शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

अदालत, अधिग्रहण और आम आदमी : सुप्रिम कोर्ट का यह फैसला ऐतिहासिक है




जमीन वह संपत्ति है, जो एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को बस हस्तांतरित करती है यानी कोई इसका मालिक नहीं होता. हां, केयर टेकर कह सकते हैं. ज़मीन और किसान के बीच कुछ ऐसा ही संबंध था. लेकिन 90 के दशक की शुरुआत में उदारीकरण और निजीकरण की आंधी आने के साथ ही ज़मीन और किसान के इस सनातन संबंध को कमज़ोर बनाने का प्रयास किया जाने लगा, जो सरकार, ब्यूरोक्रेसी और उद्योगपतियों की साठगांठ का नतीजा था. कभी सेज के नाम पर, कभी औद्योगिक विकास के नाम पर, टाउनशिप के नाम पर, यहां तक कि सड़क (एक्सप्रेस-वे) बनाने के नाम पर सरकार ने किसानों से उनकी ज़मीन हड़पने का काम किया. सस्ती दरों पर ज़मीन लेकर सरकार पूंजीपतियों को उसे बेचने लगी यानी सरकार, चाहे वह केंद्र की हो या राज्य की, पूरी तरह से प्रॉपर्टी डीलर बन गई. ज़मीन की दलाली होने लगी. हज़ार रुपये प्रति वर्ग मीटर ज़मीन खरीद कर वह बिल्डरों, उद्योगपतियों को दस हज़ार रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से बेचने लगी. पूंजीपति इस ज़मीन से अरबों-खरबों की कमाई करने लगे और इस काम में सरकार की सहायता के लिए अंग्रेजों द्वारा बनाया गया काला क़ानून यानी भूमि अधिग्रहण क़ानून 1894 तो था ही.
न कार्यपालिका, न विधायिका, बस उम्मीद थी तो स़िर्फ न्यायपालिका से और उम्मीद टूटी भी नहीं. एक फैसले से लाखों लोगों के सपने फिर से जिंदा हो गए. अब कंक्रीट के जंगल के बजाय उनके खेतों में फिर से फसलें लहलहाएंगी. ज़मीन और किसान का अटूट रिश्ता फिर से जुड़ जाएगा. इस एक फैसले से यह उम्मीद भी जगी कि सवा सौ साल पुराने और अंग्रेजों द्वारा बनाए गए काले क़ानून के दिन शायद अब लदने वाले हैं.
लेकिन शुक्र मनाइए कि इस देश में एक संस्था ऐसी है, जिसे इस देश के किसानों, आम जनता की चिंता है. धन्यवाद कहिए इस देश की सर्वोच्च अदालत को, जिसके ऐतिहासिक फैसले से न स़िर्फ फौरी तौर पर उत्तर प्रदेश के किसानों के चेहरे पर खुशियां आई हैं, बल्कि यह उम्मीद भी जगी है कि ज़मीन और किसान के बीच के रिश्ते को तोड़ने वाले काले क़ानून से भी निकट भविष्य में मुक्ति मिल सकेगी. दरअसल, उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा में 156 हेक्टेयर ज़मीन के अधिग्रहण के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने साफ-साफ कहा कि उत्तर प्रदेश सरकार ने बिल्डरों को भूमि आवंटन के मामले में क़ानून की अनदेखी की. सरकार के मुताबिक़ अधिग्रहण जल्दी करना जरूरी था, लेकिन अदालत ने इस दलील को मानने से इंकार कर दिया. अदालत का कहना था कि ज़मीन के मालिकों को अपनी बात रखने का मौका दिया जाना चाहिए था.
ज़मीन अधिग्रहण के लिए सरकार ने क्या-क्या हथकंडे अपनाए होंगे, इसका अंदाजा सुप्रीम कोर्ट की उस सख्त टिप्पणी से ही लग जाता है, जिसमें उसने कहा कि सरकार ज़मीन छीनने में लगी है और जिसकी वजह से किसानों की कई पीढ़ियों का जीवन प्रभावित हो रहा है. सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जी एस सिंघवी और न्यायमूर्ति ए के गांगुली की खंडपीठ ने कहा कि जनहित और औद्योगिक विकास के नाम पर किसानों की ज़मीन ली जा रही है, लेकिन यह ज़मीन बिल्डरों को दी जा रही है और इसका आम आदमी की ज़रूरतों से कोई लेना-देना नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने बिना सरकारी अनुमति के ही बिल्डरों के साथ डील करने के लिए ग्रेटर नोएडा इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट अथॉरिटी पर 10 लाख रुपये का जुर्माना भी ठोंका और अथॉरिटी को ग्रेटर नोएडा के शाहबेरी गांव में अधिग्रहीत की गई 157 हेक्टेयर ज़मीन किसानों को वापस लौटाने का आदेश दिया. दरअसल, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पहले ही इस अधिग्रहण को अवैध घोषित कर दिया था. इसके बाद कई बिल्डरों सहित ग्रेटर नोएडा इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट अथॉरिटी और उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को बरक़रार रखा. बहरहाल, ज़मीन अधिग्रहण को लेकर चल रही राजनीति, पदयात्रा, राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के बीच सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के अगले ही दिन एक और ज़मीन अधिग्रहण को रद्द करने का फैसला आ गया. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बुलंदशहर की सिकंदराबाद तहसील में हुए 20 एकड़ ज़मीन के अधिग्रहण को निरस्त कर दिया. यह अधिग्रहण सात साल पहले इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट के नाम पर अर्जेंसी क्लॉज का इस्तेमाल करके किया गया था, लेकिन अब तक उक्त ज़मीन पर एक भी इंडस्ट्री नहीं लगाई जा सकी थी. याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया था कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 4 और 6 को लागू करके भूमि का अधिग्रहण किया गया था और ज़मीन मालिकों को आपत्ति दर्ज कराने का मौक़ा भी नहीं दिया गया.
 इस देश के तीन मुख्य स्तंभों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच फर्क को समझने की जरूरत है. इनकी कार्यशैली, जनता की समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता को समझने की जरूरत है. राजनीति से जुड़े लोग जहां भूमि अधिग्रहण कानून के बहाने सत्ता हासिल करना चाहते हैं, विधायिका सवा सौ साल पुराने काले कानून को अब तक ढोती आ रही है, वहीं न्यायपालिका ने अपने एक आदेश से यह संदेश दे दिया कि आज देश की जनता की सच्ची हिमायती वही है.
ज़ाहिर है, अदालत के इस आदेश के बाद वैसे किसान भी, जिनकी ज़मीन का अधिग्रहण अवैध ढंग से हुआ है, अदालत से न्याय मांग सकते हैं. सुप्रीम कोटर्र् का यह फैसला किसी नजीर से कम नहीं है. इस फैसले से कुछ ही दिनों पहले सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति पी सथाशिवम एवं न्यायमूर्ति ए के पटनायक ने भूमि अधिग्रहण के मसले पर कहा था कि सरकार प्रॉपर्टी डीलर का काम कर रही है. भूमि अधिग्रहण से संबंधित एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को फटकार लगाते हुए कहा था कि अब देश को और नंदीग्राम नहीं चाहिए. सरकारें किसानों की कृषि योग्य ज़मीनें बिल्डरों को देती रहें और हम आंखें मूंदे बैठे रहें, अब ऐसा नहीं होगा. आप एक पक्ष से खेती लायक ज़मीन लेकर दूसरे को दे देते हैं, यह खत्म होना चाहिए. अगर ऐसा नहीं हुआ तो हमें इसमें दखल देना पड़ेगा. इस पीठ ने सरकार से पूछा था कि अधिग्रहीत ज़मीन पर बनने वाले मकान किसके फायदे के लिए हैं, इन्हें कौन बना रहा है, इनकी क़ीमत क्या है?
  • सुप्रीम कोर्ट ने ग्रेटर नोएडा में 156 हेक्टेयर ज़मीन अधिग्रहण को रद्द किया
  • कहा, जनहित के नाम पर किसानों की ज़मीन बिल्डरों को दी जा रही है
  • इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बुलंदशहर के ज़मीन अधिग्रहण को रद्द किया
  • सवा सौ साल पुराना है अंग्रेजों द्वारा बनाया गया भूमि अधिग्रहण क़ानून 1894
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश ऐसे समय में आया, जब इस देश में भूमि अधिग्रहण क़ानून को लेकर काफी गहमागहमी का माहौल है. कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी तो बाकायदा पश्चिमी उत्तर प्रदेश की पदयात्रा पर थे. वह भूमि अधिग्रहण की समस्या को समझने की बात कर रहे थे. उन्होंने किसानों से मानसून सत्र में भूमि अधिग्रहण क़ानून में संशोधन बिल लाने का वायदा भी किया. वहीं विपक्ष के लिए यह एक राजनीतिक स्टंट था. लेकिन यहीं पर राजनीति (एक संस्था के तौर पर) और न्यायपालिका के बीच या कहें कि इस देश के तीन मुख्य स्तंभों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच फर्क़ को समझने की ज़रूरत है. इनकी कार्यशैली, जनता की समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता को समझने की ज़रूरत है. राजनीति से जुड़े लोग जहां भूमि अधिग्रहण क़ानून के बहाने सत्ता हासिल करना चाहते हैं, विधायिका सवा सौ साल पुराने काले क़ानून को अब तक ढोती आ रही है, वहीं न्यायपालिका ने अपने एक आदेश से यह संदेश दे दिया कि आज देश की जनता की सच्ची हिमायती वही है.
राहुल गांधी और विपक्ष को भी इस बात का जवाब देना चाहिए कि क्यों यूपीए-1 के शासनकाल में संशोधित भूमि अधिग्रहण क़ानून संसद से पास नहीं हुआ, क्यों यह संशोधन लोकसभा से पास कर दिया गया था, लेकिन राज्यसभा में जाकर अटक गया? खैर, अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यह आशा की जा सकती है कि सरकार इस बार भूमि अधिग्रहण क़ानून में संशोधन के लिए संसद में फिर से एक बिल लाएगी और इस बार यूपीए सरकार को प्रस्तावित संशोधनों को लेकर ज़्यादा सतर्क रहना होगा, क्योंकि प्रस्तावित संशोधन भी सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के आलोक में ही करने होंगे.

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