राजस्थान के राजपूत कुलो में उनके वैदिक क्षत्रिय पूर्वजों के अनेक
रीतिरिवाज आज भी उसी रूप में प्रचलित है ,जैसे वे हजारों वर्ष पूर्व में थे
. अपने आप में यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि अनेक युगों में होने वाले
परिवर्तनों एवं क्रांतियों के पशचात भी आज के राजपूत उन रीतिरिवाजों का उसी
रूप में पालन करते आ रहे हैं ,जैसा उनके वैदिक काल के पूर्वज करते आ रहे
थे. इस परशिष्ट में उन विशेषताओं पर प्रकाश डालने का यह एक संक्षिप्त
प्रयास है.
१. जनपदीय क्षत्रियो में चाहे वे गणतंत्री कुल हो अथवा राजतन्त्र प्रणाली
वाले हों -दोनों ही कुलों की पुत्रियाँ -पतिगृह में जाने पर अपने पितृ कुल
के नाम से ही पुकारी जाती थी . यह उनकी एक विशष्ट परम्परा थी . वही उनके
कुलों की निशचित पहचान थी .मद्रों की बेटी पतिगृह में माद्री कहलाती थी।
केकय गण की पुत्री कैकेयी,योधयों की पुत्री यौधेयी , गांधारों की पुत्री
गांधारी , साल्वों की साल्वी , एवं पांचालों की पांचाली नाम से सम्बोधित की
जाती थी।उक्त नियम जनपद के अन्य निवासियों पर लागु नही होते थे।
वाल्मीकि रामायण और महाभारत जैसे अति प्राचीन काव्य व इतिहास ग्रंथो में
पुराणों एवं पश्चात् कालीन संस्कृत काव्यों में क्षत्रिय कुमारियो के नामो
का उल्लेख उनके पैतृक कुलों के नामो पर ही किया गया है. गुप्त सम्राटो में
भी उसी प्रथा का प्रचलन उनके ताम्र शासनों के माध्यम से प्रकाश में आता
है. सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीये की राजमहिषी कुबेर नागा ,नाग क्षत्रिय
कन्या थी . अतएव उस के नाम के साथ नाग नाम जुडा हुआ था .सम्राट चन्द्र
गुप्त की पुत्री प्रभावती यधपि वाकाटक वंशीय महाराजा रुद्रसेन की राजमहिषी
थी किन्तु वह अपने पितृ कुल के नाम पर प्रभावती गुप्ता कहलाती थी .यह जानकर आश्चर्य होता है कि राजस्थान के राजपूत कुलों में वही प्रथा हजारों वर्षों से चली आ रही अखंडित परम्परा के रूप में आज भी विद्यमान है . और वह उन्हें उन जनपदिये क्षत्रियो के सीधे वंशज होने की मान्यता में किसी प्रकार का संदेह बाकि नही रहने देती। जबकि उन के उद्गम के सन्दर्भ में पाश्चात्य विद्वानों एवं उनका अन्धानुकरण करने वाले भारतियों ने आधारहीन मनमानी कल्पनाओं की उडाने भरी हैं ,जो सर्वथा असंगत है।
राजपूत महिलाये चाहे सम्पन घर की हों या अभावग्रस्त परिवारों की -चाहे राजरानी हो या कृषि कर्मा राजपूत की गृहणी पति कुल में जाने पर वे सभी अपने पितृ कुल के नाम से ही पुकारी जाती हैं . राठोड़ों की पुत्रियाँ पति गृह में राठोड जी कहलाती हैं अथवा अपनी शाखा प्रशाखाओं के नामानुसार जोधी ,मेडतणी,बीकी ,बिदावत ,
चांपावत, आदि शाखा नामों से पुकारी जाती है यही नियम शिशोदिया ,कछावाह ,भाटी आदि अन्य राजपूत कुलों की पुत्रियों के लिए समझना चाहिय .
प्राचीन जनपदीय क्षत्रिय कुलों की उक्त प्रथा -वर्तमान में राजस्थान के राजपूत कुलों के सिवाय अन्य किसी भी देशी या विदेशी जाती या समुदाय में नही पाई जाती . परम्परा से चली आ रही यह उनकी अपनी विशेषता है। जिसका पालन वे आज भी उसी रूप में करते आ रहे हैं .जैसा उनके यशस्वी पूर्वज हजारों वर्ष पूर्व करते थे .हजारो वर्ष पहले से प्रचलित उक्त प्रथा का अखंडित और अपरिवर्तित रूप में आज भी उनमे पाया जाना इतिहास का एक महान आश्चर्य है.
३ . राजपूतों का सामाजिक ढांचा :
राजपूत कुलों का सामाजिक ढांचा कमोवेशी अपने पूर्वजों के संघीय ढांचे पर ही आधारित था। डा .वासुदेव शरण अग्रवाल ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'पाणिनि कालीन भारत ' में लिख है कि गणतंत्री कुलों में संघ रूप में शासन में भाग लेने का सभी को अधिकार था। पिता की मृत्यु पर उसके पुत्र का विधिवत अभिषेक होता था। वे सभी मूर्धभीषीक्त राजन्य होते थे। जन्म और कुल इन दोनों बातों में सब एक दुसरे के सर्वथा समान होते थे। कोई भी किसी प्रकार से विशिष्ठता का दावा नही कर सकता था।उनके आधार केवल उन के कुळ थे।
मध्ययुगीन राजपूत कुलों का सामाजिक संगठन या जातीय ढांचा भी प्रायः अपने पूर्वजों की भांति समानता के नियमो पर ही आधारित था। जन्म और कुल के हिसाब से राजपूतों में राजा और साधरण राजपूत में कोई भेद नही माना जाता था। साधारण श्रेणी का राजपूत भी उसी कुल का होने पर राजगद्दी का हकदार नि:संकोच बनाया जा सकता था। राज्य राजा अकेले की बपोती न मानी जाकर सारे कुल का पैतृक राज्य माना जाता था। उनके राज्य उनके कुलों के नाम पर पुकारे जाते थे, न कि राजाओं के नाम पर। राठोड़ों का राज्य , कछवाहों का राज्य, चौहानों का राज्य आदि नाम उसी तथ्य के द्योतक हैं। उन कुलों के पूर्व पुरुषों ने उन राज्यों की स्थापना की थी। वस्तुत: वे राज्य उन कुलों की ही बपोती थे। राजा तो उन कुलों के मुखिया या प्रतिनिधि के रूप में प्रतिष्ठित था। " रिड़मलां थापिया,तिका राजा " -जिसे कुल मान्यता देते वही राजा बनाया जाता था। शिशोदियों ,कच्छवाहों , राठोड़ों और भाटियों के इतिहासों में एसे अनेक उदहारण मिलते हैं।
मुस्लिम काल में राजपूतों में उस संघीय ढाचे में अनेक बदलाव आये , किन्तु तब भी उनका मूल ढांचा ,संघीय प्रणाली के समानता वाले सिधान्तो पर ही ज्यादा आधारित रहा। अपने कुलों का गर्व और अभिमान राजपूतों में अपने राजाओं की अपेक्षा अधिक मात्रा में विद्यमान था। राज्य गद्दी से अति दूर का रक्त सम्बन्ध होते हुये भी - अपने कुल के नाम पर -उसके गौरव की रक्षार्थ प्राणों की आहुतियां देने में किसी से पीछे नही रहे। यह उस प्राचीन काल से चले आते हुये संघीय ढांचे की विशेषता थी। यही वह संजीवनी ओषधि थी ,जिस से अनुप्राणित होकर उस कल के राजपूत देश ,धर्म व कुल गौरव की रक्षार्थ बलिदानों की परम्परा स्थापित करते आये थे।
गत पिछली शताब्दियों में मुगलों के सम्पर्क में आने पर मुग़ल दरबार की शानशौकत ,तडक भड़क और तौरतरीको ने उन्हें अवश्य प्रभावित किया। उनकी देखा देखि एक छत्र निरंकुश शासक बनने की लालसा उनमे जागृत हुई। उनके पुराने संघीय ढांचे में विकृति पैदा हुई ,जिसके परिणाम स्वरूप राजा और उसके भाई बांधवों के मध्य संघर्ष शुरू हुआ ,देश में अराजक स्थिति का निर्माण हुआ। अंत में ब्रिटिश शासन काल (सन १८१८ ई .) में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ हुई सुरक्षा संधियों ने राजाओं को सुरक्षा की गारंटी देकर उन्हें उन के कुल के मूल ढांचे और संगठन से अलग थलग बना दिया। उपर्युक्त स्थिति के निर्मित होने के बाद भी ,राजा तो नही -किन्तु राजपूत ,उन राज्यों को अपने पूर्वजों से चली आ रही बपोती मान कर गर्व करते रहे और राज्य गद्दी पर आरूढ़ होने वाले मुखिया के प्रति वफादार बने रहे। किन्तु उनकी उक्त भावना को समझने और उसका आदर का प्रयत्न उस काल के राजाओं ने कभी नही किया।
अब राजतन्त्र समाप्त हो चूका है। राजपूत कुलों के -संघीय ढांचे पर आधारित राज्य भी इतिहास की चर्चा के विषय बन कर रह गये हैं। किन्तु जब तक उनके कुलों के राज्य कायम थे - उनमे उनके पूर्वजों के संघीय ढाचे के अनुरूप उनके गुण विद्यमान थे।
(शेखावाटी प्रदेश का प्राचीन इतिहास - ठा .सुरजन सिंह जी शेखावत- झाझड )
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