प्रस्तुति- स्वामी शरण
विवाह सामाजिक संस्था की धुरी है. इसी केंद्र के ईद-गिर्द समाज की सारी विधि व्यवस्था, रीतिरिवाज, परंपराएँ घूमती रहती है. अपने देश में विवाह की अलग-अलग प्रथाएँ प्रचलित है. प्रायः यहाँ सभी अपने-अपने रीति-रिवाजों और धार्मिक परंपराओं के अनुरूप विवाह कार्य संपन्न करते हैं. दुनिया के अन्य देशों में भी बड़ी विचित्र प्रथाएँ देखने को मिलती है. बहुधा ये सारी विचित्र वैवाहिक परंपराएँ मूल जातियों या आदिवासियों के बीच में ही देखी जाती है. इन समुदायों में अभी भी ये विभिन्न विचित्र रीतिरिवाज किसी न किसी रूप में अपना अस्तित्व बनाए हुए है. इनमें से कई विवाह बड़े रोचक एवं अनोखे होते है.
विवाह की ये प्रथाएँ देश के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग ढंग से होती है. बिहार में यह बिरहारे तथा पैठू प्रथा, गुजराती भीलों में गोलन-घेडो बस्तर के गोड जाति के लोगों में घोटुल प्रथा आदि के रूप में प्रचलित है. पैठू प्रथा के अंतर्गत लड़कियों का प्रभाव प्रबल होता हे. लड़कियाँ जिस लड़के को पसंद करती है. बरात उसके घर में शादी से पूर्व ही रहने लगती है, फिर उनका विवाह किया जाता है. गुजरात में प्रचलित गोलग-घेडों के अनुसार होली के अवसर पर स्वयंवर का आयोजन किया जाता है. इसमें एक खंभे के ऊपरी सिरे पर थोड़ा-सा गुड़ और एक नारियल बाँध दिया जाता है. गाँव की सारी महिलाएँ एवं लड़कियाँ खंभे के चारों ओर नृत्य करती है. पुरुष वर्ग महिलाओं के चारों ओर एक दूसरा घेरा बनाकर नाचना शुरू करते है. जो बहादुर उस घेरे का तोड़कर उस खंभे में से गुड और नारियल को निकाल लाता है. उसे विजेता मान लिया जाता है. विजेता वहाँ उपस्थित महिलाओं में से किसी को भी अपनी पत्नी बना सकता है. किंतु इस खंभे तक पहुँचना बड़ा दुष्कर एवं मुश्किल कार्य होता है महिलाएँ उसको रोकने के लिए हर संभव प्रयास करती है. वे सब मिलकर झाडू से पीटना, बाल नोचना, पत्थर फेंकना, दाँतों से काटना आदि सभी कुछ करती है. यह विवाह समाज द्वारा स्वीकृत होता है.
उत्तरी गढ़वाल एवं कुमाऊं जिलों की भोटिया जनजाति में लड़कों को अपना जीवन साथी चुनने में पूरी स्वतंत्रता होती है. आपसी लेन-देन एवं अन्य कार्य सभी सामान्य ढंग से होते हैं. जब बारात लड़की वालों के घर आती है, लड़का बिना कोई रस्म अदा किए ही लड़की की डोली में बिठाकर अपने साथ ले जाने को उद्यत होता है इस अवसर पर लड़की और लड़के वालों में परस्पर युद्ध होता है, परंतु यह युद्ध नकली होता है. अंततः लड़की वालों की पराजय होती है एवं उसके पश्चात् विदाई होती है. एक डेढ़ सप्ताह के बाद दोनों परिवारों के बीच सुलह-समझौता होने के पश्चात् ही विवाह भोज का आयोजन किया जाता है एवं नाच-गाना होता है.
बंगाल और असम के ममनसिंह ग्वालपाडा और कामरुप जनपदों के गारो आदिवासी नरमुड शिकारी के रूप में जाने जाते हैं. इन जातियों का समाज मात सत्तात्मक होता है. इसमें कन्या पक्ष विवाह के लिए वरपक्ष की तलाश करता है. जिस लड़के के गले में खोपड़ियों की माला में सर्वाधिक खोपड़ियाँ दिखाई दे और वह बहुत ही भयानक हो, उसे ही वर के रूप में प्राथमिकता दी जाती है. वर का चयन जितना विचित्र होता है, उससे भी अद्भुत इनकी विवाह प्रथाएँ होती है.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लगे जौनसार भाबर की खास जनजाति में विवाह कार्य इतना विचित्र नहीं होता जितना कि यहाँ की विविध प्राचीन मान्यताएँ है. विवाह में लड़की का चयन, बारात, मंत्रोच्चारण, फेरों आदि की रस्में पुरानी परिपाटी के अनुसार होती है. खस जनजाति की सबसे बड़ी विशेषता बहुपति प्रथा है. सामान्यतया यहाँ के परिवारों में जब किसी एक भाई की शादी हो जाती है तो शेष भाई भी उसे पत्नी मान लेते है. एक स्त्री सभी भाइयों की पत्नी समझी जाती है. इसे द्रौपदी विवाह का नाम दिया जाता है. यहाँ की महिलाएँ द्रौपदी की देवी के रूप में मानती हैं एवं उसकी पूजा-अर्चना करती है. यहाँ शादी के दौरान खूब मदिरा सेवन करने की अनोखी परंपरा भी है.
सामान्य रूप से हिंदू परिवारों में लड़के-लड़कियों की कुंडली मिलाई जाती है. और मिल जाने पर विवाह तय होता है, परन्तु अपने देश के उत्तरी-पूर्वी सीमांत प्रदेश में खोग जाति में कुंडली मिलाने की प्रथा बड़ी विचित्र है. इस जाति में लड़के -लड़कियों को अपना जीवनसाथी चुनने की स्वतंत्रता नहीं होती है. लड़के का पिता पुत्र के लिए वधू तलाशने जाता है. शादी की सहमति के पश्चात् समाज के अन्य प्रतिष्ठित लोगों को आमंत्रित किया जाता है. इसी के साथ लड़की पक्ष वाला मुर्गी एवं लड़के का पिता मुर्गा लेकर आता है. समाज का ओझा (पुजारी) मुर्गी एवं मुर्गे की जीभ काटकर उसके चिह्नों का मिलान करता है. यदि सब कुछ उपयुक्त होता है तो विवाह को शुभ मान कर स्वीकृति दे दी जाती है. शेष कार्य जातीय परंपराओं के अनुरूप किए जाते है.
गुजरात की अहीर जाति में साल में केवल एक बार शादी होती है. गुजरात में कच्छ के 40 गाँवों में 40 हजार अहीरों की आबादी है. यहाँ की परंपरा है कि बैसाख महीने की त्रयोदशी तिथि को ही विवाह के लिए शुभ माना जाता है. यहाँ की मान्यता है कि श्रीकृष्ण की बहिन सुभद्रा का विवाह अर्जुन के साथ बैसाख कृष्ण त्रयोदशी तिथि को ही हुआ था. यहाँ इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण के आशीर्वाद को फलित माना जाता है इसी मान्यता के कारण यहाँ के अहीर समाज में बैसाख की त्रयोदशी तिथि को सामूहिक विवाह किया जाता है. मंडप में अगणित जोड़े अपने विचित्र रस्मोरिवाज के साथ विवाह करते है. विवाह के इस शुभ अवसर पर स्त्रियों के समान पुरुष भी कान, गले और पैरों में भारी आभूषण पहनते है और हाथ में तलवार धारण करते है. विवाह में मंत्रों एवं श्लोकों का उच्चारण नहीं किया जाता, बल्कि अग्नि के चार फेरे लिए जाते है. घनिष्ठ परिजनों एवं सगे संबंधियों की मृत्यु के बावजूद इस तिथि को विवाह का कार्यक्रम स्थगित नहीं होता.
इनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एंड एथिक्स के अनुसार विवाह कई प्रकार के होते है-सजातीय अन्तर्जातीय आदि. ब्रिटेन में प्राचीन समय में बहुपति प्रथा प्रचलित थी. एक महिला के दस से बारह पति हुआ करते थे. जिसमें से एक उसका स्वयं का भाई होता था. आयरलैण्ड में दहेज पति को देना पड़ता था. दहेज ससुर लेता है और उस संपत्ति पर इक्कीस साल तक अधिकार बनाए रखता है. आयरलैण्ड के इतिहास में राजा लिंसवट का विवाह उसकी अपनी ही माँ से करने का प्रमाण मिलता है. उसकी पत्नियों में दो सगी बहिनें भी शामिल थी. एफ.एल.ग्रिफिथ के अनुसार इजिप्ट की आकुरे जाति में भाई-बहिन के बीच विवाह परंपरा प्रचलित है.
डब्लू जे. बुड हाउस ने अपनी शोध में ग्रीक में विवाह का रोचक वर्णन किया है. वहाँ दुल्हन को कई प्रकार के रंगों से रंगा जाता है. दहेज में दुल्हन के साथ उसके सारे खिलौने, गुड़िया एवं अन्य प्रकार के श्रृंगार -प्रसाधनों को रखा जाता है, विदाई के समय दहेज की तय रकम को यदि नहीं चुकाया जा सका, तो शेष रकम को वर पक्ष ब्याज के साथ वसूलता है यहाँ पर पत्नी की सुरक्षा दहेज के आधार पर होती है. ईरानर में विवाह पूर्व चाँदी के सिक्के दिए जाते है. शादी एवं इसके उपरांत इन सिक्कों का विशेष योगदान होता है. यहाँ भी वर एवं कन्या दोनों को ही हल्दी लगाई जाती है.
एफ.डब्लू. कुशकर ने अपनी कृंति मैरज इन जापान में जापान और कोरिया में विवाह की परंपराओं एवं प्रचलनों पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला गया है. यहाँ की तैहस्यो जाति में दूल्हा एवं दुल्हन को उपहारस्वरूप शराब दी जाती है. दूल्हा एवं दुल्हन दोनों ही एक दूसरे को नौ बार शराब पिलाते है. इसके पश्चात् भव्य भोज का कार्यक्रम चलता है. कोरिया में कन्या वर से बड़ी यहाँ बहुविवाह निषिद्ध माना जाता है. तलाक के छह माह पश्चात् ही यहाँ पुनर्विवाह हो जाता है.
मनीषी अब्राहम की बुक ऑफ डिलाइट में जेविश विवाह का उद्धरण मिलता है. कन्या को तेरह साल तक मांगलिक मानकर विशेष ध्यान दिया जाता है. यहाँ विवाह के लिए कन्या का समर्थन आवश्यक माना जाता है. इसीलिए लड़की को खुश करने के लिए अनेकों उपक्रम किए जाते है. कभी -कभी तो बाकायदा उत्सव का वातावरण विनिर्मित किया जाता है,
जिससे विवाह के लिए लड़की का समर्थन प्राप्त किया जा सकें. इजराइल में अपने कुलदेवता को साक्षी मानकर सात आशीर्वाद दिए जाते है. यह आशीर्वाद गीतों के माध्यम से दिए जाते है, जो केवल महिलाएँ ही प्रदान करती है.
डब्ल्यू, बोर्डे फाउलर ने अपने शोधग्रंथ, रिलीजियस एक्सपीरियेन्स ऑफ द रोमन पीपल में रोम में होने वाले विवाह प्रचलनों का उल्लेख किया है रोम में मई माह को विवाह के लिए अपशकुन एवं जून के प्रथम सप्ताह को विवाह के लिए शुभ माना जाता है. दुल्हन को लाल या पीला मुकुट पहनाया जाता है. उसके बालों को मालादार चर गुच्छकों में सँवारा जाता है. जो संभवतः उनकी पुरातन संस्कृति का प्रतीक है. दुल्हन के बायें एवं वर के दायें हाथ को पवित्र बंधन से बाँधकर यज्ञनुमा वेदी या अन्य पवित्र स्थानों की परिक्रमा कराई जाती हैं. विदाई के समय दूल्हा दुल्हन को झटके के साथ खींचता है. इस रस्म के पश्चात् विवाह सम्पन्न होता है. विदाई के समय दुल्हन को चाँदी के तीन सिक्के दिए जाते है. इसमें से एक को अपने पति को, दूसरा यज्ञाग्नि को तथा तीसरा अपने स्वर्णिम भावी जीवन हेतु आकाश को समर्पित करती है. सीजर की माँ जूलिया और कैरीओलेन्स जैसी इतिहास प्रसिद्ध नारियाँ भी इसी परंपरा में पत्नी बनी थी.
जे. मेकाले के अनुसार स्लोवेक में कन्या को युद्ध से जीतकर लाया जाता था. यहाँ की जुगोस्लैव जाति में यह प्राचीन परंपरा भी कायम है. विवाह के समय यहाँ दो तरह की तैयारियाँ होती है-एक तो मंगल पाणिग्रहण की एवं दूसरी युद्ध की. जो जीतता है वही कन्या को वरमाला पहनाकर दुल्हन के रूप में पाता है. इस अवसर पर वर-वधू को खूब सजाया-सँवारा जाता है दुल्हन को ससुराल में छुपा दिया जाता है, जिसे सिर्फ दूल्हे को खोजने का अधिकार होता है. इसके बाद भावी संतान के प्रतीक के रूप में दुल्हन की गोद में एक छोटे-से बच्चे को रख दिया जाता है. दक्षिण रूस में इस अवसर पर दुल्हन की गोद में मुर्गी रखी जाती है. यहाँ दुल्हन को एक लम्बी -सी टोपी पहनायी जाती है. फिर दुल्हन अपने पति के हाथ एवं पैरों को बाँध देती है. इसके पश्चात् ही विवाह की रस्म पूरी होती है.
अम्ब्रन एवं उकीमास द्वीप समूह में विवाहोपरान्त लड़का, लड़की के अधिकार में होता है. लड़के को अपनी ससुराल में रहना पड़ता है और वह तब तक रहता है जब तक कि अपनी पत्नी का मूल्य ससुर को चुकता न कर दें. पत्नी की सारी संतानें उसके श्वसुर के ही अधिकार में होती है. सेराँग में कन्या विदाई के दौरान ही वर से दहेज वसूलने की प्रथा है. टोरेस में लड़की का पिता अपने दामाद से दहेज के रूप में उसकी होने वाली सभी संतानों को माँगता है.
कुछ भी हो, विवाह एक सामाजिक परंपरा है. इसके पीछे व्यक्ति, परिवार एवं समाज के विकास का मूल्य छिपा रहता है. अतः आपसी तालमेल एवं सामंजस्य द्वारा इस प्रथा- परंपरा का गौरव बनाए रखना चाहिए. विवाह में त्याग, संयम एवं सहिष्णुता का स्वरूप बने रहना चाहिए, जिससे जीवन सुखी, संपन्न एवं समृद्ध रह सकें.
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