दिल्ली भले ही देश का दिल हो, मगर इसके दिल का किसी ने हाल नहीं लिया। पुलिस मुख्यालय, सचिवालय, टाउनहाल और संसद देखने वाले पत्रकारों की भीड़ प्रेस क्लब, नेताओं और नौकरशाहों के आगे पीछे होते हैं। पत्रकारिता से अलग दिल्ली का हाल या असली सूरत देखकर कोई भी कह सकता है कि आज भी दिल्ली उपेक्षित और बदहाल है। बदसूरत और खस्ताहाल दिल्ली कीं पोल खुलती रहती है, फिर भी हमारे नेताओं और नौकरशाहों को शर्म नहीं आती कि देश का दिल दिल्ली है।
मध्य प्रदेश की जीवनरेखा कही जाने वाली पवित्र नदी नर्मदा में प्रदूषण का स्तर घातक स्थिति में पहुंच चुका है. पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि नर्मदा नदी में बढ़ते प्रदूषण और छोटे-बड़े बांधों से पानी में ठहराव के कारण कई स्थानों पर मछलियों के जीवन पर संकट मंडरा रहा है. यह जानकारी नर्मदा समग्र बांद्राभान (होशंगाबाद) में आयोजित अंतरराष्ट्रीय नदी महोत्सव में आए विशेषज्ञों ने दी. जलजन्य जीवों पर अध्ययन करने वालों का कहना है कि नर्मदा नदी के निचले इलाक़ों में होशंगाबाद के आसपास मछलियों की 95 प्रजातियां पाई जाती थीं, लेकिन अब उनकी संख्या घटकर 46 रह गई है. छोटी और अल्पजीवी मछलियों की प्रजातियां जल प्रदूषण के कारण नष्ट हुई हैं. यह स्थिति मात्र 15 वर्षों में बनी है. इंदौर की शोध छात्रा बबीता मालाकार के अनुसार, महाशिर प्रजाति की मछलियां एक दशक पहले तक बहुतायत में पाई जाती थीं, लेकिन अब वे कहीं-कहीं कम मात्रा में पाई जाती हैं. महाशिर प्रजाति की मछलियां उथले सा़फ बहते पानी में ही रहने की अभ्यस्त होती हैं और पानी में ही प्रजनन करती हैं. अब इन मछलियों के लिए नदी में उथला बहता सा़फ पानी कहीं-कहीं मुश्किल से बचा है. डॉ. विपिन व्यास ने नर्मदा की अनेक मछली प्रजातियों के विलुप्त होने पर चिंता जताते हुए कहा कि विकास के लिए हमने नदी के प्राकृतिक बहाव को बुरी तरह बदला और प्रदूषित किया है, इसलिए अनेक जलजन्य जीवों और वनस्पतियों की प्रजातियां सदा के लिए विलुप्त हो रही हैं. जैव विविधता भंडार में होने वाली यह क्षति कालांतर में मानव के लिए मुसीबत खड़ी कर सकती है. आदिवासी क्षेत्रों में बदहाल शिक्षा व्यवस्थामध्य प्रदेश सरकार आदिवासियों के कल्याण और विकास के भले ही बड़े-बड़े दावे करती हो, लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और है. तमाम सरकारी प्रयासों के बावजूद आदिवासियों में साक्षरता का प्रतिशत 40 है, जबकि राज्य में साक्षरता का औसत प्रतिशत 63 है. कहने को तो आदिवासी क्षेत्रों में बड़ी संख्या में स्कूल खोले और बच्चों को शिक्षित करने के लिए प्रोत्साहनकारी कार्यक्रम शुरू किए गए हैं, लेकिन आदिवासी बच्चे इनका लाभ नहीं उठा पाते, क्योंकि सरकारी अमला लापरवाह है. प्राथमिक स्तर पर 60 प्रतिशत और माध्यमिक स्तर पर 55 प्रतिशत बच्चे बीच में ही स्कूल छो़ड देते हैं. सरकारी तर्क है कि ग़रीबी के चलते खेती एवं पशुपालन का काम करने के लिए बच्चे स्कूल छा़ेड देते हैं. आदिवासी स्कूलों में पांच हज़ार से ज़्यादा शिक्षक हैं, इनमें से 638 तो प्राचार्य हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि 638 स्कूल बिना प्राचार्य के चल रहे हैं. हायर सेकेंडरी स्तर के स्कूलों की हालत ऐसी है कि विज्ञान विषय पढ़ाने का काम हिंदी या संस्कृत के शिक्षक को करना पड़ता है. कहीं-कहीं तो पढ़ाई केवल परीक्षा के समय में कुछ दिनों पहले होती है. जहां स्कूल हैं, वहां शिक्षक नहीं हैं. जहां शिक्षक हैं, वहां छात्र नहीं हैं. कहीं ज़रूरत से ज़्यादा शिक्षक हैं तो कहीं बहुत कम. शिक्षा सामग्री, छात्रवृत्ति, गणवेश, बालिकाओं को साइकिल एवं मध्याह्न भोजन आदि प्रोत्साहनकारी सरकारी कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार का बोलबाला है.दलित परिवार क़र्ज़ नहीं लौटातेमध्य प्रदेश अनुसूचित जाति वित्त एवं विकास निगम के अधिकारियों की शिक़ायत है कि ग़रीबी रेखा के नीचे के स्तर के अनुसूचित जाति वर्ग के लगभग 16000 व्यक्तियों को बांटे गए 300 करोड़ रुपये के क़र्ज़ में से ज़्यादातर धनराशि वापस नहीं आई है. इस कारण लगभग 150 करोड़ रुपये का क़र्ज़ डूबने की स्थिति में आ गया है. निगम के अधिकारियों का यह भी कहना है कि क़िस्तों में वसूली के लिए क़र्ज़दारों से लगातार संपर्क भी किए जाते हैं, लेकिन फिर भी वे क़र्ज़ नहीं लौटाते. कई क़र्ज़दार अपने दिए गए पते से कहीं और चले गए हैं. निगम ने अब क़र्ज़ देने में बहुत सावधानी बरतनी शुरू कर दी है. कई मामलों में वह क़र्ज़ देने से मना भी करने लगा है. लगता है कि राज्य में रहने वाले लाखों ग़रीब दलित परिवारों से प्रदेश सरकार का भरोसा ख़त्म हो गया है, क्योंकि उनके पुनर्वास एवं स्वरोज़गार के लिए राष्ट्रीय निगमों से मिलने वाले क़र्ज़ पर वित्त विभाग ने गारंटी देने से इंकार कर दिया है. राज्य सरकार के ताज़े रु़ख के बाद राष्ट्रीय निगमों ने भी चालू वित्तीय वर्ष में चल रही योजनाओं के तहत कोई राशि जारी नहीं की है. केंद्र द्वारा दलितों के पुनर्वास एवं स्वरोज़गार के लिए प्रदेश में क़रीब आधा दर्ज़न से ज़्यादा योजनाएं संचालित की जा रही हैं. इनमें स़फाई कामगार पुनर्वास और विकलांगों के स्वरोज़गार की कई बड़ी परियोजनाएं शामिल हैं. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति वित्त एवं विकास निगम इन योजनाओं के लिए प्रति वर्ष 50 करोड़ रुपये से ज़्यादा की राशि क़र्ज़ के रूप में उपलब्ध कराता रहा है, लेकिन यह राशि राज्य सरकार की गारंटी पर दी जाती थी. एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि इसे लेकर वित्त विभाग के साथ बैठक भी की गई थी, लेकिन वह गारंटी के लिए राजी नहीं हुआ.बाज़ार में आने वाला है बीटी आलूबॉयो टेक्नोलॉजी द्वारा जेनेटिकली मोडिफाइड बैंगन (बीटी बैंगन) का विरोध थमा नहीं कि अब बाज़ार में बीटी आलू उतारने की तैयारी चल रही है. जानकारी के अनुसार, बीटी आलू तैयार हो गया है, लेकिन अभी उसे बाज़ार में उतारने के लिए सही समय और अनुकूल वातावरण की प्रतीक्षा है. पता चला है कि भारत सरकार की आनुवांशिक अभियंत्रण मंजूरी समिति (जीईएसी) के पास इसकी मंजूरी के लिए कोई आवेदन नहीं किया गया है. वैसे भी ताक़तवर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत सरकार की किसी भी संस्था की कोई परवाह नहीं है. यह उन कंपनियों और उनके समर्थक वैज्ञानिकों एवं कृषि विशेषज्ञों का कमाल है. उन्होंने 2002 में भारत सरकार से बीटी कॉटन, बीटी बैंगन आदि के बीजों का कारोबार करने की अनुमति ली थी. बाद में इसका विरोध भी हुआ, लेकिन अभी तक भारत सरकार ने इस मामले में कोई कड़ी कार्यवाही नहीं की है, जबकि मध्य प्रदेश समेत कुछ राज्य सरकारों ने बीटी बैंगन पर प्रतिबंध लगाया है. बीटी आलू के पक्षधरों का कहना है कि इसके बाज़ार में आ जाने से बच्चों में कुपोषण की समस्या से निपटने में मदद मिलेगी. प्रचार किया जा रहा है कि यह आलू पौष्टिक और शरीर के लिए लाभदायक ज़रूरी तत्वों से भरपूर है. यह विटामिन ए की कमी को भी दूर करेगा और इससे भारत में रतौंधी के शिकार लाखों ग़रीबों की आंखों को नया जीवन मिलेगा. जेनेटिकली मोडिफाइड आलू पर अभी तक सभी प्रयोग उसके उत्तकीय प्रजनन पर किए गए हैं. आशय यह कि आलू के टुकड़े काटकर उसे ज़मीन में बोया जाता है. उत्तर भारत में इसे आलू की आंखें लगाना कहते हैं. लैंगिक बीज (फूल-फल लगने) के उपरांत इस प्रजाति के गुण-दोषों के बारे में कोई जानकारी नहीं है. अभी अंतर आनुवांशिक आलू की स्थिरता के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसके लिए लैंगिक प्रजनन के प्रयोगों की ज़रूरत होती है, जो अभी तक नहीं किए गए.वनभूमि पर अधिकार के दो तिहाई दावे निरस्तभारत सरकार द्वारा लागू वनाधिकार मान्यता क़ानून के तहत मध्य प्रदेश में वनभूमि पर क़ाबिज़ आदिवासियों-वनवासियों को भू-अधिकार के पट्टे देने की कार्यवाही के तहत बड़ी संख्या में दावों को निरस्त किया जा रहा है. जानकारी के अनुसार, अब तक शासन को लगभग साढ़े तीन लाख दावे प्राप्त हुए हैं, लेकिन उसने केवल एक लाख सात हज़ार दावों को ही मान्य किया है और उनके आधार पर भू-अधिकार देने की कार्यवाही की जा रही है. जबकि दो लाख 41 हज़ार दावे शासन द्वारा निरस्त किए जा चुके हैं. वनमंत्री सरताज सिंह का कहना है कि वनाधिकार कानून में उन्हीं लोगों को भू-अधिकार के पट्टे देने का प्रावधान है, जो 75 वर्षों से वनभूमि पर क़ाबिज़ रहे हैं. 75 वर्षों से भूमि पर अपना क़ब्ज़ा सिद्ध करने में असफल रहने वाले दावेदारों के पट्टे और दावे निरस्त किए जाएंगे. कांग्रेस प्रवक्ता अरविंद मालवीय का कहना है कि शासन वनभूमि को उद्योगों एवं अन्य उपयोग के लिए अपने क़ब्ज़े में रखना चाहता है, इसलिए वर्षों से वनभूमि पर क़ाबिज़ लोगों के दावे निरस्त किए जा रहे हैं. भू-माफिया और खदान मा़फिया के दबाव में आकर पट्टे देने में जानबूझ कर गड़बड़ी की जा रही है. भोपाल संभाग में 8959 दावे मान्य किए गए, जबकि 44,122 दावे निरस्त कर दिए गए. संभाग के रायसेन, सीहोर एवं विदिशा आदि ज़िलों में बड़ी संख्या में आदिवासी सदियों से वनभूमि पर क़ाबिज़ हैं. नवाबी दौर में भी इन वनवासियों को उनके क़ब्ज़े की भूमि से बेद़खल नहीं किया गया. जबकि आज भारत सरकार द्वारा क़ानून बना दिए जाने के बाद अधिकारी अनपढ़ आदिवासियों और वनवासियों को 75 वर्ष का प्रमाण न मिलने के बहाने भूमि से बेद़खल कर रहे हैं. मालवीय ने कहा कि वन और राजस्व विभाग के छोटे अधिकारी दावेदारों के मामले ग्रामसभा में ले जाने की औपचारिता शरारती तरीक़े से पूरी कर रहे हैं. दावेदारों को इसकी ख़बर नहीं लग पाती और न ही उन्हें ग्रामसभा की बैठकों का पता चलता है. इसलिए निरस्त दावों की दोबारा जांच और समीक्षा की जानी चाहिए.प्लास्टिक कचरे का ईंधन के रूप में इस्तेमालप्लास्टिक कचरे की समस्या से निजात दिलाने के लिए एक आसान हल निकाला गया है. इस कचरे को सीमेंट कारखानों में ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा है और इसके अच्छे नतीजे भी मिल रहे हैं. मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की वार्षिक रिपोर्ट 2008-09 के अनुसार, इस वर्ष राज्य के सतना, नीमच, कटनी, दमोह और रीवा के कारखानों में 300 टन प्लास्टिक कचरा बतौर ईंधन उपयोग किया गया है. इससे कोयले की बचत भी हुई और अनुपयोगी प्लास्टिक कचरा सुरक्षित रूप से नष्ट भी कर दिया गया. मध्य प्रदेश के शहरों में प्रतिदिन औसतन 44 मैट्रिक टन से अधिक ठोस कचरा निकलता है, जिसमें 2 से 8 प्रतिशत तक प्लास्टिक कचरा होता है. कम तापमान पर प्लास्टिक जलाने से ज़हरीली और हानिकारक गैसें निकलती हैं, जो प्राणी और वनस्पति जगत के लिए हानिकारक होती हैं. सीमेंट कारखानों में 1400 से 1450 डिग्री तक तापमान में यह कचरा जलाने से हानिकारक गैसें आग के साथ ही नष्ट हो जाती हैं. इसलिए प्रदूषण का ख़तरा भी नहीं रहता.इसे भी पढ़े...Tags: BT Dalits Extinct Madhya Pradesh Narmada Tribal credit education eggplant fish forest land fuel garbage law market plastic pollution potatoes protest rights अधिकार आदिवासी आलू ईंधन कचरा कर्ज दलित नर्मदा प्रदूषण प्लास्टिक बाज़ार बीटी मछली मध्य प्रदेश विरोध विलुप्त व्यवस्था शिक्षा क़ानून April 16th, 2010 | Print This Post | Email This Post |570 views |
चौथी दुनिया ब्यूरोeditor@chauthiduniya.com |
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