संजय सक्सेना

एक तरफ संस्थान में कार्यकारी अध्यक्ष की कुर्सी पर साहित्यकारों के मनोनयन की परम्परा थी तो दूसरी तरफ निदेशक का पद काफी सोच-विचार के बाद आईएएस अधिकारी के लिए रखा गया था ताकि इन अधिकारियों के माध्यम से संस्थान और सरकार के बीच सामजस्य बना रहे। लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यहां सेवा करने के मौकों को आईएएस अधिकरियों ने सजा से रूप में ही लिया। यहां अधिकारियों की पोस्टिंग के साथ ही उनके ट्रांसर्फर की चर्चा शुरू हो जाती थी।एक-दो को छोड़कर कोई भी निदेशक साल भर भी नहीं टिका। 30 जून 2009 से कार्यकारी पूर्णकालीन अध्यक्ष और 26 अप्रैल 2010 से निदेशक का पद खाली पड़ा है। जिस कारण यहां का काम सुचारू रूप से नहीं चल पा रहा है। आईएएस अधिकारी और प्रमुख सचिव (भाषा) अशोक घोष ही इस समय निदेशक और कार्यकारी अध्यक्ष का कामकाज देख रहे हैं, लेकिन काम की अधिकता के कारण वह यहां समय कम ही दे पाते हैं। जिस कारण भी संस्थान का काम प्रभावित हो रहा हैं।साधारण सभा और कार्यकारिणी समिति भंग पड़ी है। हिंदी संस्थान में अध्यक्ष और निदेशक की नियुक्ति माया सरकार द्वारा नहीं किए जाने से क्षुब्ध होकर कुछ लोगों ने अदालत का दरवाजा भी खटखटा दिया तो इसी साल फरवरी के महीने में डा.नूतन ठाकुर, निर्मला राय,डा.प्रणव कुमार मिश्रा,राजेन्द्र प्रसाद सिंह आदि की याचिका पर इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने राज्य सरकार को हिंदी संस्थान में पूर्णकालीन कार्यकारी अध्यक्ष एवं निदेशक की नियुक्ति करने के साथ-साथ साधारण सभा और कार्यकारिणी समिति के गठन का आदेश जारी किया था, लेकिन उस पर अभी तक अमल नहीं हो पाया है।इसके साथ ही हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने हिन्दी संस्थान द्वारा दिए जाने वाले अनेक पुरस्कारों के कई सालों से वितरित नहीं किए जाने पर भी नाराजगी जताई,लेकिन अदालती आदेश पर काम करने की बजाए बचाव के नए रास्ते तलाशे जाने लगे। मुलायम राज में तो यहां थोड़ा-बहुत काम हुआ भा लेकिन माया राज में तो हिन्दी संस्थान की तरह नजर उठा कर देखने का भी समय किसी के पास नहीं है।
मंहगाई बढ़ रही है,लेकिन यहां आने वाली मदद में लगातार कटौती की जा रही है। आर्थिक तंगी के कारण के कारण संस्थान को अपनी गुणवत्ता और कार्यक्रमों की संख्या घटा कर समझौते करने पड़ रहे हैं। ज्यादा पीछे न जाकर बात सत्तारूढ़ माया सरकार की ही कि जाए तो यह देखकर आश्चर्य होता है कि पिछले तीन सालों से बसपा सरकार इसका बजट कम करती जा रही है। संस्थान को मिलने वाले पैसा और संस्थान के खर्चो के बीच में विरोधाभास की स्थिति यह है कि सरकारी मदद हिन्दी संस्थान के लिए ‘ ऊॅेट के मुंह में जीरा ‘ साबित हो रही है। चौतरफा मंहगाई बढ़ रही है लेकिन यहां का योजनागत बजट 2007-2008 और 2008-2009 के लिए 16 लाख रूपए था जो 2009-2010 के लिए घटा कर मात्र छह लाख रूपए कर दिया गया। इस वर्ष इसे और भी कम कर दिया गया।
हिन्दी साहित्यकारों की रीढ़ माना जाने वाला यह संस्थान आज स्वयं रीढ़ विहीन हो गया है। संस्थान का पद्ेन अध्यक्ष मुख्यमंत्री होता है। इस लिए समय-समय पर यहां राजनीति भी देखने को मिलती रहती हैं। कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री सी बी गुप्ता ने अपने शासनकाल में 07 अप्रैल 1967 को इस संस्थान का शिलान्यास किया था।इसी लिए गैर कांग्रेसी सरकारों ने इसे कांग्रेसी संस्था के रूप में अधिक महत्व दिया। शुरूआती दौर में हिन्दी संस्थान ने न केवल देश में बल्कि देश से बाहर भी काफी नाम कमाया।हिन्दी संस्थान की नींव पड़ने के करीब पन्द्रह साल बाद इस परिसर में एक अगस्त 1982 (राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन की जन्म शताब्दी के मौके पर) को तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीपति मिश्रा ने राजर्षि की प्रतिमा का यहां स्थापना करने के साथ ही हिन्दी संस्थान का नया नाम ‘राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन हिन्दी संस्थान’ करने की घोषणा की। राजर्षि टंडन का हिन्दी प्रेम जगजाहिर था।वह हिन्दी को देश की आजादी के पहले ”आजादी प्राप्त करने का” और आजादी के बाद ”आजादी बनाए रखने का साधन” मानते थे। हिन्दी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने में राजर्षि की महत्वपूर्ण भूमिका के कारण ही उनका नाक हिन्दी संस्थान से जोड़ा जाना गौरव की बात कही जाने लगी। वह देश की धरोहर तो थे ही उत्तर प्रदेश के गंगा किनारे जिला प्रयाग में पैदा होने के कारण उत्तर प्रदेश के प्रति उनका अतिरिक्त लगाव था। यही वजह थी उनकी विचारधारा कांग्रेसी होने के बाद भी किसी ने हिन्दी संस्थान का नामकरण उनके नाम पर किए जाने का विरोध नहीं किया। इसमें शायद ही किसी प्रकार का मतभेद हो कि ज्ञान और साहित्य की ज्योति फैलाने के लिए स्थापित संस्थान का अतीत शानदार रहा है,मगर कई परेशानियों और संसाधनों की कमी से जूझ रहे इस संस्थान का भविष्य भी ऐसा ही रहेगा, इसकी संभावनाएं बहुत कम हैं।
बात संस्थान के अतीत की कि जाए तो हिन्दी संस्थान को अपनी सेवाएं देने वाले बाल मुकुंद कहते हैं संस्थान ने कई दुर्लभ पाण्डुलिपियों का प्रकाशन किया है। संस्थान द्वारा प्रकाशित कुछ पुस्तकों की रिकार्ड बिक्री हुई,जो लम्बे समय तक चर्चा में रही। इनमें मुख्य रूप से ‘भारतीय इतिहास कोश’,’ हिंदू धर्मकोश और ‘उर्दू-हिन्दी शब्दकोश’ ऐसी किताब हैं जिसकी हर वर्ष पांच हजार से अधिक प्रतियां बिकती हैं और इसके अब तक 11 से अधिक संस्करण निकल चुके हैं। एक समय था जब संस्थान साहित्य, कला, विज्ञान और हिन्दी के प्रचार-प्रसार में योगदान करने वालों को सम्मानित करने के लिए 87 पुरस्कार (52 लाख रूपए की धनराशि से) वितरित करता था, जिसमें साहित्य के क्षेत्र के ‘भारत भारती सम्मान’, ‘हिन्दी गौरव सम्मान, ‘साहित्य भूषण सम्मान’, ‘लोहिया साहित्य सम्मान’ और ‘महात्मा गांधी सम्मान,अवन्ती बाई, साहित्य भूषण सम्मान प्रमुख थे। पत्रकारिता के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए संस्थान ‘गणेश शंकर विद्यार्थी’,पत्राकारिता भूषण सम्मान तथा पत्रकारिता के अतिरिक्त भूषण सम्मान, बालकृष्ण भट्ट सम्मान,प्रसार भारतीय हिंदी गौरव सम्मान, हिंदी विदेश प्रसार सम्मान आदि पुरूस्कार अपनी लोकप्रियता के कारण हमेशा चर्चा में रहे। आज की तारीख में उक्त में से मात्र तीन सम्मान ही जारी रह गए हैं। इसमें साहित्य का सबसे बड़ा सम्मान ‘भारत भारती’, ‘हिन्दी गौरव और महात्मा गांधी साहित्य सम्मान हैं। इसके अलावा साहित्य भारती और बालवाणी पुस्तिका का प्रकाशन कुछ हद तक संस्थान की साख बचाए है। हिन्दी संस्थान पर मंडराते काले बादलों से साहित्यकार तो परेशान हैं लेकिन प्रदेश सरकार को कुछ दिखाई नहीं दे रहा है।
सम्मान पर संकट
हमेशा विवादों में रहने वाला उत्तार प्रदेश हिन्दी संस्थान एक बार फिर संकट में फंस गया लगता है। यह संकट प्रदेश का सबसे बड़े पुरस्कार ‘भारत-भारती’ के लिये चुने गए साहित्यकार अशोक वाजपेयी के पुरस्कार वितरण समारोह में भाग लेने में अनिच्छा जाहिर करने से पैदा हुए है। अशोक वाजपेयी ने संस्थान के पुरस्कारों की संख्या 87 से घटा कर तीन किये जाने के फैसले पर पुनर्विचार के सुझाव पर माया सरकार से कोई जवाब नहीं मिलने और पुरस्कार वितरण समारोह में मुख्यमंत्री या राज्यपाल के शिरकत नहीं करने की कथित सूचना को अपना अपमान करार दिया। श्री वाजपेयी ने बताया कि उन्होंने प्रदेश के भाषा विभाग के प्रमुख सचिव अनिल घोष को पत्र लिखकर सुझाव दिया है कि उनकी पुरस्कार राशि उन्हें डाक से भेज दी जाए और अगर इसमें कोई अड़चन है तो सरकार उस धनराशि को अपने पास रख ले। इस बारे में घोष से बात करने पर उन्होंने कहा कि उनका इस मामले पर किसी तरह की टिप्पणी करना उचित नहीं होगा। वाजपेयी ने बताया कि संस्थान के पुरस्कार प्रभारी हरीश नारायण सिंह ने 18 फरवरी को उनसे फोन पर बातचीत में पुरस्कार वितरण समारोह के लिये उपयुक्त तिथि पूछी थी। साथ ही उन्होंने यह भी बताया था कि समारोह में मुख्यमंत्री मायावती या राज्यपाल बीएल जोशी के बजाय प्रदेश सरकार के मंत्रिमण्डल के कोई सदस्य शिरकत करेंगे।
श्री वाजपेयी ने कहा कि मुख्यमंत्री और राज्यपाल को साहित्य के क्षेत्र में दिये जाने वाले प्रदेश के सबसे बड़े पुरस्कार के वितरण समारोह में शामिल होने की अगर फुरसत नहीं है तो यह साहित्यकारों का अपमान है। वाजपेयी का कहना था कि उन्होंने गत छह जनवरी को हिन्दी संस्थान की ओर से पुरस्कारों की घोषणा किये जाने के बाद घोष को पत्र लिखकर कहा था कि पुरस्कार की संख्या को 87 से घटाकर तीन कर दिये जाने पर पुनर्विचार किया जाए लेकिन उन्हें इस पत्र का जवाब नहीं मिला। गौरतलब है कि हिन्दी संस्थान ने गत छह जनवरी को डॉक्टर वाजपेयी को वर्ष 2008 के भारत भारती पुरस्कार से सम्मानित करने का ऐलान किया था। इस पुरस्कार के तहत दो लाख 51 हजार नकद तथा प्रशस्ति पत्र दिया जाता है। इसके अलावा एसआर यात्री को महात्मा गांधी पुरस्कार जबकि भवदेव पाण्डेय को हिन्दी गौरव अवार्ड देने की घोषणा की गई थी।
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