शंकर शरण
जब एक संवाददाता ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की चार दशक की उपलब्धियों के बारे में प्रश्न पूछा, तो वहाँ के रेक्टर का प्रमुख उत्तर था कि अब तक सिविल सर्विस में इतने छात्र वहाँ से चुने गए। दूसरी कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि वे गिना नहीं पाए जो समाचार में स्थान पा सकती।सरसरी तौर से देखें तो कोई विशेष बात नहीं। विश्वविद्यालय के छात्र नौकरी की तैयारी करेंगे ही। पर जेएनयू मामले में एक असुविधाजनक प्रश्न उठता है। क्या सिविल सर्विस की तैयारी करने के लिए ही यह अति-विशिष्ट विश्वविद्यालय बना था, जिसे देश के संसाधन अति-उदारता से दिए जाते रहे हैं? उसके लिए तो वर्किंग वीमेन हॉस्टल की तर्ज पर ‘नौकरी तैयारी हॉस्टल’ बना देना ही पर्याप्त था, जहाँ शानदार आवास और बढ़िया भोजन मिलता होता! पैसे एक काम के लिए लिए जाएं, जबकि उससे काम दूसरा किया जाए – क्या यह नैतिक है?
जो विश्वविद्यालय ‘उच्च-स्तरीय शोध’ के लिए बना था, जिस पर देश की जनता का अरबों रूपया नियमित खर्च किया जाता है – वह यदि केवल नौकरीकांक्षियों के लिए फर्स्ट-क्लास-फ्री-होटल जैसी चीज में बदल जाए, जहाँ रह कर वे नौकरी, व्यापार, राजनीति, देश-द्रोह समेत विविध धंधों से पैसा या प्रसिद्धि पाने का उपक्रम करें, यह निस्संदेह अनुचित है। ठीक है कि कानूनी दृष्टि से इसे घोटाला नहीं कहा जा सकता। परन्तु उचित और अनुचित का पैमाना केवल कानूनी भर नहीं होता।
कुछ लोग प्रश्न को इस रूप में रखने पर आपत्ति करेंगे। किन्तु जरा सोचें, यदि मँहगे रख-रखाव वाला कोई राष्ट्रीय खेल स्टेडियम केवल रैली या समारोह करने की सर्वोत्तम सुविधा के लिए ही प्रसिद्ध हो, तो क्या यह सार्वजनिक धन का उचित उपयोग कहा जाएगा? इसलिए, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय बनाने के लिए संसद में प्रस्तुत दस्तावेज से मिलाकर देखें कि विश्व-स्तरीय शोध संस्थान बनाने के नाम पर जनता के अरबों रूपयों का क्या उपयोग हुआ है। आरंभ से ही वामपंथी राजनीति के प्रचार का व्यवस्थित, सांगठिक तंत्र ही जेएयू की मुख्य पहचान रही है। इस शुरुआत का श्रेय वहाँ नियुक्त प्रथम प्रोफेसरों को ही है, जिनमें कुछ प्रमुख लोग कम्युनिस्ट पार्टी के थके हुए कार्यकर्ता थे। (राज थापर की आत्मकथा ऑल दीज इयर्स में उनकी जीवंत झलक मिल सकती है)। वस्तुतः उनकी नियुक्तियों से ही वह बौद्धिक गड़बड़ी शुरू हुई थी, जो कुटिल तकनीकों के सहारे एक स्थाई परंपरा बन गई है।
यह कोई संयोग नहीं कि आज तक देश को जेएनयू से किसी चर्चित शोध, अध्ययन, आविष्कार या लेखन संबंधी कोई समाचार सुनने को नहीं मिला। न केवल ज्ञान के किसी क्षेत्र में, बल्कि खेलकूद, रंगमंच, कला या देश के नीति-निर्माण में भी वहाँ से कभी, कोई योगदान नहीं मिला। जबकि पश्चिमी देशों में प्रसिद्ध शोध विश्वविद्यालयों से सामाजिक, वैज्ञानिक, वैदेशिक संबंध आदि क्षेत्रों में ठोस योगदान मिलता है। इसीलिए वे प्रसिद्धि पाते हैं। किन्तु जेएनयू के पास दिखाने के लिए कुछ नहीं है। यहाँ तक कि वहाँ से कोई जानी-मानी शोध-पत्रिका या सामान्य विद्वत् पत्रिका तक प्रकाशित नहीं हो सकी जिसे कोई अध्येता पढ़ना आवश्यक समझे।
यह दुखद स्थिति इसलिए, क्योंकि जहाँ राजनीतिक लफ्फाजी का सर्वाधिकार हो वहाँ गंभीर अध्ययन, लेखन नहीं पनप सकता। इसीलिए केवल वामपंथी और भारत-विरोधी राजनीति के समाचारों से ही जेएयू की शोहरत होती है। पिछला नवीनतम समाचार भी यही आया था कि मोहाली के भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच के दौरान भारत के विरुद्ध नारे लगाए गए। बाद में भारत की जीत पर खुशी मनाने वालों पर हमला किया गया गया। उससे दो सप्ताह पहले ही वहाँ अशोक स्तंभ वाला राष्ट्रीय-चिन्ह जूते के नीचे मसले जाते पोस्टर प्रसारित किए गए। वहीं के मंच से अंरुंधती राय ने भारत के विरुद्ध अपना नया विषवमन भी किया। जेएनयू से से सैदव ऐसे ही समाचार आते हैं।
उदाहरणार्थ, वहाँ कारगिल यु्द्ध लड़ने वाले वीर सैनिकों को इसलिए पीटा जाता है क्योंकि उन्होंने वहाँ मुशायरे में चल रही भारत-निंदा का विरोध किया। नक्सलियों द्वारा सत्तर सुरक्षा-बल जवानों की एकमुश्त हत्या किए जाने पर वहाँ जश्न मनाया गया। जेएनयू में हर तरह के, देशी-विदेशी, भारत-निंदकों को सम्मानपूर्वक मंच मिलता है। किन्तु देश के गृह मंत्री को बोलने नहीं दिया जाता। यहाँ तक कि उन के आगमन तक के विरुद्ध आंदोलन होता है! इसलिए, जेएनयू में भारत-विरोधी राजनीति अभिव्यक्ति स्वंतत्रता का मामला नहीं है। क्योंकि स्वतंत्र या देशभक्त स्वरों को वहाँ वही अधिकार नहीं दिए जाते!
यह कोई आज की बात नहीं। तीस वर्ष पहले भी जेएनयू में देश के प्रधानमंत्री को बोलने नहीं दिया जाता था, जबकि लेनिन, स्तालिन, माओ और यासिर अराफात के लिए प्रोफेसर और छात्र संगठन मिलकर आहें भरते थे। वहाँ समाज विज्ञान और मानविकी के रिटायर्ड प्रोफेसरों के संस्मरण प्रमाण हैं कि ‘जेएनयू कल्चर’ के नाम पर वे ‘स्तालिन सही थे या त्रॉत्सकी’ पर ‘रात भर चलने’ वाली बहसों के सिवा कुछ याद नहीं कर पाते। वहाँ से साल-दर-साल सिविल सर्विस के आकांक्षियों को मिलने वाली सुविधा और मूढ़ रेडिकलिज्म के फैशन से यह कड़वी सचाई छिपी रही कि विद्वत-उपलब्धि के नाम पर उन प्रोफेसरों के पास भी कहने के लिए कुछ नहीं है।
शोध का हाल यह है कि अधिकांश प्रोफेसर अपने शोधार्थियों के नकली या सतही काम को इसलिए तरह देते हैं कि वह सिविल सर्विस की तैयारी कर रहे हैं। यानी, कथित शोधार्थी जैसे-तैसे कुछ पन्ने बीच-बीच में लिख कर अपने प्रोफेसरों को देते हैं। जिसके आधार पर उन्हें ‘संतोषजनक’ कार्य का अंक मिलता है। उस सतहीपन या निरर्थकता को प्रोफेसर जान-बूझकर नजरअंदाज करते हैं ताकि कथित शोधार्थियों को साल-दर-साल हॉस्टल की सुविधा मिलती रहे! जैसे ही कोई नौकरी मिली, कई एम.फिल. या पीएच.डी छात्र अपने कथित शोध को वहीं छोड़ कर चलते बनते हैं। इस प्रकार, प्रति छात्र जो लाखों रूपये ‘शोध अध्ययन’ करने के नाम पर खर्च हुए, वह सीधे पानी में जाते हैं। जो कथित शोध पूरे भी होते हैं, वह भी केवल उसी विश्वविद्यालय की अलमारियों में जमा होने के सिवा कभी, किसी काम नहीं आते। कोई न उन्हें पढ़ता है, न खोजता है, क्योंकि सबको मालूम है कि उसमें कोई ऐसी चीज नहीं, जो पहले ही उपलब्ध न थी।
एसोसियेशन ऑफ इंडियन यूनिवर्सिटीज की केंद्रीय पत्रिका ‘यूनिवर्सिटी न्यूज’ में प्रकाशित एक आकलन के अनुसार, हमारे विश्वविद्यालयों में सर्वोच्च शोध-डिग्री के लिए हो रहे काम की हालत यह है कि 80 % पीएच.डी. थीसिस “नकली”, “कूड़ा” और “दूसरों की नकल” होते हैं। अन्य विश्वविद्यालयों और जेएनयू में अंतर इतना भर है कि यहाँ वैसी ही एक कूड़ा थीसिस लिखने के लिए जनता का चार गुना धन नष्ट होता है! कम से कम समाज विज्ञान और मानविकी में स्थिति यही है।
यदि शोध-छात्रों का हाल यह है, तो उन के अधिकांश प्रोफेसरों की हालत भी लगभग सामानांतर है। कई महत्वाकांक्षी राजनीतिक सरगर्मियों में ही अधिक समय देते हैं। कुछ अन्य विद्वत् खानापूरी करते हैं। एक केंद्रीय शिक्षा संस्थान के निदेशक के अनुसार, जिन्हें यूजीसी और विविध उच्च-शोध संस्थानों द्वारा स्वीकृत किए जाने वाले शोध-प्रोजेक्टों की पर्याप्त जानकारी है, “अनेक प्रोफेसरों ने शोध के नाम पर एक ही चीज को बार-बार, और भिन्न-भिन्न संस्थाओं के आर्थिक सहयोग से करने की आदत बना ली है।” कहें कि जेएनयू के सबसे प्रसिद्ध इतिहास विभाग के प्रोफेसर ही इस के अच्छे उदाहरण हैं। उनके अलग-अलग संपूर्ण लेखन का सार-संक्षेप मात्र एक-एक पृष्ठ में लिखा जा सकता है। क्योंकि उनमें शोध के बजाए राजनीतिक संदेश देने की केंद्रीयता और अधीरता रही है। सोवियत समाज विज्ञान पुस्तकों की तरह हर नई पुस्तक में एक ही पुरानी बात।
जेएनयू परिसर में मौजूद सारी पुस्तक दुकानें इसकी जीवंत प्रमाण हैं कि वहाँ केवल नौकरी की तैयारी या राजनीतिबाजी होती हैं। दुकानें लगभग संपूर्णतः विविध प्रतियोगिता परीक्षा संबंधी नोट, कुंजिका या फिर हर तरह के वामपंथी साहित्य से अटी रहती हैं। इतना ही नहीं, उन में इतिहास, राजनीति, साहित्य, दर्शन, अर्थशास्त्र आदि संबंधी प्रकाशन देखें तो लगेगा यह वर्ष 2011 नहीं, 1980 ई. है! आज भी जेएनयू की सभी दुकानों में वही रूसी, चीनी, यूरोपीय कम्युनिस्ट पुस्तक-पुस्तिकाएं, जीवनियाँ, पर्चे, आदि भरे हए हैं जो तीस वर्ष पहले थे। वहाँ सजी ताजा हिन्दी पत्रिकाएं प्रायः केवल विभिन्न कम्युनिस्ट गुटों के प्रकाशन हैं, जिन में दशकों पुराने मिथ्याचार, कुतर्क और इक्का-दुक्का समाचार मिलाकर ‘विद्वत-विश्लेषण’ किया जाता है। उनमें उन्हीं वामपंथी प्रोफेसरों, प्रचारकों की लफ्फाजियाँ हैं जिसमें दशकों से कोई परिवर्तन नहीं हुआ। बीमारी की हद तक वही दुहराहट बार-बार छापी जाती है, जो बौद्धिक विष की तरह हर साल आने वाले नए छात्रों को छूता है। यही वामपंथी साहित्य ‘अकादमिक’ भी कहा जाता है! समाज विज्ञान और साहित्य के छात्र वही पुस्तकें, पत्रिकाएं पढ़ते या पढ़ने के लिए मजबूर किए जाते हैं। देश भर से प्रति वर्ष यहाँ आने वाले बेचारे भोले युवाओं के लिए चिंतन, मनन हेतु यही सीमित, बासी, भुखमरों सी खुराक है, जो जेएनयू की दुःखद पहचान बन गई है। जिनसे किसी पौष्टिकता की आशा कदापि नहीं की जा सकती। कोई चाहे भी तो समाज विज्ञान विषयों में नए चिंतन, शोध, आदि की प्रेरणा नहीं पा सकता। जेएनयू का वातावरण इस के नितांत विरुद्ध है।
इसीलिए यह विश्वविद्यालय ‘उच्च-शोध’ की आड़ में युवाओं के लिए मुख्यतः किसी नौकरी की खोज या राजनीति में कैरियर बनाने वालों का अड्डा भर बना रहा है। नौकरी की खोज यदि वहाँ का प्रमुख सेक्यूलर कार्य है, जिसे सब की सहानुभूति मिलती है; तो हिन्दू-विरोधी राजनीति वहाँ का प्रमुख मजहबी कार्य है जिसे वहाँ सक्रिय समर्थन है। वैचारिक, पारंपरिक, ढाँचागत समर्थन। हिन्दू-विरोधी, सरकार विरोधी, और प्रायः देश-विरोधी राजनीति का समर्थन। विडंबना यह कि यह सब करते रहने के लिए सारा धन उसी हिन्दू जनता, सरकार और देश से लिया जाता है!
इस प्रकार, सर्वाधिक संसाधन-युक्त इस केंद्रीय विश्व-विद्यालय का पूरा शोध-व्यापार एक दिखावटी काम में बदल कर रह गया है। यह भी एक स्कैम है। एक अपराध। जिस उद्देश्य से जेएनयू की स्थापना हुई थी, वह बहुत पहले कहीं छूट गया। बल्कि उस उद्देश्य से वहाँ कार्य का कभी आरंभ ही नहीं हुआ। यह विश्वविद्यालय केवल विविध रोजगार के लिए प्रयत्न करने और देश-द्रोही राजनीति सीखने-सिखाने के आरामदेह ठिकाने के सिवा शायद ही कुछ रहा है। इसीलिए, जब भी जेएनयू की चर्चा होती है तो गलत कारणों से।
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