रोमन साम्राज्य के सम्राट बस दो ही चीजों से डरते थे, असभ्य एवं अशिष्ट जनता और रोम के अंदर खाद्य पदार्थों की कमी. जनता पर नकेल कसने के लिए सेना की मदद ली जाती थी तो खाद्यान्नों की उपलब्धता बनाए रखने के लिए खुद राजा चौकन्ना रहता था. राजा को पता था कि भूखी जनता उसके शासन के लिए खतरनाक हो सकती है.
सत्ता से चिपके रहकर अपनी जिम्मेदारियों से भागना सुखद स्थिति नहीं है. बढ़ते असंतोष के बीच यह लापरवाही चौंकाने वाली है. अपने दोबारा निर्वाचन को लेकर निश्चिंत रहने वाले नेता ही यह खतरा मोल ले सकते हैं. जनता को भरमाने के लिए विकास की तेज़ गति उनके लिए एक हथियार का काम करती है. पवार और मुरली देवड़ा इन चिंताओं से दूर रहते हुए अपने पद पर बने रह सकते हैं. अगले चुनावों में अभी भी चार साल का समय बाकी है और यह बात तय है कि साल 2014 के मई महीने में जब मतदाता वोट देने के लिए बूथों पर जाएंगे तो तेल और अनाज की बढ़ी कीमतें उनके जेहन से दूर जा चुकी होंगी. नदी के आने से पहले उसे पार करने की चिंता का भला औचित्य क्या है?
रोमन साम्राज्य के राजा इतने हठीले नहीं थे. सिद्धांत रूप में वे मृत्युपर्यंत अपने पद पर बने रहते थे, लेकिन उन्हें पता था कि मृत्यु कभी भी आ सकती है. किसी अंजाने दुश्मन का खंजर उनकी जीवन लीला को कभी भी समाप्त कर सकता है. वे यह भी जानते थे कि यदि शासन करने में सक्षम न हों तो राजा नहीं बने रह सकते. लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह विचारधारा पूरी तरह उल्टी हो गई है. यदि आप सत्ता में रहते हुए शक्तिहीन होने का कोई सामयिक उदाहरण देखना चाहते हैं तो श्रीनगर के हालत पर ग़ौर कीजिए. तेल की कीमतों में हुई वृद्धि के चलते दिल्ली में आयोजित बंद और श्रीनगर में कर्फ्यू के बीच क्या कोई समानता है? दोनों के हालात अलग-अलग हैं, लेकिन समस्या एक जैसी है, सरकार लोगों की समस्याओं पर ध्यान नहीं दे रही.
ऐसा लगता है, जैसे सरकारें एक अहम पहलू से पूरी तरह बे़खबर हो चुकी हैं. यह पहलू है खरीदारों के पश्चाताप का. मतदाताओं के पास यह विकल्प तो नहीं है कि वे अपनी खरीदी हुई चीज लौटा दें, लेकिन उनका पश्चाताप सत्ता की साख में सुराख कर सकता है. पिछले साल जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल दोबारा अपने पद पर निर्वाचित हुईं. उनकी जीत इतनी ज़बरदस्त थी कि विपक्षी पार्टियां हाशिए पर चली गईं, लेकिन केवल नौ महीने के अंदर ही स्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं. मर्केल का यूनाइटेड फ्रंट पंगु हो चुका है और 77 प्रतिशत से ज़्यादा जर्मन जनता को लगता है कि सत्ता पर सरकार का नियंत्रण खत्म हो चुका है. सत्ता का सूत्र बस एक वाक्य में ही छिपा है, स्थिति आपके नियंत्रण में है या कहीं आप ही तो स्थितियों से नियंत्रित नहीं हो रहे.
1971 में इंदिरा गांधी ने भारत के चुनावी इतिहास की सबसे बड़ी जीत हासिल की. साल के अंत तक पाकिस्तान के साथ युद्ध में मिली जीत के बाद उन्हें देवी का अवतार घोषित कर दिया गया, लेकिन 1973 की गर्मियां आते-आते हालात आश्चर्यजनक रूप से बदल चुके थे. करिश्माई जॉर्ज फर्नांडीस ने देशव्यापी रेल हड़ताल कर पूरे देश को अस्थिर कर दिया, जबकि संन्यास से वापस लौटने के बाद जयप्रकाश नारायण कौतूहल पैदा कर रहे थे. और यह तो सबको पता है कि लोगों के पश्चाताप का सबसे बड़ा कारण महंगाई ही था. लंगड़ाती हुई इंदिरा सरकार ने यह सोचकर आपातकाल का सहारा लिया कि विपक्ष पहले ही नेस्तनाबूद हो चुका है. लेकिन वह यह भूल गई थी कि सबसे खतरनाक विपक्ष राजनीतिक पार्टियां नहीं, बल्कि जनता का होता है.
यह बात अब क़रीब चार दशक पुरानी हो चुकी है, आतंकवादी हमारे दरवाज़े पर खड़े हैं, नक्सलवाद हमारे घर-आंगन तक पहुंच चुका है, महंगाई के चलते रसोई संकट में है और पाकिस्तान के साथ हमारा विवाद पूर्ववत बना हुआ है. नीरो सम्राट भले न हो, लेकिन यह स्पष्ट है कि कृषि और खाद्य आपूर्ति का ज़िम्मा उसी के हाथों में है. शरद पवार पहले ऐसे केंद्रीय मंत्री हैं, जिन्होंने यह सार्वजनिक रूप से क़बूल किया कि वह एक चुकी हुई शक्ति हैं. गनीमत यह है कि वह एक लंबी पारी खेल चुके हैं, लेकिन युवा नेताओं की नई पीढ़ी को उनसे सबक लेना होगा. यदि वे नहीं चेते तो गोदाम में ही सड़ते रह जाएंगे.
भारत की मौजूदा हालत बाज़ार के बीचोबीच स्थित किसी मल्टीप्लेक्स से मिलती-जुलती लगती है, जिसमें एक साथ कई फिल्में चल रही हैं. कश्मीर में हिंसक नाटक तो दिल्ली में उबाऊ तमाशा, तमिलनाडु में फैमिली सोप ओपेरा, जिसे देखकर बरबस ही आंसू निकल पड़ें तो पंजाब में यही फैमिली ड्रामा दूसरे अंदाज़ में चल रहा है, गुजरात में पुरानी फिल्मों की सीडी चल रही है तो बंगाल में डेविड और गोलिएथ की पौराणिक कहानी का नकली रूपांतरण चल रहा है, उत्तर पूर्व में कहानियों की कोई पटकथा ही नहीं है. सबसे बड़ी बात तो यह है कि देश के कई हिस्सों में इस मल्टीप्लेक्स को चलाने वाले लोग ही बत्तियां बुझाकर चादर तान कर सो गए हैं. लेकिन इसकी फिक्र किसे है?
ऐसा लगता है, जैसे सरकारें एक अहम पहलू से पूरी तरह बे़खबर हो चुकी हैं. यह पहलू है खरीदारों के पश्चाताप का. मतदाताओं के पास यह विकल्प तो नहीं है कि वे अपनी खरीदी हुई चीज लौटा दें, लेकिन उनका पश्चाताप सत्ता की साख में सुराख कर सकता है. पिछले साल जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल दोबारा अपने पद पर निर्वाचित हुईं. उनकी जीत इतनी ज़बरदस्त थी कि विपक्षी पार्टियां हाशिए पर चली गईं, लेकिन केवल नौ महीने के अंदर ही स्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं. मर्केल का यूनाइटेड फ्रंट पंगु हो चुका है और 77 प्रतिशत से ज़्यादा जर्मन जनता को लगता है कि सत्ता पर सरकार का नियंत्रण खत्म हो चुका है.ईसा पूर्व 23 में रोम में खाने-पीने की चीजों की ज़बरदस्त कमी हो गई. इस दौरान अगस्ता ने अपने व्यक्तिगत कोष से खाद्यान्न खरीद कर लाखों रोमवासियों के बीच बांटा था. पहले से ही मशहूर रहे अगस्ता को इसके बाद रोमवासी और भी ज़्यादा भगवान की तरह मानने लगे. अगस्ता के उत्तराधिकारी तिबेरियस को आर्थिक मामलों की समझ कहीं ज़्यादा थी. ईस्वी सन् 19 में अन्न की कमी के चलते रोम में दंगे होने लगे तो तिबेरियस ने मूल्य वृद्धि पर रोक लगा दी और व्यापारियों को घाटे की भरपाई के लिए सब्सिडी उपलब्ध कराई. लेकिन शरद पवार का मामला जरा अलग है. पवार की तरह किसी अन्य राजा ने अब तक ऐसा नहीं कहा है कि वह खाद्यान्नों के वितरण की समस्याओं से आजिज आ चुका है और इससे अच्छा काम तो आईसीसी (इंपीरियल कॉलेजियम सर्कस) को चलाना है. यह सही भी है, क्योंकि टी-20 की लगातार बढ़ती लोकप्रियता के बीच सट्टेबाज ज़्यादा से ज्यादा पैसा लगाने के लिए उतावले हो रहे हैं. क्रिकेट के इस सर्कस में आधे-अधूरे कपड़े पहने चीयरगर्ल्स हर गेंद के बाद अपनी भाव भंगिमाओं से मोहित करने की कोशिश में लगी रहती हैं, तो प्रायोजक मनमानी कीमतों पर मीटिंग के आयोजन के लिए हर समय तैयार रहते हैं.
सत्ता से चिपके रहकर अपनी जिम्मेदारियों से भागना सुखद स्थिति नहीं है. बढ़ते असंतोष के बीच यह लापरवाही चौंकाने वाली है. अपने दोबारा निर्वाचन को लेकर निश्चिंत रहने वाले नेता ही यह खतरा मोल ले सकते हैं. जनता को भरमाने के लिए विकास की तेज़ गति उनके लिए एक हथियार का काम करती है. पवार और मुरली देवड़ा इन चिंताओं से दूर रहते हुए अपने पद पर बने रह सकते हैं. अगले चुनावों में अभी भी चार साल का समय बाकी है और यह बात तय है कि साल 2014 के मई महीने में जब मतदाता वोट देने के लिए बूथों पर जाएंगे तो तेल और अनाज की बढ़ी कीमतें उनके जेहन से दूर जा चुकी होंगी. नदी के आने से पहले उसे पार करने की चिंता का भला औचित्य क्या है?
रोमन साम्राज्य के राजा इतने हठीले नहीं थे. सिद्धांत रूप में वे मृत्युपर्यंत अपने पद पर बने रहते थे, लेकिन उन्हें पता था कि मृत्यु कभी भी आ सकती है. किसी अंजाने दुश्मन का खंजर उनकी जीवन लीला को कभी भी समाप्त कर सकता है. वे यह भी जानते थे कि यदि शासन करने में सक्षम न हों तो राजा नहीं बने रह सकते. लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह विचारधारा पूरी तरह उल्टी हो गई है. यदि आप सत्ता में रहते हुए शक्तिहीन होने का कोई सामयिक उदाहरण देखना चाहते हैं तो श्रीनगर के हालत पर ग़ौर कीजिए. तेल की कीमतों में हुई वृद्धि के चलते दिल्ली में आयोजित बंद और श्रीनगर में कर्फ्यू के बीच क्या कोई समानता है? दोनों के हालात अलग-अलग हैं, लेकिन समस्या एक जैसी है, सरकार लोगों की समस्याओं पर ध्यान नहीं दे रही.
ऐसा लगता है, जैसे सरकारें एक अहम पहलू से पूरी तरह बे़खबर हो चुकी हैं. यह पहलू है खरीदारों के पश्चाताप का. मतदाताओं के पास यह विकल्प तो नहीं है कि वे अपनी खरीदी हुई चीज लौटा दें, लेकिन उनका पश्चाताप सत्ता की साख में सुराख कर सकता है. पिछले साल जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल दोबारा अपने पद पर निर्वाचित हुईं. उनकी जीत इतनी ज़बरदस्त थी कि विपक्षी पार्टियां हाशिए पर चली गईं, लेकिन केवल नौ महीने के अंदर ही स्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं. मर्केल का यूनाइटेड फ्रंट पंगु हो चुका है और 77 प्रतिशत से ज़्यादा जर्मन जनता को लगता है कि सत्ता पर सरकार का नियंत्रण खत्म हो चुका है. सत्ता का सूत्र बस एक वाक्य में ही छिपा है, स्थिति आपके नियंत्रण में है या कहीं आप ही तो स्थितियों से नियंत्रित नहीं हो रहे.
1971 में इंदिरा गांधी ने भारत के चुनावी इतिहास की सबसे बड़ी जीत हासिल की. साल के अंत तक पाकिस्तान के साथ युद्ध में मिली जीत के बाद उन्हें देवी का अवतार घोषित कर दिया गया, लेकिन 1973 की गर्मियां आते-आते हालात आश्चर्यजनक रूप से बदल चुके थे. करिश्माई जॉर्ज फर्नांडीस ने देशव्यापी रेल हड़ताल कर पूरे देश को अस्थिर कर दिया, जबकि संन्यास से वापस लौटने के बाद जयप्रकाश नारायण कौतूहल पैदा कर रहे थे. और यह तो सबको पता है कि लोगों के पश्चाताप का सबसे बड़ा कारण महंगाई ही था. लंगड़ाती हुई इंदिरा सरकार ने यह सोचकर आपातकाल का सहारा लिया कि विपक्ष पहले ही नेस्तनाबूद हो चुका है. लेकिन वह यह भूल गई थी कि सबसे खतरनाक विपक्ष राजनीतिक पार्टियां नहीं, बल्कि जनता का होता है.
यह बात अब क़रीब चार दशक पुरानी हो चुकी है, आतंकवादी हमारे दरवाज़े पर खड़े हैं, नक्सलवाद हमारे घर-आंगन तक पहुंच चुका है, महंगाई के चलते रसोई संकट में है और पाकिस्तान के साथ हमारा विवाद पूर्ववत बना हुआ है. नीरो सम्राट भले न हो, लेकिन यह स्पष्ट है कि कृषि और खाद्य आपूर्ति का ज़िम्मा उसी के हाथों में है. शरद पवार पहले ऐसे केंद्रीय मंत्री हैं, जिन्होंने यह सार्वजनिक रूप से क़बूल किया कि वह एक चुकी हुई शक्ति हैं. गनीमत यह है कि वह एक लंबी पारी खेल चुके हैं, लेकिन युवा नेताओं की नई पीढ़ी को उनसे सबक लेना होगा. यदि वे नहीं चेते तो गोदाम में ही सड़ते रह जाएंगे.
भारत की मौजूदा हालत बाज़ार के बीचोबीच स्थित किसी मल्टीप्लेक्स से मिलती-जुलती लगती है, जिसमें एक साथ कई फिल्में चल रही हैं. कश्मीर में हिंसक नाटक तो दिल्ली में उबाऊ तमाशा, तमिलनाडु में फैमिली सोप ओपेरा, जिसे देखकर बरबस ही आंसू निकल पड़ें तो पंजाब में यही फैमिली ड्रामा दूसरे अंदाज़ में चल रहा है, गुजरात में पुरानी फिल्मों की सीडी चल रही है तो बंगाल में डेविड और गोलिएथ की पौराणिक कहानी का नकली रूपांतरण चल रहा है, उत्तर पूर्व में कहानियों की कोई पटकथा ही नहीं है. सबसे बड़ी बात तो यह है कि देश के कई हिस्सों में इस मल्टीप्लेक्स को चलाने वाले लोग ही बत्तियां बुझाकर चादर तान कर सो गए हैं. लेकिन इसकी फिक्र किसे है?
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