चैनल के पत्रकारों का भी आम श्रमिकों से कम शोषण-उत्पीड़न नहीं हो रहा है
Uploaded by Amalendu on July 12th, 2011 | No Comments
संगठित और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के बीच सिर्फ अब कहने भर को अंतर रह गया है. माना जाता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों में श्रमिकों को बेहतर वेतन और सेवाशर्तों के तहत काम करने का मौका मिलता है लेकिन सच यह है कि उनमें और देशी कंपनियों में कोई खास फर्क नहीं है.
उदाहरण के लिए, मारुति सुजूकी फैक्टरी को ही लीजिए जोकि एक जापानी बहुराष्ट्रीय कंपनी है. लेकिन तथ्य यह है कि मारुति सुजूकी में लगभग ८५ फीसदी श्रमिक ठेके पर हैं जिन्हें वे सुविधाएँ और लाभ नहीं मिलते जो स्थाई श्रमिकों को मिलते हैं या मिलने चाहिए. यहाँ तक कि मारुति सुजूकी का प्रबंधन उन्हें यूनियन बनाने का अधिकार भी देने को तैयार नहीं है. आश्चर्य नहीं कि श्रमिकों की हड़ताल की सबसे बड़ी मांग अपनी यूनियन को मान्यता देने और ११ श्रमिक नेताओं की मुअत्तली को रद्द करने की थी.
मारुति सुजूकी ऐसी अकेली बहुराष्ट्रीय कंपनी नहीं है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, नोकिया में ५० फीसदी और फोर्ड मोटर्स में ७५ फीसदी श्रमिक ठेके पर हैं. सच यह है कि निजी क्षेत्र की अधिकांश देशी-विदेशी कंपनियों की यही स्थिति है.
दूर क्यों जाएँ, बिना किसी अपवाद के लगभग सभी न्यूज चैनलों में भी ९० से १०० फीसदी टी.वी पत्रकार, एंकर, रिपोर्टर और संपादक ठेके पर हैं. नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं है. किसी को कभी भी निकाला जा सकता है और निकाला जाता है. दो साल पहले आर्थिक मंदी के नाम पर सैकड़ों पत्रकारों की रातों-रात छुट्टी कर दी गई. सेवाशर्तें अमानवीय हैं. काम के निश्चित घंटे नहीं हैं और न छुट्टी की कोई नियमित व्यवस्था है. काम का दबाव और तनाव इस कदर रहता है कि बहुतेरे टी.वी पत्रकार कम उम्र में डायबिटीज से लेकर स्लिप डिस्क के शिकार हो रहे हैं.
आमतौर पर बाहर यह धारणा है कि टी.वी. न्यूज चैनलों में पत्रकारों की संविदा पर नियुक्ति के बावजूद उन्हें बहुत मोटा वेतन मिलता है. लेकिन यह एक बहुत बड़ा मिथक है. सच यह है कि चुनिन्दा चैनलों को छोड़ दिया जाए तो ८० फीसदी न्यूज चैनलों में न सिर्फ वेतन बहुत कम है बल्कि काम की परिस्थितियां भी बहुत दमघोंटू हैं.
अधिकांश चैनलों में पत्रकारों की तनख्वाहों के बीच बहुत ज्यादा अंतर है. चैनलों में शीर्ष पर बैठे चुनिन्दा पत्रकारों को मोटा वेतन दिया जाता है लेकिन दूसरी ओर, निचले स्तर पर पत्रकारों की बड़ी संख्या को बहुत मामूली वेतन मिलता है.
जाहिर है कि न्यूज चैनल कोई अपवाद नहीं हैं. दोहराने की जरूरत नहीं है कि अधिकांश मैन्युफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्र की कंपनियों के अंदर कामकाज की स्थितियां इतनी अमानवीय, दमघोंटू और खतरनाक हैं और प्रबंधन का आतंक इस कदर है कि अकसर वहां श्रमिकों का गुस्सा फूट पड़ता है. कई बार यह गुस्सा हिंसक भी हो उठता है.
स्थिति कितनी विस्फोटक हो चुकी है, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले दो-तीन वर्षों में श्रमिकों और प्रबंधन के बीच हुए टकराव में नोयडा स्थित इटालियन कंपनी ग्रेजियानो ट्रांसमिशन के सी.इ.ओ एल.के चौधरी, कोयम्बतूर की प्राइकोल इंडस्ट्रीज के वाइस प्रेसिडेंट-एच.आर रॉय जार्ज और गाजियाबाद की एलाइड निप्पन के असिस्टेंट मैनेजर जोगिन्दर चौधरी की मौत हो गई जबकि दर्जनों श्रमिक गंभीर रूप से घायल हो गए.
हालाँकि इन हिंसक घटनाओं की न्यूज चैनलों में अच्छी-खासी कवरेज हुई लेकिन रिपोर्टों में जोर श्रमिकों की हिंसा पर था. इन रिपोर्टों में श्रमिकों में बढती हिंसा, अराजकता और कानून हाथ में लेने की प्रवृत्ति के साथ-साथ औद्योगिक अशांति को उठाया गया था.
प्राईम टाइम चर्चाओं में सबसे अधिक चिंता श्रमिकों की बदहाल स्थिति पर नहीं बल्कि इन घटनाओं से विदेशी निवेश पर पड़नेवाले कथित नकारात्मक प्रभाव पर व्यक्त की गई. अधिकांश चैनलों ने इस बात की जाँच-पड़ताल करने की कोशिश नहीं की कि यह स्थिति क्यों आई? श्रमिकों की मांगें क्या थीं और फैक्ट्री में उनकी स्थिति क्या थी?
जाहिर है कि यह चैनलों के लिए सिर्फ एक और सनसनीखेज घटना भर थी और उनके पास अन्य घटनाओं की तरह इन घटनाओं के भी तह में जाने की फुर्सत और इच्छा नहीं थी. ध्यान देनेवाली बात यह है कि जिस नोयडा में अधिकांश न्यूज चैनलों के दफ्तर हैं, वह एक बड़ा औद्योगिक क्षेत्र भी है.
लेकिन हैरान करनेवाली बात यह है कि चैनलों पर नोयडा के हजारों श्रमिकों की दास्तानें शायद ही कभी सुनाई देती हैं. न सिर्फ नोयडा बल्कि दिल्ली के ५० किलोमीटर के इर्द-गिर्द नोयडा, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद, गुड़गांव, फरीदाबाद, मानेसर, कोंडली, नरेला, बवाना, सोनीपत आदि इलाके औद्योगिक क्षेत्र हैं जहाँ हजारों फैक्टरियों में लाखों श्रमिक काम करते हैं. इसके बावजूद चैनलों पर वे कभी दिखाई नहीं देते हैं.
इसका मतलब यह हुआ कि अगर आप चैनलों के जरिये दिल्ली और देश को जानते-पहचानते हैं तो संभव है कि आप कभी इस सच्चाई से परिचित न हो पायें कि अकेले राजधानी दिल्ली के बाहरी इलाकों में लाखों मजदूर फैक्ट्रियों में काम करते हैं जिन्हें उनका कानूनी हक भी मयस्सर नहीं है.
चैनलों के जरिये दिल्ली और उसके आसपास के उपनगरों की जो चमकती-दमकती, रंगीन और खुशनुमा छवियाँ हम-आप तक पहुंचती हैं, उससे ऐसा लगता है कि यहाँ दिन-रात रोशन बाज़ार हैं, शापिंग माल्स हैं, दमकता मध्यम और अमीर वर्ग है और कुलांचे भरती अर्थव्यवस्था है. इस खुशनुमा तस्वीर में आप उन लाखों श्रमिकों को शायद ही कभी देखें जो इस बूमिंग अर्थव्यवस्था की नींव में होते हुए भी उसके लाभों से वंचित हैं.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि चैनलों के लिए वे ‘अस्पृश्य’ हैं. नतीजा, वे चैनलों के ‘लोकतंत्र’ से ‘बहिष्कृत’ और उसके परदे से ‘अदृश्य’ हैं. यही नहीं, चैनलों खासकर बिजनेस न्यूज चैनलों पर कभी श्रमिकों की बात होती भी है तो सबसे ज्यादा चर्चा श्रम सुधारों की होती है. इन चर्चाओं में आमतौर पर औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठनों जैसे फिक्की, सी.आई.आई और एसोचैम आदि के प्रतिनिधि, उद्योगपति और नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकार अर्थशास्त्री बुलाये जाते हैं और वे एक सुर में श्रम सुधारों को आगे बढ़ाने की मांग करते हैं.
यहाँ श्रम सुधारों का मतलब श्रमिकों की स्थिति में सुधार से नहीं बल्कि उन श्रम कानूनों को और ढीला, लचीला और उद्योग जगत के अनुकूल बनाने का है जो पहले से ही ठेका, कैज्युअल और दिहाडी व्यवस्था के जरिये बेमानी बना दिए गए हैं.
इस मामले में अधिकांश चैनल अपने मालिकों और बड़े विज्ञापनदाताओं की आवाज़ बन जाते हैं. इस मामले में प्रेस की आज़ादी पत्रकारों की आज़ादी न होकर मालिकों की आज़ादी बन जाती है. हालत का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इन दिनों कुछ टी.वी न्यूज चैनल, अखबार मालिकों की संस्था आई.एन.एस के साथ मिलकर समाचारपत्र और समाचार एजेंसियों के कर्मचारियों और श्रमिकों के लिए गठित न्यायमूर्ति मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों के खिलाफ मुहिम चलाये हुए हैं. उन्होंने सरकार पर जबरदस्त रूप से दबाव बनाया हुआ है कि वह मजीठिया आयोग की सिफारिशों को न माने.
अखबार मालिकों का तर्क है कि जब टी.वी चैनलों के पत्रकारों के लिए सरकार ऐसा कोई वेतन आयोग नहीं गठित करती तो अखबारों के कर्मचारियों के लिए अलग से वेतन आयोग क्यों बनाती है? उनका यह भी कहना है कि अगर यह सिफारिशें मान ली गईं तो समाचारपत्र उद्योग उसका बोझ नहीं उठा पायेगा और बंद होने के कगार पर पहुँच जाएगा. आई.एन.एस ने इसे लेकर एक जबरदस्त प्रचार अभियान छेड दिया है.
मजे की बात यह है कि अखबारों में मजीठिया वेतन आयोग के खिलाफ खूब रिपोर्टें छप रही हैं लेकिन अखबारी श्रमिकों और पत्रकारों का पक्ष पूरी तरह से ब्लैक-आउट कर दिया गया है. यहाँ तक कि पत्रकार और कर्मचारी यूनियनों के आंदोलन और उनके बयानों को भी खुद के अखबारों में जगह नहीं मिल रही है.
यही नहीं, कई बड़े मीडिया समूहों के न्यूज चैनलों में भी मजीठिया वेतन आयोग के खिलाफ इसी तरह से एकतरफा रिपोर्टें दिखाई जा रही हैं. उदाहरण के लिए, टाइम्स समूह के न्यूज चैनल- टाइम्स नाउ में खुद अर्नब गोस्वामी के कार्यक्रम न्यूज आवर में मजीठिया आयोग के खिलाफ एकतरफा रिपोर्ट दिखाई गई.
खुद को अन्याय के खिलाफ सबसे बड़े योद्धा की तरह पेश करने वाले अर्नब गोस्वामी ने बिना किसी हिचक के इस एकतरफा रिपोर्ट को दिखाया. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि चैनलों की कथित आज़ादी वास्तव में किसकी आज़ादी है? इससे यह भी पता चलता है कि चैनलों के लिए देश की इतनी बड़ी श्रमिक आबादी अदृश्य और अस्पृश्य क्यों है?
आश्चर्य नहीं कि बिना किसी अपवाद के अधिकांश चैनलों में श्रमिक मामले कोई अलग और नियमित बीट नहीं है और न ही उसे कवर करने के लिए अलग से कोई रिपोर्टर नियुक्त किया जाता है. यह बात और है कि लगभग सभी चैनलों में मनोरंजन यानी इंटरटेन्मेंट, फैशन, लाइफ स्टाइल आदि कवर करने के लिए खास और आम रिपोर्टरों की भरमार है.
उनके लिए अलग से ब्यूरो है. चैनलों पर नियमित बुलेटिनों के अलावा अलग से आधे-आधे घंटे के कार्यक्रम हैं. लेकिन करोड़ों श्रमिकों के लिए चैनलों के पास आधे घंटे तो छोडिये, एक मिनट का भी समय नहीं है. लेकिन चैनलों के ‘गुड नाईट एंड गुड लक’ जर्नलिज्म से इसके अलावा और अपेक्षा भी क्या की जा सकती है?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें