गुरुवार, 28 जुलाई 2011

शीला जी, कैसे जिंदा रहेंगे दिल्ली में दिल्ली के गरीब




जिस देश के नेताओं पर चारा, खाद, चीनी खा जाने और कोलतार पी जाने तक के आरोप लगते हों, वहां की जनता (अपेक्षाकृत अमीर) अगर ग़रीबों का राशन हड़प ले तो ज़्यादा आश्चर्य नहीं होना चाहिए. लेकिन आश्चर्य तब होता है, जब यह सब कुछ देश की राजधानी यानी दिल्ली में हो रहा हो. दरअसल, दिल्ली की जन वितरण प्रणाली के तहत मिलने वाले राशन में घोटाले का मामला प्रकाश में आया है. ज़्यादातर एपीएल कार्ड वाले लोग बीपीएल कार्ड के कोटे में सेंधमारी कर चुके हैं. बड़ी संख्या में ग़रीब लोगों के पास राशनकार्ड ही नहीं है. यह खुलासा हुआ है एक सर्वे रिपोर्ट से, जिसे अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति एवं अनुसंधान संस्थान दिल्ली एवं नेशनल सेंटर फॉर रिसर्च एंड डिबेट इन डेवलपमेंट ने तैयार किया है. रिपोर्ट में राजधानी के नेहरू कैंप, मानसरोवर झुग्गी-झोपड़ी, हर्ष विहार एवं खजूरी खास जैसे पिछड़े इलाक़ों में रहने वाले परिवारों को शामिल किया गया है. रिपोर्ट के मुताबिक़, सरकारी आंकड़ों के मुक़ाबले दिल्ली में आर्थिक तौर पर कमज़ोर परिवारों की संख्या कहीं ज़्यादा है. इसमें भी लगभग 50 फीसदी परिवारों के पास राशनकार्ड हैं ही नहीं. महंगाई ने जीना हराम कर दिया है, सो अलग.
दिल्ली की जन वितरण प्रणाली में ज़बरदस्त भ्रष्टाचार प्रकाश में आया है. सरकार अमीरों को ग़रीबी का सर्टिफिकेट दे रही है. मतलब ग़रीबी रेखा से ऊपर वालों को बीपीएल कार्ड बांट रही है. दूसरी ओर ग़रीबों के पास राशनकार्ड ही नहीं हैं. हद तो यह है कि मुख्यमंत्री शीला दीक्षित इस समस्या से निपटने के लिए जन वितरण प्रणाली को ही ख़त्म करने की योजना बना रही हैं.
जून-अक्टूबर 2009 के दौरान पूर्वी दिल्ली के कुछ ख़ास इलाक़ों के 80 घरों में जाकर राशनकार्ड के बारे में पूछा गया. इसके बाद जो अंतिम सूचना मिली, वह चौंकाने वाली थी. 13 परिवारों के पास अंत्योदय कार्ड, 19 के पास बीपीएल और 7 परिवारों के पास एपीएल कार्ड थे. आश्चर्यजनक रूप से 41 परिवारों के पास किसी भी तरह का राशनकार्ड नहीं था. मतलब यह कि 51 फीसदी लोगों के पास राशनकार्ड नहीं था. हालांकि 2004-05 के एक सर्वे के मुताबिक़, दिल्ली की 26 फीसदी आबादी, जो ग़रीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करती है, उसमें से 33 फीसदी के पास बीपीएल कार्ड, 39 फीसदी के पास एपीएल कार्ड और 28 फीसदी के पास राशनकार्ड नहीं हैं. लेकिन, इस पूरे सर्वे का सबसे दुखद पहलू यह है कि ग़रीबी रेखा से ऊपर रहने वाले 74 फीसदी में से 18 फीसदी परिवार ऐसे हैं, जिनके पास बीपीएल कार्ड हैं. ज़ाहिर है, वे परिवार ग़रीबों का हक़ मार रहे हैं. इसके अलावा राशनकार्ड पर जितना अनाज ग़रीबों को मिलता है, वह एक परिवार की ज़रूरत का महज़ 60 फीसदी ही होता है.
पूर्वी दिल्ली के खजूरी खास इलाक़े में सर्वे के दौरान पता चला कि यहां जो लोग 15 या 20 साल से किराए के मकान में रह रहे हैं, उनके पास भी राशनकार्ड नहीं हैं. इसकी मुख्य वजह यह है कि इन परिवारों द्वारा ऐसा कोई भी दस्तावेज पेश न कर पाना, जिससे साबित हो सके कि अमुक परिवार दिल्ली का निवासी है. ऐसे किराएदारों में ज़्यादातर बिहार और उत्तर प्रदेश से आए लोग हैं. हर्ष विहार की तीन गलियों में सर्वे किया गया. वहां लगभग 628 परिवार रहते हैं, जिनमें से 10 फीसदी किराएदार हैं. पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि इनमें से 25 फीसदी परिवारों के पास राशनकार्ड नहीं हैं. सर्वे टीम ने जब वहां के 20 ऐसे परिवारों से संपर्क किया, जो ग़रीबी रेखा के नीचे थे, तो पता चला कि उनमें से 14 परिवारों के पास राशनकार्ड थे ही नहीं. यह भी पता चला कि अगर कोई कार्डधारक दो दिनों के भीतर अपना राशन नहीं लेता है तो राशन दुकानदार सारा अनाज काला बाज़ार में बेच देता है और रजिस्टर पर इंट्री कर देता है. नाप-तौल में घपला तो आम शिक़ायत थी.
भारत सरकार ने राशनकार्ड के संबंध में चार लाख नौ हज़ार की एक सीमा बना रखी है. सर्वे बताता है कि दिल्ली में बीपीएल कार्डों की संख्या बढ़नी चाहिए. हम सहमत हैं और गंभीरता से इस पर विचार कर रहे हैं. केंद्र सरकार के सामने भी यह बात रखी गई है.
हारुन युसुफ, खाद्य एवं जन आपूर्ति मंत्री, दिल्ली सरकार.
लेकिन, मुख्यमंत्री शीला दीक्षित इस समस्या पर ध्यान देने या सुधार करने के बजाय जन वितरण प्रणाली को ही ख़त्म करने की योजना बना रही हैं. शीला दीक्षित जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) में भ्रष्टाचार की बात तो स्वीकार करती हैं, फिर भी वह मौजूदा व्यवस्था को सुधारने के बजाय योजना आयोग से इसे ख़त्म करने की अनुमति मांग रही हैं. अब वह ग़रीबों को राशन के बदले हर महीने 1100 रुपये देने के फैसले पर विचार कर रही हैं, जिनमें से 1000 रुपये खाद्य सब्सिडी और 100 रुपये किरोसिन सब्सिडी के तौर पर देने की योजना है. लेकिन, उन्हें यह सोचना होगा कि ख़ामियों पर ध्यान देने के बजाय किसी व्यवस्था को भंग कर देने से समस्या ख़त्म नहीं हो जाती. नई व्यवस्था अपने साथ कोई समस्या नहीं लाएगी, इसकी क्या गारंटी है? दूसरी ओर, दिलचस्प रूप से प्रधानमंत्री कहते हैं कि जन वितरण प्रणाली के लिए देश में का़फी खाद्यान्न है और सरकार पीडीएस को मज़बूत करेगी. वह यह भी सुनिश्चित करेगी कि ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वाला कोई भी परिवार भूखा न रहने पाए. आंकड़ों के मुताबिक़, देश में पांच करोड़ टन खाद्यान्न का स्टॉक है. बावजूद इसके न स़िर्फ दिल्ली, बल्कि देश के कई हिस्सों में जन वितरण प्रणाली की स्थिति का़फी दयनीय है. कई जगह लोगों को राशन नहीं मिलता. और, मिलता भी है तो पूरा नहीं मिलता. लेकिन दिल्ली सरकार के खाद्य आपूर्ति मंत्री हारुन युसुफ ने चौथी दुनिया से हुई बातचीत में जो कुछ कहा, उसके मुताबिक़ प्रधानमंत्री के दावे अर्थहीन नज़र आते हैं. जब हारुन युसुफ से दिल्ली के ऐसे ग़रीब परिवारों के बारे में पूछा गया जिनके पास राशन कार्ड नहीं है तो युसुफ इसके लिए केंद्र सरकार की ही नीति को इसके पीछे की वजह बताते है. युसुफ कहते है कि केंद्र सरकार ने दिल्ली के लिए चार लाख नौ हज़ार राशन कार्ड का ही कोटा बनाया है और हम जानते है कि दिल्ली में ग़रीब परिवारों की संख्या इससे कहीं ज़्यादा है, फिर भी हम कुछ नहीं कर सकते जब तक कि इस कोटे को केंद्र सरकार नहीं बढाती है.
जिन लोगों के जिस तरह के राशनकार्ड बनने चाहिए, वे नहीं बन रहे हैं. दरअसल, लोगों की पहचान ही ग़लत तरीक़े से की जा रही है. बीपीएल कार्ड ग़रीबों को नहीं मिलता. ग़लत सूचना देकर ग़रीबी रेखा से ऊपर के लोग बीपीएल कार्ड बनवा लेते हैं.
बी एल जोशी, एनसीआरडीडी, दिल्ली.
प्रख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने भी कहा है कि भारत के लोग भूख की वजह से नहीं, बल्कि इसलिए मरते हैं, क्योंकि भारतीय नौकरशाही व्यवस्था में मानवीय गरिमा का कोई महत्व नहीं है. साथ ही नेताओं के पास वह राजनीतिक इच्छाशक्तिभी नहीं है, जिससे जन वितरण प्रणाली को मज़बूत बनाया जा सके.
दिलवालों की दिल्‍ली में ऐसे जीते हैं गरीब
पूर्वी दिल्ली की एक अनाधिकृत कॉलोनी है हर्ष विहार. रजनी एवं उसके पति राधेश्याम अपने तीन बच्चों के साथ एक कमरे के मकान में रहते हैं. राधेश्याम की मासिक आय तीन हज़ार रुपये है और रजनी की एक हज़ार रुपये. यानी परिवार की कुल कमाई चार हज़ार रुपये महीना है. खाने पर 1500 रुपये, बिजली पर 350 रुपये, रसोई गैस पर 500 रुपये, दवाइयों पर 100 रुपये और तंबाकू आदि पर 60 रुपये ख़र्च हो जाते हैं. पांच लोगों के इस परिवार में रोजाना 250 ग्राम दूध आता है, ताकि दो व़क्त की चाय बन सके. इसमें भी महीने के 180 रुपये चले जाते हैं. रजनी दो साल पहले गांव से आते व़क्त दो किलो दाल लेकर आई थी. वह दाल अभी तक बची हुई है. पिछले दो महीने से घर में दाल नहीं बनी. यह परिवार एपीएल कार्डधारक है. महीने में पांच किलो चावल (9 रुपये प्रति किलो) और 10 किलो गेहूं (7 रुपये प्रति किलो) मिलता है. रजनी को हर महीने खुले बाज़ार से गेहूं और चावल ख़रीदना पड़ता है. स्थिर आय और बढ़ती महंगाई के चलते इस परिवार को अपना बजट संतुलित रखने के लिए खाद्य सामग्री में कटौती करनी पड़ रही है.
सीता देवी अपने दो बच्चों, पति और देवर के साथ इसी इलाक़े में रहती हैं. पति और देवर की मासिक आय 1500 रुपये है. सीता शादियों-समारोहों में बर्तन धोकर महीने भर में 1500 रुपये कमा लेती हैं. पति शराबी है. वह अपनी कमाई शराब पर ख़र्च करने के बाद सीता से भी ज़बरदस्ती पैसा मांगता है. सीता के पास भी एपीएल राशनकार्ड है. राशन दुकान से जितना भी अनाज मिलता है, उसके अलावा सीता को खुदरा बाज़ार से हर महीने पांच किलो चावल और 40 किलो गेहूं ख़रीदना पड़ता है. घर में कभी भी दाल नहीं बनती. कभीकभार शादी-समारोह से लाई गई  सब्जी ही बच्चे खा पाते हैं. घर के सदस्य जो कपड़े पहनते हैं, वे दान के हैं. ज़रा सोचिए, महंगाई की मार से ऐसे परिवार ख़ुद को कैसे बचा पाते होंगे?
खजूरी की झुग्गी-झोपड़ी में रेहड़ी पर चार भाई मिलकर समोसे और जलेबी बेचते हैं. पहले महीने की कमाई थी 40 हजार रुपये. महंगाई बढ़ी, आलू के दाम बढ़ गए, फिर भी वे एक समोसा 5 रुपये का ही बेचते हैं. वजह, दाम बढ़ाने या साइज़ घटाने पर बिक्री कम होने की आशंका है. ज़ाहिर है, आमदनी घट गई. नतीजतन, महंगाई बढ़ने से एक तो परिवार की आमदनी घटी, दूसरी ओर अपनी ज़रूरतें भी कम करनी पड़ रही हैं.

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