शनिवार, 9 जुलाई 2011

राहुल गांधी ने संसद की सर्वोच्चता को पहुंचाई चोट!

Written by आलोक कुमार Category: सियासत-ताकत-राजकाज-देश-प्रदेश-दुनिया-समाज-सरोकार Published on 09 July 2011
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कानों ने अप्रैल में जंतर मंतर और फिर बीते महीने राजघाट पर अनशन के दौरान "अन्ना नहीं ये आंधी है, यही आज के गांधी हैं" नारा मुदित होकर सुना था। अब खटकने वाली नजरों ने अलीगढ में राहुल गांधी को महात्मा गांधी का वारिस बताने वाला शब्दों से अटा पड़ा बैनर भी पढ लिया। मकसद दो, इरादा एक। एक संसदीय व्यवस्था को सही राह पर लाने के लिए महात्मा गांधी के तप को याद कर रहा है तो दूसरा संसदीय व्यवस्था के पुष्ट पोषण के लिए खुद को पैदल चलाकर गांधी का असली वारिस बता रहा है।

मकसद चाहे विरोधाभासी हो लेकिन अच्छा लगा। चलो, इस निराशा भरे माहौल में महात्मा गांधी के नामलेवा बचा है। काम को लेकर नहीं, नाम को लेकर ही सही महात्मा गांधी को लेकर सुचिता तो बढी है। उस गांधी को लेकर कांग्रेस पार्टी का राजनीतिक झंडा बुलंद किया जा रहा है जिसने जीते जी कांग्रेस पार्टी को खत्म करने की सलाह दी थी।

लेकिन पदयात्रा की सफलता से उत्साहित राहुल गांधी  एक बयान अटकने वाला रहा। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने पदयात्रा को संसद की तुलना में ज्यादा महत्व का बताया। झटके में लगा कि अब तो यह फैशन बन जाएगा। संसद की हालत ठीक नहीं है। नकलची मान लेंगे कि राजनीति सीखने के लिए संसद नहीं, पदयात्रा करना चाहिए। संसद में सरोकार लायक बात बची नहीं। लिहाजा संसद ऐसी जगह नहीं जहां मतलब की बात हो। राहुल ने यात्रा के आखिरी पड़ाव पर मीडिया से मुखातिब होकर ऐसा ही कहा, "संसद से ज्यादा पदयात्रा से सीखा है।"

कांग्रेस के युवराज का यह बयान उस संसद के लिए है जिसे दुनिया की सबसे बड़े लोकतंत्र की मिसाल के तौर पर पेश की जाती है। सबसे बडी आबादी के सीधे सहभागिता से चुनकर बनी है। इस संसद के बारे में आज की तारीख में अगर यह बयान अन्ना हजारे ने दिया होता तो बबंडर खड़ा हो जाता। सिविल सोसाइटी को जगाने के व्यवहार से चिढे सांसद कोहराम मचा देते। संसद का आगामी मानसून सत्र हंगामेदार हो जाता। अन्ना हजारे के खिलाफ संसद में भर्त्सना प्रस्ताव पास करने का बहाना मिल जाता। संसद और संसदीय व्यवस्था  को कमतर बताने वाली यह टिप्पणी न तो अन्ना हजारे ने, और न ही यह किसी बागी नक्सलवादी  ने कही है। बयान राहुल गांधी का है। इसलिए बबंडर की गुंजाईश कम है। राहुल गांधी का जिनकी पूरी साख या महत्ता सिर्फ और सिर्फ संसदीय व्यवस्था की वजह से बनी हुई है। ये सात साल से अमेठी से सांसद हैं.कांग्रेस के युवराज हैं और आने वाले वक्त में इनके संसद का नेता यानी प्रधानमंत्री बन जाने की पूरी उम्मीद है। पूरी कसरत इसी उम्मीद पर मंजूरी का ठप्पा लगाने के लिए है। कांग्रेस की पूरी राजनीति इसी दिशा में काम कर रही है।

तथ्य है कि सांसद के तौर पर राहुल ने अबतक ऐसा कुछ नहीं किया है जिसकी वजह से उनके योगदान पर कसीदे गढा जा सके। उन्होने न तो अनुशासित तरीके से कभी पूरी संसदीय कार्रवाही में हिस्सा लिया है और न ही किसी मसले को उठाकर संसद से उसका हल निकलवाने की कोई कारगर कोशिश की है। ऐसे में,राहुल गांधी के बयान के दो मायने हैं। एक, क्या वाकई संसदीय व्यवस्था सडी गली स्थिति में पहुंच गई है ? दूसरा,तो क्या राहुल गांधी की तर्ज पर सांसद लोग पदयात्रा के जरिए लोगों से सीधे संवाद के लिए निकल जाएगें?

बयान का दूसरा मायना या संदेश देश, समाज और संसद के लिए शुभ है। पर खतरा पहले मायने को लेकर है। अगर राहुल गांधी भी संसदीय व्यवस्था को कमतर मान रहे हैं तो इस व्यवस्था को बदल कर नई व्यवस्था कायम करने में लगे बागी नक्सिलियों के सपने में गलत क्या है? क्या लोच है ? राहुल गांधी की सोच और संसदीय व्यवस्था को खत्म करने की मांग भरी बात एक सी लगती है। नक्सली सपने  में मौजूदा संसदीय व्यवस्था को मटियामेट कर देने की कसम हर बागी नक्सली नेता खाया करता है।  नक्सलियों की देश के गरीब और पिछडे इलाकों में समानांतर व्यवस्था चल रही है। जन अदालतें लग रही हैं। विरोध में चूं चपड़ करने वाले आमजन को दनादन गोलियों से भूना जा रहा है। रोकने की कोशिश करने या विरोध करने वाले पुलिस टुकड़ियों के खिलाफ गोरिल्ला युद्ध छिड़ा है। संघर्ष में नक्सली खुद मर रहे हैं, और सुरक्षाकर्मियों को शहीद कर रहे हैं।

राहुल के बयान को लेकर ताजुज्ब इसलिए भी है कि संसद से उस नेता में भी ना उम्मीदी  है जिसे संसदीय परंपरा के भविष्य का नेता कहा जा रहा है। जिसको डोली पर बिठाकर प्रधानमंत्री बनाने के लिए पूरी कांग्रेस पार्टी कहार बन दौड लगा रही है। बयान का दूसरा पहलू गंभीर और महत्वपूर्ण है। राहुल का बयान उन सबके लिए सबक है जो चोर दरवाजे से राजनीति में आए हैं। संसद में पहुंच गए हैं। ऐसे सांसदों की जनसरोकार से वास्ता ह संदिग्ध है। बयान की जरूरत को समझें तो संसद में गैर राजनीतिक लोगों की संख्या बडी है। विशुद्ध राजनीति के रास्ते सांसद बनने वालों की संख्या दिन ब दिन कम हुई है। हाल के दिनों में कोई गारंटी नहीं कि जिंदगी भर पदयात्रा कर लोक सरोकार से वास्ता रखने वाले, पार्टी का झंडा ढोने वाले सक्षम राजनेता को टिकट मिलेगा ही।  चुनाव के वक्त पैसे और प्रभाव के बल पर बडे राजनीतिक दलों की टिकट हासिल करने वाले बाहरी या गैर राजनीतिक लोगों की संख्या ज्यादा है। राजनीतिज्ञों के बजाय अर्थशास्त्री ,व्यापारी ,वकील , पत्रकार और अभिनय क्षेत्र से आने वाले कलाकारों की संसद में बोलबाला है। सोचने वाली बात है कि कहीं  राजनीति से बाहर के लोगों को बहुतायत में सांसद बनाने की चलन ने संसद के ओज को कम किया है।

प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह खुद राजनीतिज्ञ नहीं बल्कि अर्थशास्त्री हैं। वो राज्यसभा के सदस्य हैं। पहली बार हुआ है कि देश की कमान सात सालों से उस नेता के हाथ में है जो जनता के सीधे मतदान से चुनकर नहीं आया। लोकसभा चुनाव का कभी उम्मीद्वार बनने की जहमत तक नहीं उठाई। डॉ. सिंह के प्रधानमंत्री बनने से पहले तक राजनीतिक दलों में लोकसभा सदस्य को ही प्रधानमंत्री बनाए रखने का सामान्य शिष्टाचार निभाया जाता था। गैर राजनीतिज्ञ के लिए बिना मोह के राजनीति को झटके में तिलांजलि देने की ताजा मिसाल मुरली देवडा हैं। जिन्होंने मंत्री पद से मनमर्जी पूर्ण छुट्टी लेने से पहले अपने क्षेत्र की आबादी को बताने की जरूरत ही नहीं समझी।

नजर फेरें तो मंत्रिमंडल शामिल या फिर राजनीतिक दलों में उनका ही बोलबाला  है जिन्होंने कभी भी राजनीति के लिए जरुरी तप का सामना नहीं किया। वदन पर वतन की  धूल को नहीं रगडा। खेत के मेडों की सफर नहीं की। ड्रांईग रुम की राजनीति से सीधे संसद जाने वालों को मिट्टी से एलर्जी है इसलिए कभी सडक-गली की धूल नहीं फांकते। अगर राहुल गांधी ने इशारे इशारे में ड्रांईंग रुम की राजनीति पर प्रहार कर रहे है ,तो  बडी है। राजनीति के मूल की तरफ सफर करने के लिए राजनेताओं को उकसाने का यह एक पुण्य काम है। नकल के लिए ही सही लोगों के बीच जाने का फैशन तो शुरू हो।

राहुल गांधी बीते छह साल से राजगद्दी के करीब हैं। लेकिन उनसे जो व्यायाम या कसरत कराया जा रहा है वह काबिले तारीफ है। जाहिर है ऐसे किसी कसरत कराने के पीछे उनकी मां सोनिया गांधी का हाथ है। जिनकी इतनी कूव्वत तो है हीं कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पुत्र राहुल को एक झटके में देश का प्रधानमंत्री बनवा दें। लेकिन सोनिया आसान रास्ता नहीं दे रही। इस मामले में कहा जा सकता है कि सोनिया गांधी राजनीतिक विरासत हस्तांतरित करने वाली नेहरू- गांधी परिवार की स्थापित परंपरा का उल्लंघन कर रही हैं।  इंदिरा गांधी से चलकर ये विरासत जिस तरीके से संजय गांधी तक आ रहा था या फिर राजीव गांधी तक पहुंच गया। उसे देखकर इंदिरा गांधी ज्यादा भावुक और ममता के भाव से भरी नजर आती हैं। इंदिरा गांधी की तुलना में सोनिया गांधी सख्त और ज्यादा कठोर लगती हैं। सोनिया गांधी का पुत्रमोह अस्सी के दशक में कांग्रेस गाय-बछडे वाले चुनाव चिन्ह जैसा कदाचित नहीं। सोनिया देवरानी मेनका से भी मेल नहीं खाती जो बेटे वरुण फिरोज गांधी के जेल पहुंचते ही बिलख पडती है।  देखना है इस कसरत या तप से युवराज कांग्रेस पार्टी के लिए फैसला कर पाते हैं या नहीं आने वाले चुनावों में पार्टी का टिकट जमीन पर राजनीतिक का  वास्तविक अभ्यास आलोक कुमारकरने वाले को ही दिया जाएगा। चुनाव के वक्त आसमान से टपकने वाले किसी शख्स को पार्टी का उम्मीदवार नहीं बनाया जाएगा। हो सकता है ऐसे राजनीति करने वालों की जमात संसद के प्रति लोगों का भरोसा फिर से बहाल कर पाएं।
वरिष्ठ पत्रकार आलोक कुमार की रिपोर्ट

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