गुरुवार, 28 जुलाई 2011

सच की जुबान पर सरकार का पहरा




केंद्र सरकार की इस बेताला धुन पर कई राज्य सरकारें जुगलबंदी कर रही हैं कि माओवादी अमन और तऱक्क़ी के जानी दुश्मन हैं, देश और समाज के लिए सबसे बड़ा ख़तरा हैं. यह न्याय और अधिकार की आवाज़ को कुचल देने का आसान हथियार है. विकास के नाम पर ग़रीब-वंचित आदिवासियों का सब कुछ हड़प लेने की सरकारी मंशा के ख़िला़फ जो खड़ा हो, माओवादी का ठप्पा लगाकर उस पर लाठी-गोली बरसा दो या फिर उसे जेल पहुंचा दो. इस मायने में अगर छत्तीसगढ़ के हालात सबसे ख़राब हैं तो उड़ीसा के हालात भी कोई कम बुरे नहीं. पिछली 27 जनवरी को बुज़ुर्ग मार्क्सवादी-लेनिनवादी नेता गणनाथ पात्रा की गिरफ़्तारी यही बताती है कि छत्तीसगढ़ की तरह उड़ीसा में भी अघोषित आपातकाल लागू है और सच की ज़ुबान पर पहरे हैं.
पूरे राज्य में जारी विस्थापन विरोधी संघर्षों की पहली कतार में शामिल रहे 68 वर्षीय गणनाथ पात्रा का गुनाह यह था कि उन्होंने कोरापुट ज़िले के नारायनपटना ब्लॉक में सक्रिय चेसी मुलिया आदिवासी संघ (सीएमएएस) के पक्ष में खड़े होने और सरकारी दमन का मुखर प्रतिरोध करने का दुस्साहस किया. जबकि राज्य सरकार सीएमएएस को माओवादियों का खुला संगठन करार देकर उसके नेतृत्व का सफाया कर देने की तैयारी में है. उड़िया में चेसी मुलिया मतलब मज़दूर किसान.
एक अनुमान के मुताबिक़, केवल उड़ीसा में सकल घरेलू उत्पाद के दोगुने मूल्य क़रीब 40 ख़रब रुपये के बॉक्साइट का भंडार है और उसे निचोड़ने के लिए कंपनियां लार टपका रही हैं. कोरापुट ज़िले में भी बॉक्साइट की खानें हैं, जिनका दोहन करने के लिए आदित्य बिड़ला की तीन कंपनियां जुटी हुई हैं. इसके लिए आदिवासियों की ज़मीन हड़पने की मुहिम जारी है.
फिलहाल, पिछले नवंबर माह से नारायनपटना में भय और असुरक्षा का माहौल है. पूरे ब्लॉक को लगभग सील कर दिया गया है. पुलिस और सुरक्षाबल सीएमएएस के लोकप्रिय नेता निचिका लिंगा एवं उनके साथियों की जान के पीछे हैं. ऐसे में सीएमएएस के अगुवा भूमिगत हैं. निचिका ने किशोरावस्था में बंधुआ मज़दूर की त्रासदी झेली और कच्ची उम्र में इस क्रूर सामंती प्रथा के ख़िला़फ बग़ावत करने का भी जोख़िम उठाया. कहते हैं कि दुखियारों को उनके दु:ख जोड़ते हैं. निचिका की पहल रंग लाई. वंचना और अत्याचार सहने की नियति को चुनौती देने के लिए ग़रीब आदिवासी जुटने लगे. इस तरह सीएमएएस का जन्म हुआ.
निचिका एवं उनके साथियों ने महसूस किया कि शराबखोरी की लत आदिवासियों को और पीछे ढकेलने का काम कर रही है. सीएमएएस ने शराब के ख़िला़फ मोर्चा जमाया और तीन साल पहले पूरे इलाक़े को शराब की भट्ठियों से आज़ाद करा दिया. इससे शराब के सौदागरों और पुलिस की कमाई का ज़रिया छिन गया. राज्य में कहने को यह क़ानून लागू है कि आदिवासियों की ज़मीन ग़ैर आदिवासियों के हाथों में नहीं जा सकती. सीएमएएस पिछले लगभग दस सालों से आदिवासियों की ज़मीन लौटाए जाने की लड़ाई लड़ रहा था, लेकिन संवैधानिक तरीक़े बेनतीजा निकले. आख़िरकार सीएमएएस के झंडे तले
हज़ारों आदिवासियों ने अपने परंपरागत हथियारों से लैस होकर पिछले साल अपै्रल में धावा बोला और दो हज़ार एकड़ ज़मीन ग़ैर आदिवासियों के क़ब्ज़े से आज़ाद कराकर भूमिहीन आदिवासियों के बीच बांट दी. उस पर धान की रोपाई भी कर दी गई. संगठन ने जागरूकता पैदा की और यह सुनिश्चित किया कि खेती में रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों का इस्तेमाल कतई न किया जाए. इसका उत्साहजनक नतीजा सामने आया.
उड़ीसा के ज़्यादातर इलाक़े अकाल की चपेट में हैं. इस उदास-निराश माहौल के बीच नारायनपटना ब्लॉक से यह अच्छी ख़बर आई कि वहां धान की फसल ख़ूब लहलहाई. शराब बंदी ने आदिवासियों को जगाने और उनकी महिलाओं में ताक़त भरने का काम किया. ज़मीन पर आदिवासियों का क़ब्ज़ा सीएमएएस के बढ़ते प्रभाव का संकेत था. लेकिन, फसल की कटाई का समय आया तो इस ख़ुशखबरी को रौंदते हुए ऑपरेशन ग्रीन हंट की दस्तक आ धमकी. खड़ी फसल पर ज़मीन के अवैध क़ब्ज़ेदार रहे ग़ैर आदिवासियों की नज़र गड़ गई. इस तरह माओवादियों को दबोचने के नाम पर चलाया जा रहा अभियान आदिवासियों के पेट पर लात मारने का अभियान बनने लगा.
एक अनुमान के मुताबिक़, केवल उड़ीसा में सकल घरेलू उत्पाद के दोगुने मूल्य क़रीब 40 ख़रब रुपये के बॉक्साइट का भंडार है और उसे निचोड़ने के लिए कंपनियां लार टपका रही हैं. कोरापुट ज़िले में भी बॉक्साइट की खानें हैं, जिनका दोहन करने के लिए आदित्य बिड़ला की तीन कंपनियां जुटी हुई हैं. इसके लिए आदिवासियों की ज़मीन हड़पने की मुहिम जारी है. सीएमएएस का प्रतिरोध कंपनियों के लिए भारी रुकावट रहा है. मुना़फे की लूट के लिए लेमन ग्रास को सरकारी बढ़ावा दिए जाने के ख़िला़फ भी सीएमएएस आवाज़ बुलंद कर रहा था. नारायनपटना और उसके आसपास की जिन ज़मीनों पर धान बोया जाता रहा है, उनके 70 फीसदी हिस्से पर अब लेमन ग्रास की खेती हो रही है. लेमन ग्रास से निकला इत्र नहाने के साबुन को सुगंधित बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. ज़ाहिर है कि रतनजोत की तरह लेमन ग्रास भी खाद्य सुरक्षा के लिए गंभीर ख़तरा है. लेकिन, पूंजीपतियों के हितों के सामने सरकारों को अपनी ग़रीब जनता की भूख की चिंता नहीं सताती. बहरहाल, राज्य सरकार से टकराने की हिमाक़त आख़िरकार सीएमएएस को महंगी पड़ी.
गुजरी 20 नवंबर को स्थानीय पुलिस को सीएमएएस को सबक सिखाने का मौक़ा मिल गया. उस दिन क़रीब दो सौ आदिवासी नारायनपटना पुलिस थाने पर एकत्र हुए. इनमें आधी से अधिक महिलाएं थीं. इससे दो माह पहले सीएमएएस ने गांवों में सुरक्षाबलों की तैनाती और उनकी ज़्यादतियों के ख़िला़फ रैली की थी. तब सीएमएएस को लिखित आश्वासन मिला था कि उसे आइंदा ऐसी शिक़ायत करने का मौक़ा नहीं मिलेगा. इसके बावजूद 18 और 19 नवंबर को सुरक्षाबलों ने पांच गांवों में तलाशी के नाम पर आदिवासियों को मारा-पीटा और महिलाओं के साथ बदसलूकी की. उन्हें फसल की कटाई करने से रोक दिया गया. आदिवासी इसकी शिक़ायत दर्ज़ करने और यह जवाब मांगने भी गए थे कि आख़िर लिखित वायदे को क्यों तोड़ा गया, लेकिन थाना प्रभारी उन्हें सुनने को तैयार नहीं थे. उल्टे उन्हें गरिया-धमका रहे थे. किसी तरह सीएमएएस के छह नेताओं ने थाने में प्रवेश किया. उनके और थाना प्रभारी के बीच तीखी नोकझोंक हुई. अचानक थाना प्रभारी चीखने लगा कि उस पर हमला हो गया है और थाने की छत पर तैनात सीआरपीएफ और कोबरा बटालियन ने अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी. सिंगन्ना को सीने पर दस गोलियां लगीं और कार्यकर्ता नचिका एंड्रू के साथ उनकी मौक़े पर मौत हो गई. लगभग 60 आदिवासी घायल हुए. इसी के साथ गिरफ़्तारियों का सिलसिला शुरू हो गया. इलाक़े को आदिवासियों का शिकार करने का मैदान बना दिया गया. सीएमएएस के कार्यकर्ता भूमिगत हो गए. फिर भी फायरिंग में मारे गए सिंगन्ना और एंड्रू के अंतिम संस्कार के मौक़े पर 23 नवंबर को पोड़ापडर गांव की ओर आदिवासियों का जैसे सैलाब उमड़ पड़ा.
ढेरों सवाल हैं, जिनके जवाब ग़ायब हैं. फायरिंग का आदेश किसने दिया? क्या इसके लिए मजिस्ट्रेट की इजाज़त ली गई? अगर निहत्थे आए आदिवासियों से सचमुच क़ानून-व्यवस्था के लिए कोई ख़तरा था तो उन्हें तितर-बितर करने के लिए अश्रुगैस या दूसरे कम घातक तरीक़ों का इस्तेमाल क्यों नहीं किया गया? याद रहे कि आदिवासी तीर-धनुष के अपने परंपरागत हथियारों के बग़ैर थे. इसलिए कि इससे पहले इन्हीं हथियारों के कारण उन्हें मीडिया के सामने माओवादी करार दिया जाता रहा है.
और अब, आदिवासियों को खटका लगा रहता है कि कब रात के अंधेरे में नागों और बिच्छुओं की फौज उनके गांव को घेर ले, दरवाज़ा तोड़कर उनके घरों में दाख़िल हो, उन्हें बूटों से रौंदे और उनका सब कुछ तबाह कर दे. आदिवासी क्या करें और क्या न करें. गांव में बने रहना ख़तरे से ख़ाली नहीं और जंगल भाग जाना भी ख़तरे से कोई बचाव नहीं. सुरक्षाबल तो माओवादियों की तलाश में चप्पा-चप्पा छान रहे हैं. निरीह आदिवासियों को जंगल में ढेर कर देना और उन्हें माओवादी घोषित कर देना तो बस उनके ट्रिगर दबाने का कमाल होगा.
फिलहाल, सुरक्षाबलों के छापे में घर-घर से हथियार ज़ब्त किए जा रहे हैं. तीर-धनुष के अलावा इसमें कुल्हाड़ी, हथौड़ा, हंसिया, चाकू और आरी वग़ैरह भी शामिल है. सुरक्षाबलों की हिदायत है कि आदिवासी इन हथियारों को रखने से बाज आएं, वरना उनके ख़िला़फ कड़ी कार्रवाई की जाएगी. यानी लकड़ी चीरने-फाड़ने, धान की कटाई करने या सब्ज़ी-जानवर काटने जैसे रोजमर्रा के काम बंद. यह पाबंदी दाढ़ी बनाने के ब्लेड या उस्तरे पर भी लगनी चाहिए, क्योंकि उससे किसी का धड़ भी अलग किया जा सकता है. सूजे को भी क्यों छोड़ा जाए, जो भले ही चावल की बोरियों को सिलने के काम आता है, लेकिन उसे किसी के पेट में भी तो घोंपा जा सकता है.
पुलिस फायरिंग के बाद नारायनपटना जलने लगा. सरकार नहीं चाहती कि उसके दमन की कोई कहानी बाहर आए. इससे सरकारी कामकाज में बाधा पहुंचती है. स्थानीय मीडिया प्रशासन के कब्जे में है और वह सरकारी ज़ुबान में बोलने का आदी है. ऐसे में राजनीतिक कार्यकर्ता तपन मिश्रा ने हालात का जायज़ा लेने और मीडिया तक सच पहुंचाने की गरज से नारायनपटना का दौरा करने का फैसला किया, लेकिन 29 नवंबर को बीच रास्ते में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया. ज़िला पुलिस अधीक्षक ने उन्हें मीडिया के सामने कट्टर माओवादी के तौर पर पेश करते हुए बताया कि वह बागियों को हथियारों का प्रशिक्षण देने में शामिल रहे हैं. उन पर देशद्रोह का मामला थोप दिया गया.
राज्य के दमन से पैदा हालात का जायज़ा लेने के लिए लोकतांत्रिक अधिकारों की पैरवी कर रही महिलाओं का दल नौ दिसंबर को नारायनपटना पहुंचा था. इसमें नई दिल्ली समेत तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की भी महिला कार्यकर्ता शामिल थीं. इस दल को स्थानीय पुलिस ने इलाक़े का दौरा करने से रोक दिया और थाने के बाहर ग़ैर आदिवासी ज़मीन मा़फियाओं एवं उनके गुंडों की भीड़ जुटा ली. थाने से बाहर आते ही भद्दी गालियों के साथ महिला जत्थे की पिटाई की गई और उसे सीएमएएस के ख़िला़फ फूटे जनता के गुस्से का नाम दे दिया गया. याद रहे कि इसी तर्ज पर 13 दिसंबर को छत्तीसगढ़ में दंतेवाड़ा की ओर जा रही 10 राज्यों की प्रतिनिधि महिलाओं को भी हैरान-परेशान किया गया था और उन्हें रायपुर वापस लौटने के लिए मजबूर कर दिया गया था.
जैसे दंतेवाड़ा में सरकारी सहयोग और संरक्षण में सलवाजुड़ूम यानी शांति वाहिनी का गठन हुआ, ठीक उसी तरह उड़ीसा में सत्तारूढ़ बीजू जनतादल एवं कंपनियों के सहयोग से शराब व्यापारी और ज़मीन के लुटेरे शांति समिति के नाम से सीएमएएस के ख़िला़फ एकजुट हो गए हैं.
क्या एकरूपता है! तो क्या मज़बूत सरकार का मतलब लोकतंत्र का अपहरण करने और दमन की हदों को पार कर जाने का लाइसेंस रखना होता है? पिछली बार झारखंड के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही शिबू सोरेन ने कंपनियों की राह को आसान बनाना अपनी सरकार की पहली प्राथमिकता बताया था. जिंदल, आर्सेलर मित्तल, इस्सर, टाटा, भूषण जैसी देशी-विदेशी बड़ी कंपनियों के साथ सौ से अधिक करारनामे पर हस्ताक्षर भी हुए. लेकिन आदिवासियों के तगड़े विरोध के सामने और माओवाद के ख़तरे का जाप करने के बावजूद गुरुजी की प्राथमिकता धरी की धरी रह गई. इन कंपनियों की परियोजनाएं काग़ज़ी खानापूर्ति से आगे नहीं बढ़ सकीं. दमन का सरकारी चक्का रफ़्तार नहीं पकड़ सका, उल्टे लगातार धीमा होता गया. तब उनकी सरकार जुगाड़िया गठबंधन की कमज़ोर रस्सी के भरोसे बनी थी.
और अब, जैसे-तैसे दोबारा मुख्यमंत्री बने उन्हीं गुरुजी के डंके की चोट का पुराना स्वर फिलहाल ढीला और गोलमोल है. इस बार उनकी सरकार के सामने समझौतापरस्ती और अधिक नाज़ुक रस्सी पर नटगिरी करने की मजबूरी है. हल्का सा झटका भी उनकी सरकार की कमर तोड़ सकता है. कंपनियों के प्रेम में विस्थापन विरोधी आंदोलनों के साथ सख्ती करने में जोख़िम है. झारखंड सरकार से उलट छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की सरकारें बहुमत में हैं. उनके सामने औंधे मुंह गिर जाने का ख़तरा नहीं है. और, इसीलिए माओवाद से जूझने के नाम पर दोनों राज्यों में न्याय और अधिकार की आवाज़ों के कत्लेआम का माजरा सबके सामने है. तो क्या अल्पमत की सरकारें ग़रीब-गुरबों के लिए वरदान होती हैं कि अपेक्षाकृत कम दमनकारी होती हैं? मौजूदा निजाम में कमज़ोर सरकारें लोकतंत्र की सेहत के लिए ज़्यादा मु़फीद होती हैं?

इसे भी पढ़े...

चौथी दुनिया के लेखों को अपने ई-मेल पर प्राप्त करने के लिए नीचे दिए गए बॉक्‍स में अपना ईमेल पता भरें::

Leave a Reply




कृपया आप अपनी टिप्पणी को सिर्फ 500 शब्दों में लिखें


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें