अन्ना का आंदोलन एक अच्छे लोकपाल के गठन को लेकर हुआ था. पांच दिनों तक जंतर-मंतर पर अन्ना का अनशन चला, लेकिन हैरानी की बात यह थी कि अपार जन समर्थन मिलने के बाद भी अन्ना और उनकी टीम ने सरकार से समझौते के व़क्त जो मांगें रखीं, वे ठीक उस कहावत की तरह थीं कि खोदा पहाड़, निकली चुहिया. ज्वाइंट ड्राफ्ट कमेटी की मांग करके अन्ना टीम ने सरकार की मुश्किलें आसान कर दी थीं और खुद को राजनीतिक चालबाज़ियों के दलदल में धकेल दिया था. वह भी तब, जब अन्ना को राजनीतिक लोगों पर न तो भरोसा है और न ही वह उन्हें अपने मंच पर आने देते हैं. इसके बाद सरकार और तथाकथित सिविल सोसायटी के सदस्यों की नौ बैठकें हुईं. दो-तीन बैठकों के बाद ही अन्ना टीम को यह महसूस हो गया कि उन लोगों को सरकार ने बेवकू़फ बना दिया. शुरुआत में जिन 40 बिंदुओं वाले एजेंडे के साथ सिविल सोसायटी के सदस्य बैठक में गए थे, उनमें से कुछेक को छोड़कर सरकारी सदस्यों ने किसी भी प्वाइंट पर सहमति नहीं दी. सबसे महत्वपूर्ण बिंदुओं मसलन, लोकपाल की नियुक्ति, उसे हटाने के तरीक़े, जन शिकायत, प्रधानमंत्री एवं न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में लाने जैसे मुद्दे पर तो बिल्कुल भी सहमति नहीं बनी. अब, जबकि ज्वाइंट कमेटी की बैठकें खत्म हो गई हैं और गेंद अब पूरी तरह से सरकार और राजनीतिक दलों के पाले में चली गई है, अन्ना ने एक और अनशन की चेतावनी दी है. उन्होंने 16 अगस्त तक का अल्टीमेटम दे दिया है. बहरहाल, 16 अगस्त और उसके बाद क्या होगा, इसका तो इंतज़ार जनता को रहेगा ही, लेकिन इस बीच का समय अन्ना और उनकी टीम के लिए आत्ममंथन का है, चिंतन का है. अपनी ग़लतियां ढूंढने, उसे स्वीकारने और सुधारने का है. यह इसलिए भी ज़रूरी है, ताकि अन्ना की दूसरी लड़ाई (आंदोलन) का हश्र रामदेव के आंदोलन की तरह न हो.
आ़खिर क्या वजह रही कि अन्ना हज़ारे एंड टीम लोकपाल के मुद्दे पर अपनी बात सरकार से मनवा पाने में असफल रही, क्यों सरकार जन लोकपाल के महत्वपूर्ण प्रावधानों से सहमत नहीं हुई, अन्ना टीम की किस ग़लती ने महीनों की मेहनत पर पानी फेर दिया और क्या दोबारा अनशन की चेतावनी का असर देखने को मिलेगा?
ग्रामीण भारत ग़ायब है
अन्ना के पूरे आंदोलन को देखने पर पता चलता है कि इसमें शहरी मध्य वर्ग और युवा ज़्यादा संख्या में शामिल हैं. इस आंदोलन में भारत के 6 लाख से ज़्यादा गांवों का प्रतिनिधित्व शायद ही दिखता है. इस आंदोलन से किसानों, मज़दूरों एवं आदिवासियों की उपस्थिति नदारद है यानी अन्ना टीम अपने आंदोलन में ग्रामीण भारत की भागीदारी की ज़रूरत नहीं समझती. शायद तभी इसके लिए वह अपनी तऱफ से कोई कोशिश करती नहीं दिख रही है.
फेसबुकिया क्रांति का भरोसा
इंडिया अगेंस्ट करप्शन के झंडे तले चल रहे इस आंदोलन की झलक आपको सड़क से ज़्यादा इंटरनेट, फेसबुक और एसएमएस पर दिखेगी. फेसबुक और एसएमएस के ज़रिए लोगों को जोड़ने की कोशिश की जा रही है. ज़ाहिेर है, यह नए ज़माने का आंदोलन है तो तरीक़ा भी नया चुना गया है. अब मशाल की जगह मोमबत्ती ने ले ली है. आंदोलन की गति सड़क से ज़्यादा इंटरनेट, फेसबुक और एसएमएस के सहारे तेज़ करने की कोशिश की जा रही है. इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन सोचने की बात यह है कि इस टेक्नोलॉजी की पहुंच किस तक है और कहां तक है. इसका सीधा अर्थ है कि इस आंदोलन के एजेंडे में गांव-देहात के लोगों की सहभागिता की बात शामिल ही नहीं थी.
इस आंदोलन में भारत के 6 लाख से ज़्यादा गांवों का प्रतिनिधित्व शायद ही दिखता है. इस आंदोलन से किसानों, मज़दूरों एवं आदिवासियों की उपस्थिति ग़ायब है यानी अन्ना टीम अपने आंदोलन में ग्रामीण भारत की भागीदारी की ज़रूरत नहीं समझती.
विकल्प देने में असफल
अन्ना ने राजनीति और राजनेताओं को भ्रष्ट कहा, गंदा बताया, लेकिन उसका विकल्प क्या हो सकता है, वह यह नहीं बताते. अन्ना टीम कहती है कि अगर कांग्रेस जन लोकपाल का विरोध करे तो जनता उसे वोट न दे. अगर भाजपा जन लोकपाल का विरोध करे तो जनता उसे वोट न दे. अब सवाल यह है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में अगर कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही पार्टियां जन लोकपाल का विरोध करती हैं तो जनता फिर किसे वोट दे?
मज़बूत संगठन का अभाव
अन्ना और उनकी टीम ने अपने आंदोलन के पहले और बाद में भी जिस एक मुद्दे पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया, वह था एक मज़बूत संगठन का निर्माण. पूरा आंदोलन शहरी मध्य वर्ग, वह भी कुछ चुनिंदा शहरों तक सीमित रहा. इसमें भी मीडिया की भूमिका ज़्यादा रही. जिन शहरों में आंदोलन की गूंज पहुंची, लोग इकट्ठा हुए. वहां इस टीम के साथ कुछ स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता जुड़े हुए थे. और ये लोग भी स्वत: स्फूर्त या मीडिया के ज़रिए ही इस आंदोलन से जुड़े, न कि अन्ना टीम ने उन्हें अपने साथ जोड़ने की कोई कोशिश की थी और अब भी कोई ऐसी कोशिश होती नहीं दिख रही है. अन्ना टीम यह मानकर चल रही है कि मीडिया खुद जनता को उनके साथ जोड़ देगा.
ज्वाइंट कमेटी की मांग बेवकू़फी
क्या अन्ना टीम यह मानकर चल रही थी कि वह सरकार से अपनी मांगें मनवा लेगी, आखिर इस विश्वास की वजह क्या थी? जंतर-मंतर पर अनशन के पहले दिन ही अन्ना समर्थकों ने नेताओं के साथ जो सलूक किया था, उसे देखते हुए एक भी कांग्रेसी नेता जंतर-मंतर पर नहीं पहुंचा. अन्ना को जब नेताओं से इतनी ही चिढ़ थी तो फिर वह कैसे उन्हीं नेताओं के साथ कमेटी में बैठने को राज़ी हो गए, उन्होंने कैसे यह विश्वास कर लिया कि ये नेता उनके कहे मुताबिक़ एक अच्छा जन लोकपाल बिल बना देंगे? ज़ाहिर है, ज्वाइंट ड्राफ्ट कमेटी की मांग करके अन्ना टीम जनता से मिले समर्थन का सही इस्तेमाल कर सकने में असफल साबित हुई.
कमेटी से विपक्ष ग़ायब
अन्ना टीम की शायद यह सबसे बड़ी ग़लती थी कि उसने ज्वाइंट ड्राफ्ट कमेटी में न तो अपनी ओर से और न सरकार की ओर से विपक्ष के किसी नेता को शामिल कराया. अगर अन्ना अपनी ओर से ही विपक्ष के नेता को कमेटी में शामिल करते तो शायद उन्हें आज यह दिन नहीं देखना पड़ता. फिर लोकपाल पर विपक्ष का रु़ख भी तुरंत पता चल जाता.
नेताओं से दुर्व्यवहार
लोकपाल ड्राफ्ट पर अब कैबिनेट और राजनीतिक दलों के बीच चर्चा होनी है यानी अब लोकपाल बिल को संसद और राजनीति के गलियारे से निकल कर ही जनता के बीच जाना है और यही लोकतांत्रिक व्यवस्था भी है. लेकिन अन्ना और उनकी टीम शायद इस सच को जानते हुए भी झुठलाने की कोशिश कर रही थी. इसी का नतीजा था कि अन्ना ने अपने मंच पर किसी नेता को नहीं आने दिया और जिसने आने की कोशिश भी की, उसे बड़े बेआबरू होकर वहां से जाना पड़ा. हालांकि यहां भी वही हाल था कि गुड़ खाएं, गुलगुले से परहेज़. राजघाट पर अन्ना के एक दिवसीय अनशन में सीपीआई (माले) की एक महिला नेता को ज़बरदस्ती मंच से उतारा गया, लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी की ही इकाई आइसा के सदस्यों को मंच पर बुलाकर उनसे गाना गवाया गया और बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा के राजा बुंदेला को मंच पर आने दिया गया.
मांग ठुकराने के बावजूद बैठक में हिस्सा
एक अहम सवाल यह है कि जब दूसरी-तीसरी बैठक के दौरान ही अन्ना टीम को यह पता लग गया कि सरकार की मंशा एक अच्छा लोकपाल क़ानून बनाने की नहीं है और सिविल सोसायटी की मांग को लगातार अनसुना किया जा रहा है तो फिर बैठक में जाने की ज़रूरत क्या थी? क्यों नहीं उसी व़क्त ये सारे लोग कमेटी से इस्ती़फा देकर जनता के बीच गए? क्या इन्हें भरोसा था कि अंतिम बैठक तक ये सरकार को समझा पाने में सफल हो जाएंगे?
सदस्यों का विवादास्पद चयन
जब ज्वाइंट कमेटी में सिविल सोसायटी की ओर से सदस्यों के चयन की बारी आई, तब भी अन्ना टीम ने अपनी मर्ज़ी चलाई. इस प्रक्रिया में इन लोगों की ओर से न तो जनता का मत जानने की कोशिश हुई और न जनता को इसमें शामिल किया गया. मंच से जिस तरह 5 नामों की घोषणा हुई, वह ऐसा लग रहा था मानों ये पांच नाम पहले से तय थे और बस इन नामों की घोषणा एक औपचारिकता भर थी. चूंकि जनता जीत के उत्साह में थी, इसलिए उस व़क्त किसी ने इस पर सवाल नहीं उठाया. लेकिन यह तर्क कि इन्हीं पांच लोगों ने जन लोकपाल बिल को ड्राफ्ट किया है इसलिए यही नाम उचित हैं, कहीं न कहीं देश के बाक़ी ईमानदार और बुद्धिजीवी लोगों का उपहास ही था. बाद में भूषण पिता-पुत्र को लेकर जिस तरह की बातें सामने आईं, वे कहीं न कहीं अन्ना टीम के लिए भारी ही साबित हुईं. इस वजह से सरकार को अन्ना टीम पर हमला बोलने का मौक़ा भी मिला.
विरोधाभासी बयानों वाली टीम
रामदेव का सत्याग्रह 4 जून को शुरू हुआ. यह पहले से तय था कि अन्ना 5 जून को रामलीला मैदान पहुंचेंगे, लेकिन 4 जून को ही स्वामी अग्निवेश का बयान आता है कि रामदेव के मंच पर सांप्रदायिक लोग आ रहे हैं. अब अन्ना कहते हैं कि वहां जाने से पहले हम अपनी टीम के लोगों से बातचीत करेंगे. टीम के एक सदस्य संतोष हेगड़े अन्ना को दूसरी बार अनशन न करने की सलाह देते हैं. ज्वाइंट कमेटी की बैठकों के अलावा हेगड़े शायद ही कभी अन्ना की प्रेस कांफ्रेंस में दिखे हों. कुल मिलाकर ऊपर से एक दिखती अन्ना टीम के सदस्यों के बीच विचार और बयान के स्तर पर एकता का अभाव है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें