राजीव दीक्षित
प्रस्तुति- दर्शनलाल
किन्नररों की दुनिया एक अलग तरह की दुनिया है जिनके बारे में आम लोगों को जानकारी कम ही होती है। इसके अलावा किन्नारों पर न ही ज्यादा शोध किया गया है। भारत में बीस लाख से ज्यादा किन्नहर है और निरंतर इनकी संख्या घट रही है, मगर फिर भी हिंजड़े को संतान मिल ही जाती है।
ये उनका लालन-पालन बड़े अच्छे ढंग से करते हैं। जहां तक एक से बच्चे को बिरादरी में सम्मिलित करने की बात है तो बनी प्रथा के अनुसार बालिग होने पर ही रीति संस्कार द्वारा किसी को बिरादरी में शामिल किया जाता है।
रीति संस्कार से एक दिन पूर्व नाच गाना होता है तथा सभी का खाना एक ही चुल्हे पर बनता है। अगले दिन जिसे किन्नदर बनना होता है, उसे नहला-धुलाकर अगरबत्ती और इत्र की सुगंध के साथ तिलक किया जाता है।
शुद्धिकरण उपरांत उसे सम्मानपूर्वक ऊंचे मंच पर बिठाकर उसकी जननेन्द्रिय काट दी जाती है और उसे हमेशा के लिए साड़ी, गहने व चूडिय़ां पहनाकर नया नाम देकर बिरादरी में शामिल कर लिया जाता है।
किसी के घर विवाह है या पुत्र रतन की प्राप्ति की सूचना मौहल्लों में छोड़े मुखबिरों से उन्हें मिल जाती है। कुछ जानकारी नगर परिषद में जन्म-मरण रिकार्ड से नव जन्में बच्चे की जानकारी मिल जाती है, जबकि शादी का पता विभिन्न धर्मशालाओं एवं मैरिज पैलेस की बुकिंग से चल जाता है।
मनुष्य के रूप में जन्म लेने के बावजूद किन्नर अभिशप्त जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। किन्नरों के साथ होने वाले सामाजिक भेदभाव से उनका मनोबल टूटता है। उनके लिए न रोजगार की व्यवस्था है और न ही उनकी खुद की कोई परिवार जैसी इकाई है। सामाजिक भेदभाव की यह स्थिति समाप्त होनी चाहिए।
समय-समय पर दुनिया भर में विभिन्न मंचों पर मानवाधिकार उल्लंघन और मानवाधिकारों की बदतर स्थिति की चर्चा की जाती है, लेकिन कई मूलभूत सुविधाओं से वंचित और समाज की प्रताडऩा के शिकार किन्नरों की स्थिति पर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है।
तमिलनाडु में किन्नरों के विकास के लिए सरकार द्वारा एक बोर्ड का भी गठन किया गया है। वास्तव में इनकी बातों में एक पीड़ा है जिसके अहसास से हमारा समाज कोशों दूर है। देश की आजादी को 64 साल बीत गए हैं, लेकिन आज भी हमारे समाज का एक तबका आजादी के बाद मिले कई अधिकारों से वंचित है।
आज किन्नर जैसा कोई देश नहीं है लेकिन किन्नर देश में रहते जरूर हैं। किन्नरों का अस्तित्व दुनिया के हर देश में है समाज में उनकी पहचान भी है फिर भी उन्हें आम इंसानों की तरह नहीं समझा जाता, उन्हें बराबरी का दर्जा नहीं दिया जाता, उन्हें सरकार कोई आरक्षण नही देती, व्यवसायी वर्ग उन्हें नौकरी नहीं देता और तो और गाने बजाने और नाचने के अलावा कोई उनसे दोस्ती नहीं करता, उनसे बात नहीं करता क्योंकि वो समाज में हेय दृष्टि से देखे जाते हैं मानो वो कोई परग्रही हों आखिर क्यों किन्नर एक अजूबा है? क्यों उन्हें इस तरह सामाजिक तिरस्कार झेलना पड़ता है। क्यों समाज उनके प्रति लचीला रुख नहीं अपनाता? सवाल बहुत से हैं लेकिन उत्तर नहीं।
किन्नररों तक खबर पहुंचाने वाले को तयशुदा कमीशन भी मिलता है। किन्नर सरकार और समाज से सिर्फ इतना चाहते है कि समाज उनका मजाक न उड़ाए और न ही घृणा की दृष्टि से देखें, जबकि समाज के प्रति ऐसी सम्मानित भावना उपरांत भी किन्न र समाज में तिरस्कृत तथा बहिष्कृजत है।
इनके आधे अधूरे पन की वजह से भले ही समाज इन्हें अपना अंग मानने से इंकार करता रहे, मगर वास्तविकता यही है कि ये समाज के अंग है। अंधे, कोढ़ी और अपंग लोगों की तरह किन्न,र भी लाचार है, जबकि किन्नेरों को तिरस्कार व उपेक्षा की नहीं, बल्कि प्यार और सम्मान देने की जरूरत है।
किन्नउरों के बारे में कई प्रकार की रस्मे आज भी हमारे समाज में मौजूद है, जैसे कि हिंजड़ों की शव यात्राएं रात्रि को निकाली जाती है। शव यात्रा को उठाने से पूर्व जूतों-चप्पलों से पीटा जाता है। किन्निर के मरने उपरांत पूरा हिंजड़ा समुदाय एक सप्ताह तक भूखा रहता है।
एक वर्ग इन्हे भ्रांतियों मानता है। इस संबंध में किन्नधर का दूसरा वर्ग भी इन रस्मों को इंकार तो नहीं करते, मगर इससे नाममात्र ही बताते है। भारत के किन्न रों के दर्दनाक जीवन की अकाक्षाओं, संघर्ष और सदस्यों की अनदेखी करना ज्यादती होगी। किन्नतरों के संबंध में जानकारी मिली है कि कुछ किन्नसर जन्मजात होते है, जबकि कुछ ऐसे है कि पहले पुरूष थे, परंतु बध्याकरण की प्रकिया से किन्नसर बने है।
अपनी आजीविका चलाने वाले किन्न र विवाह-शादी या बच्चा होने पर नाच-गाना करके बधाई में धनराशि व वस्त्र इत्यादि लेते है, जबकि त्यौहारों के अवसर पर दुकानों इत्यादि सेभी धनराशी एकत्रित कर लेते है।
हमारे समुदाय में गुरू शिष्य जैसे प्राचीन परम्परा आज भी यथावत बनी हुई है। किन्नर समुदाय के सदस्य स्वयं को मंगल मुखी कहते है क्योंकि ये सिर्फ मांगलिक कार्यो में ही हिस्सा लेते हैं मातम में नहीं । हमारे समाज कि सबसे बड़ी विशेषता है मरने के बाद हम मातम नहीं मानते हैं। हमारे समाज में मान्यता है कि मरने के बाद इस नर्क रूपी जीवन से छुटकारा मिल जाता है। इसीलिए मरने के बाद हम खुशी मानते हैं । ये लोग स्वंय के पैसो से कई दान कार्य भी करवाते हंै ताकि पुन: उन्हें इस रूप में पैदा ना होना पड़े। लेकिन यह एक विडंबना है कि सामाजिक विधिक संदर्भ में व्यक्ति की परिभाषा में केवल पुरूष व स्त्री को ही शामिल किया जाता रहा है।
पौराणिक काल के काफी बाद महाभारत काल में भी अपने अज्ञातवास में अर्जुन का वृहन्नला का रूप धरना भी यही साबित करता है कि उभयलेंगिकों के लिए समाज में पर्याप्त स्थान था। महाभारत का ही शिखंडी जो नारी रूप में पैदा हुआ लेकिन एक पुरुष के रूप में पला और बढ़ा। परंतु आज समाजिक विभेद के कारण ये समाज अपने पक्ष से भटक रहा है। आवश्यकता है एक पहल की ताकी इन्हें भी समाज की मुख्य धारा से जोड़ा जा सके।
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