गए।
हांगकांग में एक वैन करीब छह करोड़ 80 लाख डॉलर (525 मिलियन हांगकांग डॉलर) ले जा रही थी । अचानक वैन दुर्घटनाग्रस्त हो गई। दुर्घटनाग्रस्त होने से वैन में रखे करीब 45 लाख डॉलर के नोट सड़क पर ही बिखर गए। चश्मदीदों के मुताबिक सड़क पर चल रहे लोगों ने अपनी गाड़ियां रोकी और बिखरते नोटों को लूटने लगे। घटनास्थल पर पहुंचने से पहले ही लोग जेबों मे भर-भर कर नोट ले गए।
जब हथियारों से लैस पुलिसवाले घटनास्थल पर पहुंचे और उन्होंने जनता से नोटों को लौटाने की अपील की। रिपोर्ट के मुताबिक हांगकांग पुलिस ने करीब आधा पैसा बरामद कर लिया है। पुलिस ने जनता से कहा है कि जल्द ही बाकी का पैसा नहीं लौटाया गया तो इसे एक गंभीर अपराध माना जाएगा।

दुल्हा आया घोड़ी पर सवार, और दुल्हन ने किया शादी से इनकार

दौसा। दुल्हा और घोड़ी एक दूसरे के पूरक हैं, बगैर घोड़ी के दूल्हा भी अधूरा लगता है और वैसे भी हर व्यक्ति का सपना होता है कि वह दुल्हा बन घोड़ी पर सवार होकर अपनी दुल्हनियां को लेने पहुंचे। लेकिन एक दुल्हे को घोड़ी पर सवार होना उस समय महंगा पड़ गया, जब वह घोड़ी चढ़कर तोरण मारने पहुंचा तो ऐन वक्त पर दूल्हन ने शादी से इन्कार कर दिया।
यह सब हुआ राजस्थान के दौसा में, जहां तीन बहिनों की एक साथ शादी थी। इस शादी में दो दुल्हे तो मोटर में सवार होकर आए थे, जबकि तीसरा दुल्हा घोड़ी चढ़कर आया तो बात बिगड़ गई और दुल्हा बैरंग लौट गया। इधर दुल्हे के बैरंग लौटने के बाद दुल्हन मण्डप के नीचे बैठकर शादी की बाट जोह रही है। इस उम्मीद के साथ की मामले में सुलह हो जाए और शायद बात बन जाए। इधर, बात बिगड़ने के बाद परिजनों ने इस मामले में दुल्हे पक्ष पर दहेज का आरोप लगाते हुए पुलिस में रिर्पोट दी है।
दरअसल, शहर के लालसोट रोड स्थित बावरिया की ढाणी में प्रहलाद बावरिया की तीन बेटियों की शादी थी। 28 नवम्बर को प्रहलाद की बड़ी बेटी की बारात दौसा से, उससे छोटी की बारात बस्सी से तथा सबसे छोटी बेटी की बारात बड़ा गांव से आई थी। प्रहलाद बावरिया ने तीनों पक्षों से बारात बिना घोड़ी के लाने की गुजारिश की। बड़ी दो बेटियों के दुल्हे मोटर मे सवार होकर आये और हंसी-खुशी शादी की सभी रस्में पूरी करा दुल्हनों को अपने साथ ले गये।
प्रहलाद की सबसे छोटी बेटी के लिए बड़ा गांव से आया दुल्हा दुल्हन पक्ष की परम्पराओं के खिलाफ  घोड़ी पर सवार हो आया। घोड़ी पर दुल्हे के सवार होकर आने की बात को लेकर शुरू हुआ विवाद इतना बढ़ गया कि बारात बगैर दुल्हन के ही वापस लौट गई। बारात के वापस लौट जाने से घर मे शादी का माहौल गम मे तब्दील हो गया। घर मे बारात के लिए बना खाना रखा रह गया। दुल्हन के हाथों पर सजी मेहंदी समाज की रूढीवादी परम्परा और दहेज की भेट चढ़ गई।
अशिक्षित बावरिया परिवार अब भी दुल्हे के परिजनों को मनाने मे लगे है। इसी आशा मे आज तक घर के आंगन मे मण्डप दुल्हे का इन्तजार कर रहा है। दुल्हन के दादा मूलचन्द ने आरोप लगाया कि दुल्हा घोड़ी लेकर दरवाजे तक आया था, लेकिन वह तीन लाख रुपए और बाईक की मांग करने लगा। दुल्हन के पिता की आर्थिक स्थिती ठीक नही होने के कारण दहेज की मांग पूरी नहीं कर सके और दुल्हा यहां से बिना फेरे लिये ही फरार हो गया।
दुल्हन की मां साबु देवी ने बताया तीन लाख नकद और बाईक की मांग करने वाले दुल्हे के खिलाफ पुलिस मे भी शिकायत दे दी है, लेकिन पुलिस ने अभी तक कोई कारवाई नहीं की है। इस मामले को अब सामाजिक स्तर पर निपटाने का प्रयास किया जा रहा है।

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भूतों का साया हटाने के लिए करवाते हैं कुत्तों से बच्चियों की शादी

आज हम भले ही 21वीं सदी और तकनीक से भरी दुनिया में जी रहे हैं, जहां पलक झपकने से भी पहले सूचनाओं का आदान-प्रदान किया जा सकता है। विज्ञान और तकनीक से भरी दुनिया में आज हम शिक्षा और तकनीक के विकास के साथ तेजी से आगे बढ़ रहे  है। हाल ही में मंगल गृह पर प्रवेश करने के साथ ही भारत ने दुनियाभर में अपनी एक पहचान कायम की है।
आज समाज में बेटों के साथ बेटियां भी हर कदम पर अपनी पहचान बना रही है। समाज की बेटियां ना सिर्फ लड़कों के साथ कदम मिला कर चल रही है, बल्कि उनसे आगे निकल रही है। लेकिन इन सबके विपरीत आज भी हमारे समाज में परम्परा और रूढ़ियों के नाम पर लड़कियों से सम्बंधित कुछ ऐसी कुरुतियाँ भी प्रचलित है जो हमारे समाज के विकसित होने पर संदेह पैदा करती है। यह ऐसी कुरीतियां हैं, जिनकी एक सभ्य समाज में कोई गुंजाइश नहीं होती है। ऐसी ही एक कुरूति है बच्चियों की कुत्तों से होने वाली शादी।
हालाकि ये शादी सांकेतिक होती हैं, पर होती हैं असली हिन्दू तरीके और रीती रिवाजों के मुताबिक, जिसमे लोगों को शादी में आने का निमंत्रण दिया जाता है। इसके लिए पंडित, हलवाई सब बुक किये जाते है। बाकायदा मंडप तैयार होता है और पूरे मन्त्र-विधान से शादी सम्पन कराई जाती है। इस शादी में एक असली शादी जितना ही खर्चा बैठता है और उससे भी बड़ी बात यह है कि समाज एवं रिश्तेदार भी इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं।
आपको भले ही यह बात सुनकर अचरज हो रहा हो और यकीन नहीं हो रहा होगा कि कहीं ऐसा भी हो सकता है। लेकिन यह बिलकुल सत्य है। हमारे देश में झारखण्ड राज्य के कई इलाकों में परंपरा के नाम पर ऐसी शादियां सदियों से कराई जाती है। इन शादियों को करवाने के पीछे जो तर्क दिए जाते हैं, वह भी उतने ही अजीब है, जितनी यह बात अजीब है।
इसके पीछे बताए जाने वाले कारणों में से एक कारण तो यह बताया जाता है कि यदि बच्ची के ऊपरी मसूड़े में पहला दांत आये तो इसका मतलब होता है कि उस बच्ची के ऊपर अशुभ ग्रहों का प्रभाव है, जिसको दूर करने के लिए दूसरा दांत आने से पहले उसकी सांकेतिक शादी कुत्ते से कराई जाती है।
दूसरा कारण बड़ा ही अजीब और हैरत भरा है। ऐसा माना जाता है कि अगर किसी बच्ची के जन्म से ही दूध के दांत हैं और वह बचपन से ही बदसूरत है, तो माना जाता है कि उस पर किसी भूत का साया है। उस भूत के साये को उतारने के लिए बच्ची की शादी कुत्ते से करा दी जाती है। माना जाता है कि वो कुत्ता उस लड़की को बुरे साय से बचाए रखेगा और उसे किसी तरह की नजर नहीं लगेगी।
ऐसी ही एक शादी पिछले दिनो झारखंड के आदित्यापुर के पास सराईकेला नाम के एक गांव में पुष्पा नाम की एक बच्ची की हुई। चुकी ऐसी शादियां 10 साल से छोटी बच्चियों की कराई जाती है। इसलिए वो कोई विरोध भी नहीं कर पाती है। किसी भी अन्य शादी की तरह इस शादी के लिए भी सभी पुख्ता इंतेजाम किये गये थे।
इस शादी में काफी मेहमानों को बुलाया गया था। खाने-पीने का हर इंतेजाम था, पंडित जी को भी बुलाया गया था और पूरे रीती-रिवाज के साथ शादी सम्पन्न कराई गई थी। लेकिन दूरदराज के गावों में बढ़ती मीडिया की उपस्थिति के कारण यह शादी चर्चा में आ गई। इस शादी को लेकर काफी हंगामा भी हुआ और सामजिक कार्यकर्ताओं ने इस कुरूति को प्रतिबंधित करने की भी मांग उठाई।

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जहां 6 साल के बच्चे भी करते हैं सेक्स

पापुआ। जिस उम्र में हमारे समाज के बच्चे गुड्डा गुड़िया और गाड़ी से खेलते-कूदते हैं, उसी उम्र में पापुआ न्यू गिनी के बच्चे वयस्कों की तरह सेक्स करने लगते हैं। जी हां, पढ़कर अचंभा जरूर होगा लेकिन यह सच है कि ‌पापुआ न्यू गिमी में छह साल के बच्चे वो सभी काम करते हैं जो वयस्कों के लिए निर्धारित हैं।
ट्रोब्रिएंडर्स जनजाति समूह के बच्चे छह साल की उम्र में ही शारीरिक संबंध बनाना शुरू कर देते हैं। इसके साथ ही यहां म‌हिलाएं भी इसमें पूरी भागीदारी करती हैं। लड़के जहां 10 से 12 वर्ष की उम्र में शारीरिक संबंध बनाने के लिए सहीमाने जाते हैं वहीं लड़कियां 6 से 8 साल में ही सेक्स करना शुरू कर देती हैं।
एक-दूसरे को रिझाने के लिए लड़के और लड़कियां तरह-तरह की आवाजें निकालते हैं। यहां शारीरिक संबंध बनाने के लिए किसी तरह का सामाजिक प्रतिबंध नहीं है। कोई कहीं और कभी भी ऐसाकरने के लिए स्वतंत्र है।
हां एक दिलचस्प बात ये जरूर है कि लड़का-लड़का आपस में शारीरिकसंपर्क भले बना लें लेकिन रात का खाना एक साथ नहीं खा सकते। शादी से पहले रात का खाना साथ खाने पर यहां प्रतिबंध है। जनजाति के लोग इसे काफी गलत मानते हैं।

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दीपावली पर पूरे शहर को अपना परिवार मानकर निभाई जाती है यह अनूठी परंपरा

केकड़ी (अजमेर)। हमारे भारत देश में त्यौहारों और अन्य कई मौकों पर तरह-तरह की विभिन्न परंपराएं निभाई जाती है, जो कहीं आकर्षक होती है और कहीं बहुत ही अनूठी। त्यौहारों के देश भारत में सालभर में ऐसे कई मौके आते हैं, जब इस तरह की परंपराओं का निर्वहन किया जाता है। इन्हीं त्यौहारों में से एक और हिंदु धर्म का सबसे बड़ा त्यौहार माने जाने वाला पर्व है दीपावली।
भारतीय साल के अनुसार कार्तिक माह की अमावस्या के दिन मनाए जाने वाले इस त्यौहार पर लोग अपने-अपने घरों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में एक और जहां साफ-सफाई कर उसे नए रंग-रौगन कर सजाते हैं। वहीं घरों और दुकानों में रखे पुराने सामानों की जगह पर नए सामान लाते हैं, वहीं दूसरी ओर धन की देवी माता लक्ष्मी की पूजा-अर्चना कर उसका वंदन करते हैं और अपने-अपने घरों में माता लक्ष्मी का आह्वान करते हैं।
मान्यताओं के अनुसार मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम अपने वनवास काल के दौरान लंका के राजा रावण का वध करने के बाद श्रीराम अपने घर अयोध्या लौटे थे और वहां उनके लौटने की खुशी में पूरे राज्य में खुशियां मनाई गई थी। लोगों ने अपने-अपने घरों में दीपक जलाकर श्रीराम का स्वागत किया। उस दिन को आज देशभर में दीपावली के रूप में मनाया जाता है। लोग अपने-अने घरों में आज भी दीपक जलाकर दीपमाला बनाते हैं और आतिशबाजी कर श्रीराम के लौटाने की खुशी मनाते हैं। दीपावली के दूसरे दिन को गोवद्र्धन पूजन के रूप में मनाया जाता है, जिसमें अपने घरों के बाहर गाय के गोबर से गोवद्र्धन बनाकर उसका पूजन किया जाता है। इसी दिन शाम के समय कई जगहों पर बेलों का पूजन किया जाता है। 
बेलों का पूजन राजस्थान मे अजमेर जिले के उपखंड केकड़ी में बड़े ही अनूठे तरीके से किया जाता है, जिसमें खेतों में किसानों के साथी माने जाने वाले वाहन ट्रेक्टर और बेलों का पूजन किया जाता है। पूजा होने के बाद जहां ट्रेक्टर को फूलों और मालाओं से सजाया जाता है, वहीं बेलों के भी रंग-बिरंगे छापे लगाकर सजाया जाता है। इसके बाद बेल पालने वाले किसान अपने-अपने बेलों को पूरे शहर के निमित किये जाने वाले कार्य के लिए लेकर जाते हैं। पूरे शहर को अपना परिवार मानकर किए जाने वाला यह पुनित कार्य ही सबसे अनूठी परंपरा है, जिसे ‘घासभैरूं’ के नाम से जाना जाता है।
इस परंपरा में भैरूंजी के रूप में पूजे जाने वाले एक बड़े से शिलाखंड़ को पूरे शहर में घुमाया जाता है, ताकि शहर के किसी घर में किसी भी तरह की कोई आपदा-विपदा हो तो भैरूंजी उसे समाप्त कर अपने साथ ही ले जाते हैं और शहर को तमाम विपदाओं से बचाया जा सके। इस परंपरा में सबसे अचरज वाली बात यह है कि भैरूंजी के इस शिलाखंड की इस तरह से साल में सिर्फ इसी दिन पूजा जाता है और इस दिन के अलावा अगर कोई तीन-चार बलिष्ठ आदमी इसे उठाने का प्रयास करे तो वे इसे उठा सकते हैं, लेकिन इस दिन यह शिलाखंड इतना भारी हो जाता है कि इसे कई जोड़ी बेलों की मदद के साथ-साथ शहर के कई किसानों के द्वारा खींचे जाने पर भी यह बड़ी मुश्किलों से खींचा जाता है।
विशेष रूप से इसी दिन इस शिलाखंड के इतना भारी होने के पीछे भी एक अनोखी कहानी है। शहर में रहने वाले तमाम बुजुर्ग बताते है कि भैरूंजी के इस शिलाखंड़ को अपने स्थान से उठाए जाने से पहले काफी देर तक यहां इनके भजन-कीर्तन होते हैं और भैरूंजी के स्थान वाली सभी चढ़ाई जाने वाली शराब के समान ही श्रद्धालु इस पर भी शराब चढ़ाते हैं। यह सिलसिला काफी देर तक चलता है और ऐसा माना जाता है कि काफी शराब चढ़ाए जाने की वजह से ही भैरूंजी माने जाने वाले इस शिलाखंड का वजन बढ़ जाता है, जिसे बेलों और कई आदमियों की मदद से ही खींचा जा सकता है, इसे खेचने के लिए लगाए गए बेल भी इसे खींचते हुए भाग नहीं पाते हैं।
इसके लिए भी शहरवासियों के द्वारा एक युक्ति काम में ली जाती है, जिसमें बेलों के आसपास पटाखे फैंक जाते हैं, ताकि वे पटाखों की आवाज से डरकर भागे और भैरूंजी के इस शिलाखंड को आगे बढ़ाए। इन बुजुर्गों का कहना है कि पहले सद्भावना के साथ इस तरह पटाखे फैंके जाते थे, जिससे ये बेल डर से भागते थे और भैरूंजी का पूरे शहर में घुमाते हुए सुबह करीब तीन-चार बजे वापस अपने स्थान पर रख दिया जाता था।

‘गंगा-जमुना’ की होती है करोड़ों की बिक्री 

दीपावली के त्यौहार पर यूं तो कई तरह की रंग-बिरंगी आतिशबाजी वाले पटाखे बेचे जाते हैं, लेकिन यहां दीपावली से ज्यादा पटाखों की बिक्री दीपावली के दूसरे दिन घास-भैरूं की परंपरा के लिए होती है। खास बात यह है कि इस घास-भैरूं में सिर्फ एक ही पटाखे फोड़े जाते है, जिसे ‘गंगा-जमुना’ कहा जाता है। इस पटाखें को जलाने के बाद कुछ देर तक तो इसमें फव्वारें निकलते है, उसके बाद जोरदार आवाज के साथ ब्लास्ट होता है। घास-भैरूं के दौरान इस पटाखे को साधारण तरीके से नहीं फोड़ा जाता है, बल्कि इसे जलाकर फव्वारें निकलते हुए को भीड़ के ऊपर फैंकते हैं। यह तरीका बिल्कुल वैसे ही है, जैसे कोई बम फैंका जाता है। घास-भैरूं के दौरान विशेष रूप में ‘गंगा-जमुना’ का उपयोग किया जाता है, जिसके चलते इस दिन इस पटाखे की मांग में जबरदस्त उछाल आ जाता है और इसकी कीमत करीब तीन-चार गुना तक वसूली जाती है। इस लिहाज से केवल घास-भैरूं वाले दिन ही इस पटाखे की बिक्री करोड़ो रुपए का आंकड़ा पार कर जाती है।

अब खराब होने लगा ‘माहौल’

इस बात पर अफसोस जताते हुए यहां रहने वाले कई बुजुर्गों ने बताया कि, ‘अब पहले जैसी बात नहीं रही, पहले और अब में बहुत फर्क आ गया है। बेलों को आगे बढ़ाने के लिए फैंके जाने वाले पटाखे पहले सद्भावना से फैंके जाते थे लकिन अब लोग पटाखे फैंके जाने के असली मकसद को भूलते जा रहे हैं और शहर के भलाई के निमित किए जाने चाले इस पुनित कार्य में बहुत से शरारती तत्व शामिल होने लगे हैं, जो बेलों के आसपास वाले स्थान की जगह के बजाय लोगों पर पटाखे फैंकते हैं, जिससे कई बार अनहोनी हो जाती है और बहुत से लोग जल भी जाते हैं। घासभैरूं की इस परंपरा के निर्वहन में पुलिस-प्रशासन भी मुस्तैद रहता है और पुलिस के कई जवानों को इसमें सुरक्षा के लिए लगाया जाता है, जिन पर भी ये शरारती तत्व जानबुझकर पटाखे फैंकते है, जिससे माहौल भी खराब होने लगा है। बीते कई सालों में इस तरह की हरकतों से कई लोग और कई पुलिस वाले घायल हो चुके हैं। अब पुलिस वाले पहले से और भी अधिक सतर्क रहते हैं और आसपास के इलाकों से भी प्रलिस बुलाई जाती है और कई पुलिस वालों को सादा वर्दी में भी तैनात किया जात है, जिससे शरारती तत्वों पर उनके करीब रहकर उन पर कड़ी नजर बनाई रखी जी सके और उनके द्वारा किए जाने वाले किसी भी हरकत पर उन्हें तुरंत दबोचा जा सके।

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रिक्शा से तय किया कोलकाता से लद्दाख तक 3 हजार किमी का सफर

कोलकाता। एक रिक्शा चालक ने दो महीने की कठिन यात्रा के दौरान कोलकाता से लेकर लद्दाख तक करीब 3 हजार किलोमीटर का मुश्किल रास्ता रिक्शे से तय कर एक नया कीर्तिमान रचा है। उसने यह कठिन यात्रा ऐसा साहसिक कारनामा करने वाला पहला व्यक्ति बनने के उद्देश्य से की है।
68 दिनों के सफर में झारखंड, उत्तर प्रदेश, श्रीनगर और करगिल से गुजरे 44 साल के सत्येन दास ने बताया कि उन्होंने 17 अगस्त के दिन मशहूर खारदुंग ला पास को पार किया। 5 हजार मीटर की ऊंचाई तक रिक्शा चलाकर घर पहुंचे सत्येन दास की नजरें अब गिनीज बुक ऑफ व‌र्ल्ड रिकॉर्ड में अपना नाम दर्ज कराने पर हैं। दास की इस पूरी यात्रा को साउथ कोलकाता के क्लब नकटाला अगरानी ने फाइनेंस किया।
क्लब के सचिव पार्थो डे ने बताया कि हमने इस यात्रा के लिए 80 हजार रुपए खर्च होने का अनुमान लगाया था और यह धनराशि हमने क्लब के सदस्यों से ही एकत्र कर ली। हम उनके जुनून और मजबूत इरादे से बेहद प्रभावित थे। दास ने जब जम्मू-कश्मीर एक इलाके में पहुंचे तो वहां के स्थानीय लोगों ने उनसे कहा कि उन्होंने आज तक इलाके में रिक्शा नहीं देखा है। दास ने कहा कि उनकी यात्रा का मकसद पर्यावरण के अनुकूल परिवहन के तौर पर रिक्शे का प्रचार करना और विश्व शांति का संदेश देना था।
इस साहसिक काम को रिकॉर्ड करने के लिए, कोलकाता के एक डॉक्यूमेंट्री मेकर भी दास के साथ गए थे। उन्होंने नक्शों की मदद से सही रास्ते पहचानने में दास की रास्ते भर मदद की। हालांकि, ऐसा पहली बार नहीं है जब दास ने इस तरह के सफर पूरा किया हो। साल 2008 में, वह अपनी पत्नी और बेटी के साथ रिक्शे से ही रोहतांग के पास गए थे।
इस बार की यात्रा में सबसे चुनौतीपूर्ण पल तब रहा जब दास ने 17,582 फीट ऊंचाई पर खारदुंग ला दर्रे को पार किया, जिसने उन्हें हिमाचल के विहंगम दृश्य देखने का मौका दिया। खारदुंग ला दर्रा दुनिया की सबसे उंची सड़क है, जहां मोटरवाहन चल सकते हैं। दक्षिणी कोलकाता के नकताला में यात्रियों को रिक्शे से एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने वाले 40 वर्षीय सत्येन दास ने इस यात्रा में अपनी निजी बचत का भी प्रयोग किया।
पूरी यात्रा के दौरान दास ने अपना सामान अपने सजे हुए रिक्शे की यात्री सीट के नीचे रखा हुआ था। दास ने बताया कि, “मैं रिक्शेसे अपनी आजीविका कमाता हूं और पूरा दिन इसी के साथ बिताता हूं इसलिए जब मैंने लद्दाख की यात्रा का सपना देखना शुरू किया तो मैं रिक्शे को पीछे नहीं छोड़ सकता था।”

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