रविवार, 10 जुलाई 2011

सफलता तलाशता विवाद




आमिर ख़ान, राजू हिरानी और विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म थ्री इडियट्स ने मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में कमाई के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए थे, लेकिन कमाई के साथ-साथ इस फिल्म ने अंग़्रेजी लेखकों के बीच प्रतिष्ठा पाने के लिए संघर्ष कर रहे चेतन भगत को हिंदी जगत में भी लोकप्रिय कर दिया. हुआ यह कि अपने द्वारा 2004 में लिखे उपन्यास फाइव प्वाइंट समवन-व्हाट नॉट टू डू एट आईआईटी पर आधारित फिल्म थ्री इडियट्स की सफलता के संकेत मिलते ही चेतन भगत ने फिल्म के प्रोड्यूसर और डायरेक्टर पर आरोपों की झड़ी लगा दी. चेतन को इस बात की तक़ली़फ थी कि उन्हें फिल्म के क्रेडिट में उचित स्थान नहीं मिला. आरोप इस बात का लगाया गया कि फिल्म की शुरुआत में स्टोरी और स्क्रीनप्ले के  क्रेडिट में स़िर्फ राजू हिरानी और अभिजात जोशी का नाम दिया गया, जबकि चेतन भगत का नाम फिल्म के अंत में रोलिंग क्रेडिट में दिया गया. राजू हिरानी ने उनके आरोपों को ख़ारिज कर दिया था.
सफल फिल्म, सफल हीरो और अंग्रेजी के लोकप्रिय लेखक के बीच विवाद, आरोपों- प्रत्यारोपों की झड़ी. न्यूज़ चैनलों ने इस मुद्दे को लपक लिया और पूरे हफ्ते यह ख़बर प्रमुखता के साथ हर न्यूज़ चैनल के प्राइम टाइम पर चली. फिल्म को तो इसका लाभ मिला ही, चेतन भी ज़बरदस्त रूप से लाभांवित हुए. 2004 में छपी और लाखों की संख्या में बिक चुकी इस किताब की खोज में नए पाठक फिर से किताबों की दुकानों पर जाने लगे और थ्री इडियट्स की सफलता पर सवार होकर यह किताब एक बार फिर से हिट हो गई.
सफल फिल्म, सफल हीरो और अंग्रेजी के लोकप्रिय लेखक के बीच विवाद, आरोपों- प्रत्यारोपों की झड़ी. न्यूज़ चैनलों ने इस मुद्दे को लपक लिया और पूरे हफ्ते यह ख़बर प्रमुखता के साथ हर न्यूज़ चैनल के प्राइम टाइम पर चली. फिल्म को तो इसका लाभ मिला ही, चेतन भी ज़बरदस्त रूप से लाभांवित हुए. 2004 में छपी और लाखों की संख्या में बिक चुकी इस किताब की खोज में नए पाठक फिर से किताबों की दुकानों पर जाने लगे और थ्री इडियट्स की सफलता पर सवार होकर यह किताब एक बार फिर से हिट हो गई. चेतन भगत को दूसरा लाभ यह मिला कि उन्हें हिंदी के पाठकों के बीच एक पहचान मिली.
यह इस विवाद का एक ऐसा पहलू है, जो हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि कहीं पूरा का पूरा विवाद एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा तो नहीं था. कहीं यह हिंदी के विशाल बाज़ार में पैठ बनाने का योजनाबद्ध प्रयास तो नहीं था. हमें इस बात पर आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए कि भविष्य में बड़े पैमाने पर चेतन की किताबें हिंदी में अनूदित होकर बाज़ार में आ जाएं.
अब अगर हम चेतन की इस किताब, फाइव प्वाइंट समवन-व्हाट नॉट टू डू एट आईआईटी पर बात करें तो कृति के  रूप में यह एक बेहद कमज़ोर किताब है. दिल्ली के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी के पूर्व छात्र रह चुके चेतन भगत ने अपने कॉलेज के दिनों के अनुभवों को बेहद ही सरल और कैंपस की बोलचाल की भाषा में कलमबद्ध किया है. चेतन की इस किताब में हरि, रेयन और आलोक नाम के तीन ऐसे छात्रों की कहानी है, जो अपने-अपने इलाक़े के बेहद प्रतिभाशाली छात्र हैं. आईआईटी में एडमिशन लेते व़क्त तक उन्हें अपनी प्रतिभा पर बेहद गर्व होता है, लेकिन कॉलेज में दाख़िला लेने के बाद उनका गर्व मिट्टी में मिल जाता है, जब उन्हें इस बात का एहसास होता है कि वहां ज़्यादा प्रतिभाशाली छात्रों की पूरी फौज मौजूद है. इन तीनों की दोस्ती की नींव उस व़क्त पड़ती है, जब उनके  सीनियर्स रात में उन्हें उनके कमरे से रैगिंग के लिए खींच ले जाते हैं. रैंगिग के पीड़ित उक्त तीनों कालांतर में बेहद क़रीबी दोस्त बन जाते हैं.
इन तीनों लड़कों के माध्यम से चेतन भगत ने एक ऐसी पीढ़ी की तस्वीर खींचने की कोशिश की है, जिसकी आंखों में सुंदर सपने हैं, जिसे पाने के लिए वह कुछ भी कर सकती है. रेयान, हरि और आलोक को केंद्र में रखकर चेतन ने कहानी का एक ऐसा ताना-बाना बुना है, जो भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर चोट करता प्रतीत तो होता है, लेकिन दरअसल ऐसा है नहीं. इस किताब में शिक्षा व्यवस्था पर चोट नहीं की गई है, बल्कि उसे ऐसे युवाओं की आंख से देखने या दिखाने की कोशिश की गई है, जो अपनी सफलता के लिए एक शॉर्टकट की तलाश में हैं. जो चाहते हैं कि ज़िंदगी में वे बेहद सफल हों. मेहनत भी करें, लेकिन सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हुए वे फन को नहीं छोड़ना चाहते, क्योंकि उन्हें लगता है कि फन तो उनका बर्थ राइट है. यह एक ऐसी पीढ़ी की स्टोरी है, जो अपने आप में भी मस्त रहती है. एक ऐसी पीढ़ी, जो प्यार-मोहब्बत भी देख-परख कर करती है. एक ऐसी पीढ़ी, जो फक, स्क्रू, क्रैब, ऐसहोल, शिट जैसे शब्दों का आपसी बातचीत में बिल्कुल बेफिक्री से इस्तेमाल करती है. चेतन की यह पूरी किताब घटना प्रधान है और पाठकों को चौंकाने का प्रयास करती चलती है. पाठकों को झटका देने के लिए लेखक पात्रों से बेहद दुस्साहसिक काम भी करवाता है. सफलता के इस सूत्र को पकड़ते हुए चेतन ने पात्रों से ऐसे ही दुस्साहसी काम करवाए भी हैं. मसलन तीनों लड़कों से अपने विभागाध्यक्ष के कमरे में रात में घुसकर क्वेश्चन पेपर चोरी की घटना और फिर रंगे हाथों पकड़े जाने के बाद भी शर्मिंदगी का एहसास तक न होना. इन पात्रों और घटनाओं के अलावा लेखक ने अपनी कृति को सफल बनाने के लिए उसमें एक स्त्री पात्र भी डाला है. यह पात्र ठीक उसी तरह है, जैसे किसी बॉलीवुड फिल्म को सफल बनाने के लिए उसमें आइटम नंबर डाला जाता है. विभागाध्यक्ष की बेटी नेहा अपने पिता की मर्ज़ी के ख़िला़फ लड़कों से दोस्ती करती है, वह एक ऐसी बिंदास और आज़ाद ख्याल वाली लड़की है, जिसे  अपने ब्वॉय फ्रेंड के साथ शारीरिक संबंध बनाने में कोई झिझक नहीं होती. उसके लिए तो यह संबंध फन ऑफ लाइफ है. कौमार्य भंग होने या फिर कुंवारी लड़की का लड़के से शारीरिक संबंध बनाने का कोई रिमोर्स नहीं, क्योंकि उसकी अपनी च्वाइस है. वह अपने फैसले ख़ुद लेना चाहती है. चेतन भगत ने इसे ध्यान में रखते हुए इस पात्र के  ज़रिए अपनी किताब में सेक्स का तड़का भी लगाया है. चेतन भगत का जो नैरेटिव है, उसमें एक पेस है, वाक्यों में पंच है, शब्दों में नयापन है, लेकिन लेखन की गहराई नहीं. छात्रों के बीच बोली जाने वाली भाषा को अपने लेखन में इस्तेमाल कर चेतन ने पाठकों के शब्द ज्ञान में भी इज़ा़फा किया है. इस किताब की सफलता की वजह पुराने विषय का नया ट्रीटमेंट, पात्रों और घटनाओं का रियलिटी के क़रीब होना है. कैंपस ह्यूमर से लबरेज इस किताब में कई दुखद घटनाएं भी हैं, लेकिन पात्र उनसे बेहद जल्द उबर जाते हैं.
इस किताब में बार-बार इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि आईआईटी में ग्रेडिंग सिस्टम क्रिएटिविटी पर भारी है. लेकिन यह संदेश के तौर पर नहीं, बल्कि पाठकों के मन को क़रीब से पकड़ने के लिए किया गया है. इस वजह से ही ग्रेडिंग सिस्टम के फाइव प्वाइंट से इस किताब का शीर्षक उठाया गया है. कुल मिलाकर अगर हम एक कृति के  तौर पर इस पर विचार करें तो यह बेहद हल्की, चालू क़िस्म की किताब है. मेरी राय में यह उसी तरह है, जिस तरह हिंदी में मेरठ से छपने वाले उपन्यास हैं, जो बिकते तो बहुत ज़्यादा हैं, लेकिन न तो उनका कोई स्थायी महत्व है और न ही गंभीर लेखकों एवं पाठकों के बीच स्वीकार्यता.

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