बुधवार, 13 जुलाई 2011

संसदीय सत्रों का भी ऑडिट हो




आज भारत में ऐसा एक भी संस्थान नहीं है, जिसके कार्यकलापों का एक निश्चित अवधि में अंकेक्षण (ऑडिट) न किया जाता हो. अंकेक्षण समय की मांग और ज़रूरत दोनों है. यह वह हथियार है, जिसके माध्यम से हम किसी भी संस्थान की ख़ामियों का पता लगा सकते हैं और उनका निराकरण कर सकते हैं. लेकिन इस संदर्भ में अफसोस की बात यह है कि आज भी हमारे देश में संसदीय सत्रों के दौरान संपादित होने वाली महत्वपूर्ण गतिविधियों का कोई भी ब्यौरा आम आदमी को मुहैया नहीं कराया जाता है. जबकि उसका वहां होने वाले कार्यों से सीधे तौर पर जुड़ाव होता है. बात स़िर्फ जानकारी देने तक ही सीमित हो तो इसे हज़म भी किया जा सकता है, लेकिन जब मामला आम आदमी की भलाई और देश के विकास से जुड़ा हो तो संसदीय सत्रों में संसद द्वारा पारित किए जाने वाले विधेयकों के महत्वपूर्ण विषयों के बारे में सांसदों की गंभीरता एवं संवेदनशीलता का सीएजी या विशेष समिति से अंकेक्षण ज़रूर कराया जाना चाहिए.
बजटीय सत्र के दौरान राज्यसभा में आवंटित अवधि का 40 प्रतिशत हिस्सा हंगामे की भेंट चढ़ गया. सांसदों के अड़ियल रवैये की वजह से एक भी प्रश्न का जवाब नहीं दिया जा सका. लोकसभा की हालत भी कमोबेश राज्यसभा की तरह ही रही. वहां भी निर्धारित समय के भीतर किसी भी उल्लेखनीय कार्य का निष्पादन नहीं किया जा सका, जो पिछले बजटीय सत्र से भी बदतर है. वह भी सांसदों द्वारा निर्धारित संसदीय समय से अधिक देर तक बैठने के बावजूद.
भारतीय सांसदों का आचरण, व्यवहार एवं व्यक्तित्व इस कदर विविधतापूर्ण और अविश्वसनीय है कि कोई भी इनके दांव-पेंच के बारे में किसी तरह की भविष्यवाणी नहीं कर सकता. केवल इस वजह से कोई भी संसदीय सत्र यहां पूरी शिद्दत के साथ कभी भी अपने अंजाम तक नहीं पहुंच पाता है. हाल में बजट सत्र का समापन हुआ है. इस सत्र की हालत भी एक आम आदमी की भांति पस्त थी. पूरा सत्र शोरशराबा और असफलता का प्रतीक था. पूरे बजट सत्र में कुल 64 बिल प्रस्तुत किए जाने थे, लेकिन 28 बिल ही पेश किए जा सके. सरकार की नीयत 28 बिलों को पारित करने की थी, किंतु 6 बिलों को ही पारित किया जा सका. आज सभी क्षेत्रों में प्रदर्शन आधारित तनख्वाह की बात की जा रही है. ऐसे में अगर हम बजटीय सत्र के बरक्स में बात करें तो निर्धारित बजट और वास्तविक उपलब्धि के बीच बहुत ही बड़ी और कभी भी न ख़त्म होने वाली एक अंतहीन खाई थी. बजटीय सत्र में मात्र 9.37 प्रतिशत कार्यों को ही अमलीजामा पहनाना बहुत गंभीर और शर्मनाक मामला है. यह मुद्दा इसलिए भी हमारी चिंता का विषय है, क्योंकि हर सत्र के दौरान प्रतिदिन आम जनता की गाढ़ी कमाई के लाखों रुपये खर्च होते हैं. इस आधार पर सांसद आम जनता के लिए कोई नजीर पेश नहीं कर पा रहे हैं. जब देश के सांसदों की यह स्थिति है तो आम जनता कैसे अपने कर्तव्यों के प्रति संवेदनशील रह सकती है? बजटीय सत्र के दौरान राज्यसभा में आवंटित अवधि का 40 प्रतिशत हिस्सा हंगामे की भेंट चढ़ गया. सांसदों के अड़ियल रवैये की वजह से एक भी प्रश्न का जवाब नहीं दिया जा सका. लोकसभा की हालत भी कमोबेश राज्यसभा की तरह ही रही. वहां भी निर्धारित समय के भीतर किसी भी उल्लेखनीय कार्य का निष्पादन नहीं किया जा सका, जो पिछले बजटीय सत्र से भी बदतर है. वह भी सांसदों द्वारा निर्धारित संसदीय समय से अधिक देर तक बैठने के बावजूद.
अधिकांश बिल बिना बहस के ही पारित कर दिए गए. जबकि विधेयक पारित करने के दरम्यान बहस का होना स्वस्थ लोकतंत्र का परिचायक होता है. बहस ही बिल या विधेयक की आवश्यकता और उसकी प्रमाणिकता को सिद्ध करती है. बजट सत्र के लिए सबसे महत्वपूर्ण बिल महिला आरक्षण का था. किसी तरह से यह राज्यसभा में पारित भी हो गया, परंतु इसे पारित करने के दौरान अल्पमत सरकार की तऱफ से जो कुछ हुआ, वह निश्चित रूप से निचले स्तर का आचरण था. मार्शल द्वारा संसद सदस्यों को बाहर निकालना लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं है. इस बिल को पारित करवाने की कवायद के कारण अन्य बहुत सारे महत्वपूर्ण मुद्दों को भी दरकिनार कर दिया गया. इसी सत्र में 2011 की जनगणना में जाति की जानकारी लेने के बारे में भी चर्चा की गई. महिला आरक्षण के समान ही वर्तमान संदर्भ में यह भी बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है. जाति आधारित जनगणना इसके पहले 1931 में हुई थी. जातीय जनगणना कराने के पीछे मूल उद्देश्य है, सभी जातियों की वास्तविक संख्या के बारे में जानकारी इकट्ठा करना और उसके आधार पर नए सिरे से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण का प्लेटफॉर्म तैयार करना.
महंगाई भी इस सत्र के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा थी, पर इस मसले पर स़िर्फ रस्म अदायगी का काम किया गया. आश्चर्यजनक रूप से इस विषय पर पहले भी कई बार चर्चा किए जाने के बावजूद हमारे सांसद बजट सत्र में किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सके. संसदीय सत्रों में हमेशा दोषपूर्ण सार्वजनिक वितरण प्रणाली, जमाखोरी एवं कालाबाज़ारी आदि कारणों को महंगाई के लिए उत्तरदायी ठहराया जाता रहा है, किंतु महंगाई ख़त्म करने के लिए किसी ने शिद्दत के साथ कभी कोई कोशिश नहीं की. तक़रीबन 15 सालों से महंगाई से देश का आम नागरिक त्रस्त है, पर इससे सरकार को कभी कोई सरोकार नहीं रहा. जबकि सरकार का परम कर्तव्य था कि वह इस पर नियंत्रण रखती. बाज़ार पर नियंत्रण न रख पाना निश्चित रूप से सरकार के लिए शर्म की बात है. फिलहाल शाक-सब्जी के दाम कुछ कम हुए हैं, किंतु अभी भी दूसरे खाद्य पदार्थों की क़ीमतें आसमान छू रही हैं. लिहाज़ा ज़रूरत इस बात की है कि संयुक्त संसदीय समिति का गठन करके महंगाई पर नज़र रखी जाए और इसे कम करने के लिए एक स्पष्ट नीति के तहत सकारात्मक क़दम उठाए जाएं. संसदीय सत्र की दुर्दशा का एक महत्वपूर्ण कारण यूपीए सरकार में वामपंथियों का न होना भी हो सकता है. वामपंथियों का हमेशा एक निश्चित एजेंडा होता है. वे एक निश्चित उद्देश्य के तहत काम करते हैं. आज यूपीए सरकार में बहुत सारे ऐसे दल शामिल हैं, जिनका देश की समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं है. उन्हें तो बस येन केन प्रकारेण सत्ता में बने रहना अच्छा लगता है. इस कारण आजकल संसदीय सत्र में यूपीए सरकार के मुखिया तक को यह पता नहीं होता कि किस बिल का समर्थन सरकार के अन्य घटक दल करेंगे और किस बिल का नहीं. जो भी हो, संक्रमण के इस दौर में भी यूपीए सरकार को अपने घटक दलों के साथ सामंजस्य बनाकर चलना चाहिए, ताकि आम आदमी का भला हो सके.
राजनीति की चादर ज़रूर मैली हो चुकी है, पर विधेयक को पारित कराने से पहले संबंधित मुद्दे पर स्वस्थ बहस का होना बहुत ही ज़रूरी है, क्योंकि कोई भी विधेयक पारित होने के बाद क़ानून बन जाता है और वह देश के नागरिकों पर लागू हो जाता है. अगर ग़लत क़ानून बन जाए तो उसका परिणाम बहुत घातक हो सकता है. आजकल तो संसद में आपत्तिजनक शब्दों के तीर भी राजनेता एक-दूसरे पर चला रहे हैं. किसी को गद्दार बोला जाता है तो किसी को कुत्ता. ऐसा नहीं है कि इस तरह की घटनाओं की कोई सराहना करता है. फिर भी विडंबना यह है कि सभी लोग सब कुछ जानकर भी अंजान बने रहते हैं. शीघ्र ही संसद के सचिवालय के सौजन्य से अनपार्लियामेंट्री एक्सप्रेशन के नाम से 900 पन्नों की एक किताब हिंदी एवं अंग्रेजी में प्रकाशित की जाने वाली है. कहने का तात्पर्य यह है कि गंदा है, पर धंधा है वाली नीति पर देश के नेता बड़े गर्व के साथ चल रहे हैं. सांसद संसद में देश की जनता के प्रतिनिधि हैं. वे सरकार के कार्यकलापों के नियंत्रक भी हैं. सांसद सत्तापक्ष का हो या विपक्ष का, उसकी एक निश्चित एवं ज़िम्मेदार भूमिका होती है. वह किसी सरकारी कार्यालय का बाबू नहीं है. इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि सभी सांसद लोकतंत्र में अपनी भूमिका को समझें और सकारात्मक तरीक़े से इसे निभाएं भी.
संसद का प्रत्येक सत्र देश के लिए महत्वपूर्ण होता है. वहां पारित होने वाले विधेयकों से ही देश एवं जनता की दिशा और दशा तय होती है. इसलिए बदलते परिवेश की महत्ता को समझते हुए सभी सांसद आत्मावलोकन करें और एक ऐसी प्रणाली विकसित करें, जिसके द्वारा उनकी भूमिका और ज़िम्मेदारी दोनों को आसानी से तय किया जा सके. इसमें कोई चूक होने पर सज़ा का भी प्रावधान हो.
सांसदों के लिए ऐसा अनुकूल माहौल विकसित किया जाए, जिसके अंदर वे ख़ुद अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रह सकें, सत्र के दौरान न किसी तरह का कोई हल्ला-हंगामा हो और न ही किसी प्रकार की अशोभनीय स्थिति पैदा हो. संसदीय सत्रों की उपलब्धियों पर नियमित रूप से बहस-मुबाहिसा भी कराया जाए, आम जनता की राय ली जाए और उसके आधार पर क्षेत्र विशेष के प्रतिनिधियों की जवाबदेही तय की जाए, ताकि वर्तमान कमियों को दूर करके व्यवस्था को दुरुस्त और चाक चौबंद बनाया जा सके.

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